गन्ने की मिठास से साधी सियासत, योगी सरकार का फैसला बना आर्थिक और चुनावी दांव

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने गन्ने का मूल्य 30 रुपये बढ़ाकर किसानों को बड़ी राहत दी है। यह कदम केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सियासी भी है। इससे पश्चिमी यूपी में भाजपा की पकड़ मजबूत करने और 2027 के चुनावी समीकरण साधने की कोशिश दिख रही है।

 

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अगर कोई फसल सबसे ज्यादा असर डालती है, तो वह है गन्ना। यह केवल किसानों की आजीविका का साधन नहीं, बल्कि सत्ता के समीकरणों को तय करने वाला “राजनीतिक मीटर” भी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जब 2025–26 पेराई सत्र के लिए गन्ने का राज्य परामर्शित मूल्य (एसएपी) 30 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाकर अगेती प्रजाति के लिए ₹400 और सामान्य प्रजाति के लिए ₹390 कर दिया, तो यह सिर्फ एक आर्थिक निर्णय नहीं था यह एक राजनीतिक रणनीति, सामाजिक संदेश और कृषि अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने वाला निर्णय भी है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है। करीब 46 लाख किसान परिवार इस फसल से जुड़े हैं, और राज्य में हर साल लगभग 1100 करोड़ क्विंटल गन्ने की पेराई होती है। गन्ना उत्पादन से सीधे तौर पर लाखों मजदूर, ट्रांसपोर्टर, ट्रैक्टर मालिक और मिल मजदूर भी जुड़े हैं। ऐसे में इस फसल का भाव केवल किसानों के लिए नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धड़कन के बराबर होता है।

गन्ने की राजनीति की शुरुआत आज़ादी के बाद से ही हो चुकी थी। पश्चिमी यूपी के किसान आंदोलनों से लेकर 1980 के दशक में चौधरी चरण सिंह और बाद में अजीत सिंह का राजनीतिक उदय इसी फसल से हुआ। 2007 में जब बसपा सत्ता में आई, तब गन्ना किसानों की नाराज़गी समाजवादी पार्टी से थी। 2012 में जब अखिलेश यादव आए, तब वही किसान बसपा से नाराज़ थे। फिर 2014 में “मोदी लहर” के साथ भाजपा ने गन्ना बेल्ट में असाधारण समर्थन पाया। यानी, जिसने किसान को साधा, उसने यूपी की सत्ता को पकड़ा।पिछले कुछ वर्षों में भाजपा के लिए पश्चिमी यूपी की पकड़ ढीली पड़ती जा रही थी। किसान आंदोलन (2020–21) ने जाट और गन्ना किसानों के बीच दूरी बढ़ाई। 2022 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनावों में यह असर दिखा। ऐसे में योगी सरकार ने अब गन्ना मूल्य वृद्धि के माध्यम से एक बार फिर उसी वर्ग को साधने की कोशिश की है जिसने कभी भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत दिलाया था।

सरकार के अनुसार, यह फैसला लगभग ₹3,000 करोड़ की अतिरिक्त आमदनी किसानों की जेब में डालेगा। इसके साथ-साथ, सरकार ने बकाया भुगतान पर सख्ती बढ़ाई है, मिलों को समय पर भुगतान करने के निर्देश दिए हैं, और डीएम स्तर तक निगरानी की व्यवस्था की है।एक और पहलू  सरकार ने गन्ना किसानों के लिए ‘स्मार्ट गन्ना किसान पोर्टल’ और मोबाइल ऐप विकसित किया है, जिससे किसान अपनी पर्ची, वजन और भुगतान की स्थिति ऑनलाइन देख सकते हैं। इससे पारदर्शिता बढ़ी है और बिचौलियों की भूमिका घटी है।पिछले एक दशक में यह सबसे बड़ी वृद्धि मानी जा रही है। 2017 में योगी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से अब तक कुल 85 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि की है। 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले 20 रुपये की वृद्धि की गई थी। इस बार 30 रुपये की बढ़ोतरी से सरकार ने संकेत दिया है कि वह किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वादे की दिशा में ठोस कदम उठा रही है।

आर्थिक दृष्टि से यह कदम इसलिए अहम है क्योंकि गन्ने की लागत प्रति क्विंटल लगभग ₹310–₹330 तक पहुँच चुकी है। यानी, किसान को अब प्रति क्विंटल ₹70–₹90 का वास्तविक लाभ मिलेगा। पहले यह मार्जिन 30–40 रुपये से ज़्यादा नहीं था।यह फैसला केवल आर्थिक नहीं, गठबंधन राजनीति का हिस्सा भी है। राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) प्रमुख और केंद्रीय मंत्री जयंत चौधरी ने इसे “किसानों की मेहनत का सम्मान” बताया। इसी तरह सुभासपा प्रवक्ता अरुण राजभर ने कहा कि यह निर्णय किसानों के लिए दिवाली का तोहफा है।यह प्रतिक्रियाएँ संकेत देती हैं कि भाजपा अपने सहयोगी दलों को खुश रखने में सफल रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोटबैंक, जो RLD की परंपरागत ताकत रहा है, अब एनडीए के साथ मजबूती से खड़ा दिख सकता है। योगी सरकार ने इस निर्णय से आर्थिक राहत के साथ राजनीतिक सेतु भी मजबूत किया है।

