यूपी में तीसरे मोर्चे की एंट्री, स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुद को बताया मुख्यमंत्री पद का दावेदार

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर से हलचल मच गई है। एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी 2027 में सत्ता की हैट्रिक लगाकर इतिहास रचना चाहती है, वहीं समाजवादी पार्टी अपने PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फार्मूले के सहारे सत्ता में वापसी का सपना देख रही है। लेकिन इसी द्विध्रुवीय मुकाबले के बीच अब एक तीसरे मोर्चे की एंट्री ने राजनीतिक समीकरणों को उलझा दिया है। इस तीसरे मोर्चे का नाम है ‘लोक मोर्चा’ और इसके सूत्रधार हैं स्वामी प्रसाद मौर्य। खुद को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करके मौर्य ने न सिर्फ अपनी सियासी महत्वाकांक्षा जाहिर की है, बल्कि बीजेपी और सपा दोनों को खुला चैलेंज भी दे दिया है।गुरुवार को लखनऊ के दयाल पैराडाइज होटल में स्वामी प्रसाद मौर्य की अगुवाई में कई छोटे-छोटे दलों की एक बैठक हुई। इस बैठक के बाद औपचारिक रूप से ‘लोक मोर्चा’ का ऐलान किया गया। मौर्य ने खुद को इस मोर्चे का मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया और यह भी बताया कि लोक मोर्चा पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरेगा। उन्होंने यह दावा भी किया कि यह मोर्चा सिर्फ चुनावी गठबंधन नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की आवाज है, जो उन तबकों के हक की बात करेगा जिन्हें अब तक हाशिये पर रखा गया।

स्वामी प्रसाद मौर्य का राजनीतिक करियर कई रंगों से भरा रहा है। जनता दल से राजनीति की शुरुआत करने के बाद वह बसपा में शामिल हुए, जहां उन्हें मायावती का बेहद करीबी माना जाता था। फिर 2017 में उन्होंने बीजेपी का दामन थामा और योगी सरकार में मंत्री बने। लेकिन 2022 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने बीजेपी छोड़कर सपा जॉइन कर ली। हालांकि सपा में उनका सफर लंबा नहीं चला और उन्होंने अपनी खुद की पार्टी ‘जनता पार्टी’ बना ली। अब उसी के आधार पर वह छोटे-छोटे दलों को मिलाकर ‘लोक मोर्चा’ का गठन कर चुके हैं। इस तरह उनका राजनीतिक सफर एक दिलचस्प रोलर कोस्टर जैसा रहा है, जो अब उन्हें मुख्यमंत्री पद की ओर ले जाने की तैयारी में है।स्वामी प्रसाद मौर्य को ओबीसी समुदाय, खासकर मौर्य, कुशवाहा, सैनी और शाक्य समाज में ठीकठाक पकड़ वाला नेता माना जाता रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनके प्रभाव में गिरावट देखी गई है। इस समुदाय में अब भाजपा के केशव प्रसाद मौर्य और अन्य नेताओं ने मजबूत पकड़ बना ली है। यही वजह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य को अपनी सियासी जमीन फिर से हासिल करने के लिए एक नया प्लेटफॉर्म खड़ा करना पड़ा। पंचायत चुनाव को प्राथमिकता देना इसी रणनीति का हिस्सा है। उनका मानना है कि पंचायत स्तर पर मजबूत पकड़ बनाने से ही विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन संभव है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति इस समय पूरी तरह से द्विध्रुवीय हो चुकी है। एक ओर है बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए और दूसरी ओर है सपा के नेतृत्व वाला इंडिया गठबंधन। पिछले दो विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव में यही दोनों ध्रुव आमने-सामने रहे हैं। ऐसे में तीसरे मोर्चे की एंट्री को राजनीतिक पंडित बहुत उत्साह से नहीं देख रहे हैं। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य का दावा है कि उनकी राजनीति सिर्फ दलों के गठबंधन की नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए चलने वाली क्रांति है। उनका यह भी कहना है कि अब यूपी की जनता पुराने दलों से ऊब चुकी है और एक नई विकल्प की तलाश में है।हाल ही में उन्होंने आम आदमी पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर प्रदेश सरकार पर कानून-व्यवस्था को लेकर सवाल उठाए। एक दिन में 14 हत्याओं के मामले को लेकर उन्होंने यूपी में ‘गैंग्स ऑफ लखनऊ’ जैसी स्थिति होने का आरोप लगाया। इस बयान ने उन्हें एक बार फिर से सुर्खियों में ला दिया, लेकिन साथ ही उनकी आलोचना भी हुई। ब्राह्मण समाज के कुछ संगठनों ने उनके खिलाफ प्रदर्शन किया और धार्मिक ग्रंथों पर उनकी टिप्पणियों को आपत्तिजनक बताया। इससे यह भी साफ हुआ कि उनके बयानों को लेकर जनता में मिश्रित प्रतिक्रिया है।

