उत्तर प्रदेश 2027: सियासत का रण, बीजेपी बनाम सपा

उत्तर प्रदेश की सियासत में 2027 का विधानसभा चुनाव अभी से चर्चा का केंद्र बन चुका है। डेढ़ साल बाद होने वाले इस महासमर के लिए भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपनी रणनीतियों को धार देना शुरू कर दिया है। बीजेपी जहां हिंदुत्व, विकास और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सख्त प्रशासनिक छवि के सहारे तीसरी बार सत्ता में काबिज होने की उम्मीद पाले है, वहीं सपा अपने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले की 2024 लोकसभा चुनाव की अप्रत्याशित सफलता को दोहराने की जुगत में है। दोनों दलों के बीच तीखे वार-पलटवार, सामाजिक समीकरणों की जटिल बिसात और संगठनात्मक तैयारियाँ उत्तर प्रदेश को एक बार फिर सियासी रणक्षेत्र में तब्दील कर रही हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बीजेपी के सबसे बड़े चेहरे के रूप में उभरे हैं। 2017 और 2022 में मिली शानदार जीत ने पार्टी को हैट्रिक की उम्मीद दी है। योगी की हिंदुत्ववादी छवि उनकी सबसे बड़ी ताकत है। वह मुगल आक्रांताओं, संभल मस्जिद सर्वे और भगवा आतंकवाद जैसे मुद्दों पर बेबाकी से बोलते हैं, जिससे बहुसंख्यक समुदाय में उनकी पैठ मजबूत होती है। योगी का नारा “बंटोगे तो कटोगे, एक हैं तो सेफ हैं” उनकी 80-20 रणनीति को दर्शाता है, जिसमें वह सवर्ण, गैर-यादव ओबीसी और कुछ हद तक दलित वोटों को एकजुट करने की कोशिश करते हैं। बीजेपी का दावा है कि योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश को सपा शासन के कथित “गुंडाराज” से मुक्ति दिलाई है। दंगों, व्यापारियों पर अत्याचार और महिलाओं के खिलाफ अपराधों का जिक्र करते हुए बीजेपी जनता को आगाह करती है कि सपा की वापसी से अराजकता लौट सकती है।
योगी की लोकप्रियता का आलम यह है कि एक हालिया सर्वे में उन्हें लगातार तीसरी बार देश का सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री चुना गया, जिसमें 33% से अधिक लोगों ने उनके पक्ष में वोट दिया। बीजेपी विकास के मोर्चे पर भी अपनी उपलब्धियाँ गिनाती है एक्सप्रेसवे, मेट्रो परियोजनाएँ, औद्योगिक निवेश और बिजली आपूर्ति में सुधार इसके प्रमुख उदाहरण हैं। हाल के उपचुनावों में बीजेपी की सात सीटों पर जीत, खासकर कुंदरकी जैसी मुस्लिम बहुल सीट पर 1,30,000 वोटों की बंपर जीत, पार्टी की संगठनात्मक ताकत और योगी की साख को दर्शाती है।
हालांकि, बीजेपी के सामने चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने 37 सीटें जीतकर बीजेपी के सवर्ण-पिछड़ा-दलित गठजोड़ में सेंध लगाई थी। गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोटों में कमी ने बीजेपी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। अब पार्टी गैर-यादव ओबीसी समुदायों, जैसे चौहान और कुर्मी, को साधने में जुटी है। हाल ही में लखनऊ में चौहान समाज के “संकल्प दिवस” जैसे आयोजनों से बीजेपी ने इन समुदायों को लुभाने की कोशिश की है। सहयोगी दलों जैसे अपना दल (सोनेलाल) और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के साथ गठबंधन को मजबूत रखना भी बीजेपी की प्राथमिकता है।