समाजवादी पार्टी ने इस फैसले को “अपर्याप्त” कहा है। एसपी सांसद वीरेंद्र सिंह ने कहा कि महंगाई के अनुपात में यह वृद्धि नहीं। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि विपक्ष के पास इस मुद्दे पर आक्रामक होने की गुंजाइश कम है। क्योंकि किसान वर्ग इस बार पूरी तरह नाराज़ नहीं, बल्कि आंशिक संतुष्ट है।राकेश टिकैत जैसे किसान नेता भी यही कहते हैं फैसला ठीक है, पर दाम और बढ़ना चाहिए। यानी, विरोध नहीं, बल्कि उम्मीद का लहजा है। यही कारण है कि विपक्ष इस मुद्दे को बड़ा आंदोलन नहीं बना पा रहा।गन्ना मूल्य वृद्धि का दूसरा पहलू उद्योग जगत से जुड़ा है। राज्य में लगभग 120 चीनी मिलें हैं, जिनमें से कई निजी हैं। मूल्य वृद्धि से मिलों की लागत बढ़ेगी। यदि चीनी के बाजार मूल्य में समानांतर वृद्धि नहीं हुई, तो मिलों पर भुगतान का दबाव बढ़ेगा।

पिछले कुछ वर्षों में मिलों पर किसानों का बकाया 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था, जिसे योगी सरकार ने 80% तक निपटा दिया। पर यह समस्या हर साल दोहराई जाती है। इसलिए विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल मूल्य बढ़ाना पर्याप्त नहीं है  मिलों की आर्थिक संरचना और एथेनॉल नीति में सुधार भी जरूरी है, ताकि वे किसानों का भुगतान समय पर कर सकें।भारत में एथेनॉल मिश्रण नीति के तहत पेट्रोल में 20% एथेनॉल मिलाने का लक्ष्य है। गन्ने से मिलने वाला एथेनॉल इस मिशन का प्रमुख स्रोत है। उत्तर प्रदेश में पिछले तीन वर्षों में 40 से अधिक नई एथेनॉल डिस्टिलरी लगी हैं। इससे गन्ने का वैकल्पिक उपयोग बढ़ा है और किसानों को नए बाजार मिले हैं।योगी सरकार इस दिशा में आक्रामक रूप से काम कर रही है क्योंकि इससे न केवल किसानों की आय बढ़ेगी बल्कि राज्य की औद्योगिक छवि भी मजबूत होगी। एथेनॉल सेक्टर में निवेश आने से रोजगार बढ़ेगा, और ग्रामीण इलाकों में आर्थिक चक्र तेज़ होगा।यह स्पष्ट है कि यह फैसला 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारी का शुरुआती संकेत है। पंचायत चुनाव नजदीक हैं, जहाँ ग्रामीण आबादी का वोट निर्णायक होता है। योगी सरकार जानती है कि गन्ना किसान सिर्फ वोटर नहीं, बल्कि राय बनाने वाला वर्ग है। अगर यह वर्ग सरकार के पक्ष में है, तो उसका प्रभाव पूरे क्षेत्र में दिखता है।

इसके अलावा, यह कदम भाजपा की “किसान विरोधी छवि” को भी कम करने में मदद करेगा, जो किसान आंदोलन के बाद बनी थी। यह एक ऐसा राजनीतिक निवेश है जिसका लाभ लंबी अवधि में मिल सकता है।योगी आदित्यनाथ सरकार ने जो कदम उठाया है, वह निस्संदेह किसानों के हित में है। लेकिन इस मिठास को स्थायी बनाने के लिए जरूरी है कि यह निर्णय कागज़ से खेत तक पहुँचे। भुगतान समय पर हो, मिलों को राहत दी जाए, एथेनॉल उद्योग को और विस्तार मिले, और किसान की लागत घटाने पर भी ध्यान दिया जाए।उत्तर प्रदेश की राजनीति में गन्ना हमेशा निर्णायक रहा है। यह फसल हर सरकार की परीक्षा लेती है  जो इसकी मिठास को संभालता है, वही सत्ता की मिठास चखता है।फिलहाल, योगी सरकार ने गेंद अपने पाले में रख ली है। किसान खुश हैं, सहयोगी दल संतुष्ट हैं और विपक्ष असहज। लेकिन असली परीक्षा तब होगी जब यह बढ़ी हुई कीमत किसानों के बैंक खातों तक सही समय पर पहुँचेगी। अगर ऐसा हुआ, तो यह फैसला केवल एक आर्थिक निर्णय नहीं, बल्कि राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक साबित होगा।

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