स्वामी प्रसाद मौर्य की इस नई पहल में कौन-कौन से दल शामिल हैं, इसका विस्तृत ऐलान जल्द किया जाएगा। फिलहाल यह साफ हो चुका है कि वह चंद्रशेखर आजाद जैसे नेताओं के संपर्क में हैं और उन्हें भी लोक मोर्चा में शामिल करने की कोशिश हो रही है। अगर चंद्रशेखर जैसे चेहरे मौर्य के साथ आते हैं, तो दलित वोट बैंक में थोड़ी हलचल जरूर पैदा हो सकती है। लेकिन यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि यह मोर्चा सपा और बीजेपी के बीच में निर्णायक स्थिति में आएगा।यूपी की राजनीति का एक अहम पहलू यह है कि यहां चुनावी लड़ाई सिर्फ दो विकल्पों तक सीमित हो चुकी है बीजेपी को जिताना या बीजेपी को हराना। इस ध्रुवीकरण के बीच में कोई तीसरी ताकत तभी उभर सकती है जब वह कोई असाधारण या जनभावनाओं को छूने वाली लहर पैदा करे। फिलहाल लोक मोर्चा इस दिशा में कदम तो बढ़ा चुका है, लेकिन उसके पास न तो वह संसाधन हैं, न ही वह संगठन जो बीजेपी और सपा जैसी पार्टियों के पास मौजूद हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि पंचायत चुनावों में उनकी रणनीति कितना असर डालती है।

स्वामी प्रसाद मौर्य का यह सियासी प्रयोग एक नए दौर की शुरुआत हो सकता है, लेकिन इसके लिए उन्हें सिर्फ नारों से नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर बदलाव करके दिखाना होगा। छोटे-छोटे दलों के गठबंधन और सीमित क्षेत्रीय प्रभाव को यदि वे एक बड़े जनाधार में बदल पाते हैं, तो निश्चित ही यूपी की राजनीति में एक नई कहानी लिखी जा सकती है। लेकिन यदि यह प्रयास भी अन्य तीसरे मोर्चों की तरह सिर्फ घोषणाओं और रैलियों तक सिमट कर रह गया, तो इसका हश्र भी पहले जैसे गठबंधनों की तरह होगा, जो चुनाव बाद गुमनामी में खो जाते हैं।फिलहाल इतना तय है कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने सियासी मैदान में एक नई गोटी जरूर चला दी है। अब यह उनके नेतृत्व, रणनीति और जमीन पर पकड़ पर निर्भर करेगा कि वे इसे शतरंज का विजयी चाल बनाते हैं या फिर यह भी एक असफल प्रयोग बनकर रह जाएगा। उत्तर प्रदेश की जनता ने अब तक हमेशा वही विकल्प चुना है जो उसे स्थायित्व और शक्ति दे सके। क्या मौर्य का ‘लोक मोर्चा’ वह विकल्प बन पाएगा? जवाब 2027 के चुनावों में मिलेगा, लेकिन उसकी भूमिका की पटकथा अभी से लिखी जा रही है।

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