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव 2024 के लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता से उत्साहित हैं। सपा ने 80 में से 37 सीटें जीतीं, जबकि सहयोगी कांग्रेस को 6 सीटें मिलीं। इस जीत का आधार था अखिलेश का पीडीए फॉर्मूला, जिसमें पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों को एक मंच पर लाने की कोशिश की गई। इस रणनीति ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के जाटव वोट बैंक में सेंध लगाई और गैर-यादव ओबीसी वोटों को सपा के पक्ष में मोड़ा। अखिलेश अब इस फॉर्मूले को और विस्तार दे रहे हैं। उन्होंने ब्राह्मण और कायस्थ जैसे सवर्ण समुदायों को जोड़ने के लिए माता प्रसाद पांडे जैसे नेताओं को अहम जिम्मेदारियाँ दी हैं। साथ ही, महेंद्र राजभर जैसे नेताओं को पार्टी में शामिल कर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा)-बीजेपी गठबंधन में सेंध लगाने की कोशिश की है।
अखिलेश का नया नारा “90-10” है, जिसमें वह दावा करते हैं कि 2027 में सपा और सहयोगी 90% सीटों पर कब्जा करेंगे। वह बीजेपी पर सामाजिक विभाजन का आरोप लगाते हुए बेरोजगारी, किसानों की समस्याएँ और महिलाओं की सुरक्षा जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं। सपा का सोशल मीडिया सेल योगी सरकार की कथित नाकामियों को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। अखिलेश ने योगी के सबसे लंबे कार्यकाल के रिकॉर्ड पर तंज कसते हुए इसे “काम न करने का रिकॉर्ड” करार दिया। उनकी रणनीति हिंदुत्व के जवाब में सामाजिक समावेश और आर्थिक मुद्दों को केंद्र में रखने की है।
आपके द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, अगस्त 2024 और फरवरी 2025 के मूड ऑफ नेशन सर्वे ने यूपी की सियासत का बदलता मिजाज दिखाया है। अगस्त 2024 में इंडिया गठबंधन को 40 सीटों की बढ़त थी, जिसमें सपा को 34 और कांग्रेस को 6 सीटें मिलने का अनुमान था। लेकिन फरवरी 2025 में एनडीए ने 43-45 सीटों के साथ बाजी पलट दी। बीजेपी को 40, आरएलडी और अपना दल को एक-एक सीट मिलने की संभावना थी, जबकि सपा को 30 और कांग्रेस को 3-5 सीटें मिलने का अनुमान था। यह उतार-चढ़ाव जनता के बदलते मूड को दर्शाता है। योगी की व्यक्तिगत लोकप्रियता और बीजेपी की संगठनात्मक ताकत एनडीए को मजबूती दे रही है, लेकिन सपा का पीडीए फॉर्मूला इसे कड़ी टक्कर दे रहा है।
2027 का चुनाव बीजेपी और सपा के लिए केवल सत्ता की जंग नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई है। बीजेपी को 2024 के लोकसभा चुनाव में मिले झटके से सबक लेना होगा, जहाँ सपा ने उसके वोट बैंक में सेंध लगाई थी। पार्टी को गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोटों को वापस लाने की चुनौती है। दूसरी ओर, सपा को अपने गढ़ों को बचाने और इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के साथ तालमेल बनाए रखने की जरूरत है। सीट बंटवारे पर तनाव की खबरें सपा के लिए खतरा बन सकती हैं।बीएसपी और आजाद समाज पार्टी जैसे दल दलित वोटों को बाँट सकते हैं, जो दोनों दलों के लिए चुनौती है। इसके अलावा, यूपी के संभावित बंटवारे की चर्चा भी सियासी माहौल को गर्म कर रही है। अगर ऐसा हुआ, तो यह 2027 के समीकरणों को और जटिल बना सकता है।उत्तर प्रदेश का 2027 विधानसभा चुनाव सियासत का एक रोमांचक रण होने जा रहा है। योगी का हिंदुत्व और विकास का कॉकटेल और अखिलेश का पीडीए और सामाजिक समावेश का नारा दोनों अपनी-अपनी जगह मजबूत हैं। जनता का मूड, सामाजिक समीकरण और नेताओं की रणनीतियाँ इस बात का फैसला करेंगी कि सत्ता की चाबी किसके हाथ में जाएगी। फिलहाल, यूपी की सियासत में शह और मात का खेल शुरू हो चुका है, और जनता इस रणक्षेत्र की सबसे बड़ी दर्शक है।