सीएम रेस में तेजस्वी सबसे आगे लेकिन गठबंधन में भरोसे की दरार!

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की राजनीति इन दिनों तेज हलचलों के दौर से गुजर रही है। अक्टूबर-नवंबर में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों से पहले सियासी पिच तैयार हो चुकी है और हर पार्टी अपने-अपने तरीके से बाज़ी मारने की तैयारी में जुट गई है। पिछले दो दशकों से सत्ता की धुरी बने नीतीश कुमार की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आ रही है, इसके बावजूद एनडीए गठबंधन पूरी मजबूती से उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने को तैयार है। वहीं दूसरी ओर, तेजस्वी यादव विपक्षी खेमे के सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में उभरकर सामने आए हैं। सर्वेक्षणों में उनकी लोकप्रियता बाकी सभी नेताओं से काफी आगे है, लेकिन हैरानी की बात ये है कि विपक्षी INDIA गठबंधन का एक बड़ा हिस्सा अब भी तेजस्वी को अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने में हिचकिचा रहा है।

हाल ही में आए सर्वेक्षण के मुताबिक, बिहार की जनता में तेजस्वी यादव की लोकप्रियता 36.9 प्रतिशत है, जो नीतीश कुमार से लगभग दोगुनी है। वहीं, प्रशांत किशोर को 16.4 फीसदी, चिराग पासवान को 10.6 फीसदी और सम्राट चौधरी को केवल 6.6 फीसदी समर्थन मिला है। लगातार तीन सर्वे में तेजस्वी ही बिहार की जनता की पहली पसंद बने हुए हैं। इससे यह तो साफ है कि अगर मुख्यमंत्री का चुनाव जनता के हाथ में होता, तो वे तेजस्वी यादव को ही ताज पहनाते। बावजूद इसके कांग्रेस और वामपंथी दलों की ओर से उनके नाम को लेकर असमंजस बना हुआ है। गठबंधन की कई बैठकें दिल्ली से लेकर पटना तक हो चुकी हैं, लेकिन अभी तक तेजस्वी के नाम पर अंतिम सहमति नहीं बन पाई है।

कांग्रेस और माले जैसे दलों की दुविधा यह है कि अगर तेजस्वी को मुख्यमंत्री चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा गया, तो यादव समुदाय को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों और सवर्णों का वोट महागठबंधन से दूर जा सकता है। यह तर्क उन्होंने तेजस्वी को भी स्पष्ट रूप से दिल्ली की बैठकों में बता दिया है। कांग्रेस का मानना है कि चुनाव पूर्व किसी एक चेहरे की घोषणा करना बिहार की सामाजिक संरचना को देखते हुए जोखिम भरा कदम हो सकता है। पार्टी का फॉर्मूला वही है जो उसने 2024 के लोकसभा चुनावों में अपनाया था किसी चेहरे की घोषणा के बिना चुनाव लड़ना, और चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के नेता को आगे बढ़ाना।

कांग्रेस और वामपंथी दल इस फार्मूले को विधानसभा चुनाव में भी आज़माना चाहते हैं। इसके लिए महागठबंधन के भीतर एक कोऑर्डिनेशन कमेटी बनाई गई है जिसकी जिम्मेदारी तेजस्वी यादव को सौंपी गई है। हालांकि, इस जिम्मेदारी के बावजूद तेजस्वी को गठबंधन का आधिकारिक चेहरा मानने को लेकर अभी भी सहमति नहीं बनी है। यह विरोधाभास ही महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी बन सकता है। तेजस्वी यादव ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि महागठबंधन में कोई भ्रम नहीं है, लेकिन असल में भ्रम ही सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है।

इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य में आम आदमी पार्टी ने एक अलग राह पकड़ी है। पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह बिहार में अकेले चुनाव लड़ेगी और महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी। इस फैसले का असर भले ही सीमित हो, लेकिन यह विपक्षी एकजुटता पर सवाल जरूर खड़ा करता है। वहीं दूसरी तरफ एनडीए खेमे में चिराग पासवान की भूमिका भी दिलचस्प होती जा रही है। हाल ही में उनके और तेजस्वी यादव के बीच हुई मुलाकात ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी थी। हालांकि इसे निजी मुलाकात बताया गया, लेकिन इसके राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं।

राजनीति में संदेश और रणनीति दोनों ही मायने रखते हैं। तेजस्वी यादव की लोकप्रियता कोई संयोग नहीं, बल्कि उन्होंने विपक्ष के नेता के रूप में लगातार अपनी मौजूदगी और मुखरता से यह छवि बनाई है। उन्होंने युवाओं, छात्रों, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर सीधे-सीधे सरकार को घेरा है। दूसरी ओर, नीतीश कुमार की सरकार पर अब ‘थकान’ के आरोप लगने लगे हैं और उनकी छवि अब पुराने जमाने के नेता की बन गई है। बीजेपी भी उनके नेतृत्व से पूरी तरह संतुष्ट नहीं दिख रही, लेकिन चुनावी गणित में उन्हें अलग करने की हिम्मत किसी दल में नहीं है।

तेजस्वी के सामने सबसे बड़ी चुनौती न तो नीतीश हैं, न चिराग, बल्कि उनके अपने गठबंधन के साथी हैं। कांग्रेस और माले जिस रणनीति पर चल रहे हैं, उसमें किसी भी समाज का वोट खिसकने से बचाना प्राथमिकता है। लेकिन राजनीति में कभी-कभी जोखिम भी उठाना पड़ता है। जनता अगर पहले से किसी एक चेहरे पर भरोसा जता रही है, तो उस पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार करना ज्यादा सहज होता है। बार-बार यह कहकर कि चुनाव के बाद नेता तय करेंगे, गठबंधन अपनी ही विश्वसनीयता को कम कर रहा है। बिहार की जनता अब स्पष्टता चाहती है कौन मुख्यमंत्री बनेगा, कौन सरकार चलाएगा।

आरजेडी इस स्थिति से परेशान है लेकिन अभी तक संयम बनाए हुए है। पार्टी ने तेजस्वी को चेहरा घोषित कर दिया है लेकिन सहयोगियों को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती। यही कारण है कि तेजस्वी फिलहाल वेट एंड वॉच की स्थिति में हैं। उन्हें भी यह अहसास है कि ज्यादा दबाव डालने से गठबंधन बिखर सकता है। लेकिन अगर समय रहते महागठबंधन के दल एकमत नहीं हुए, तो तेजस्वी की लोकप्रियता एक रणनीतिक भूल में बदल सकती है।

बिहार चुनाव इस बार केवल सत्ता परिवर्तन का चुनाव नहीं होगा, बल्कि यह यह भी तय करेगा कि क्या भारत में गठबंधन राजनीति बिना स्पष्ट नेतृत्व के सफल हो सकती है। अगर तेजस्वी यादव को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा गया और जीत मिली, तो यह भविष्य में विपक्षी राजनीति का एक नया रास्ता तय करेगा। लेकिन अगर मतभेदों की वजह से चेहरा सामने नहीं आया और गठबंधन कमजोर पड़ा, तो यह मौका एनडीए के हाथ लग सकता है। बिहार की जनता बदलाव के मूड में जरूर है, लेकिन वह बदलाव नेतृत्व के भरोसे के बिना नहीं करेगी। तेजस्वी को यदि वाकई मौका चाहिए तो केवल जनता का नहीं, अपने साथियों का भरोसा भी जीतना होगा।

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