तकनीकी ताकत की नई लड़ाई, चीन के ‘रेयर अर्थ’ वर्चस्व को तोड़ने की तैयारी भारत में

चीन ने रेयर अर्थ मिनरल्स पर चार दशक की रणनीति से वैश्विक वर्चस्व कायम किया है। अब भारत तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। डिजिटल युग की इस नई जंग में भारत का लक्ष्य है खनन से लेकर प्रोसेसिंग तक, पूरी वैल्यू चेन में अपनी मजबूत पकड़ बनाना।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

आज दुनिया जिस दिशा में दौड़ रही है, वहां ऊर्जा, तकनीक और डिजिटल क्रांति का ईंधन अब तेल नहीं, बल्कि “दुर्लभ पृथ्वी तत्व” यानी रेयर अर्थ मिनरल्स बन चुके हैं। ये 17 ऐसी विशेष धातुएं हैं, जिनसे मोबाइल से लेकर मिसाइल तक, और इलेक्ट्रिक कार से लेकर पवन चक्की तक सबकुछ बनता है। सवाल यह है कि जब ये धातुएं धरती के कई हिस्सों में पाई जाती हैं, तब भी इन पर चीन का लगभग पूरा कब्जा क्यों है? इसका जवाब सिर्फ खनन में नहीं, बल्कि दूरदर्शिता, रणनीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति में छिपा है।आज दुनिया में जितनी भी रेयर अर्थ धातुएं निकाली जाती हैं, उनमें से लगभग 70 प्रतिशत चीन से आती हैं। लेकिन असली ताकत सिर्फ निकालने में नहीं, बल्कि उन्हें प्रोसेस करने में है, और उस पर चीन का नियंत्रण 90 प्रतिशत से ज्यादा है। यानी खदान भले ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका या भारत में हो, लेकिन उसे उपयोग लायक बनाने का काम चीन ही करता है। यही कारण है कि इलेक्ट्रिक वाहनों से लेकर स्मार्टफोन उद्योग तक पूरी दुनिया कहीं न कहीं चीन पर निर्भर है। अमेरिका, जापान और भारत जैसे देश इस निर्भरता को कम करने की कोशिश में हैं, लेकिन चीन की बढ़त इतनी गहरी हो चुकी है कि अगले कुछ वर्षों तक उसका वर्चस्व कायम रहने की पूरी संभावना है।

चीन ने यह स्थिति रातोंरात हासिल नहीं की। यह उसकी लगभग चालीस साल लंबी रणनीति का नतीजा है। 1980 के दशक में जब दुनिया के कई देश इन धातुओं को लेकर गंभीर नहीं थे, तब चीन ने इन्हें भविष्य का “ऑयल” मान लिया था। डेंग शियाओपिंग ने एक बार कहा था अगर मध्य-पूर्व के पास तेल है, तो चीन के पास रेयर अर्थ हैं। इस एक लाइन ने चीन की नीति तय कर दी। उसने बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश किया, सस्ती मजदूरी और कम पर्यावरणीय नियमों का फायदा उठाकर खनन शुरू किया, और देखते ही देखते उसने पूरी दुनिया में इन धातुओं की सप्लाई सस्ती कीमतों पर कर दी। इसका असर यह हुआ कि अमेरिका और यूरोप में जो माइनें पहले चल रही थीं, वे महंगी होने के कारण बंद होने लगीं। चीन ने तब बाजार में बाढ़ ला दी, लेकिन जब बाकी देश इस कारोबार से बाहर हो गए, तो उसने धीरे-धीरे दाम बढ़ाने शुरू कर दिए।चीन ने केवल खनन पर नहीं, बल्कि तकनीक और प्रोसेसिंग पर भी ध्यान दिया। रेयर अर्थ धातुओं को कच्चे अयस्क से अलग करना बहुत कठिन और प्रदूषणकारी प्रक्रिया है। इस प्रोसेसिंग में जो तकनीकी कौशल और पर्यावरण नियंत्रण चाहिए, वह हर देश के बस की बात नहीं। चीन ने इसमें विशेषज्ञता हासिल की और अपनी औद्योगिक नीति के तहत इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक उद्योग का दर्जा दिया। आज स्थिति यह है कि अमेरिका के पास भले ही नेवादा की माउंटेन पास माइन है, लेकिन वहां निकले अयस्क को भी रिफाइनिंग के लिए चीन भेजना पड़ता है। यानी खनन अमेरिकी है, पर तकनीक और मूल्यवर्धन चीन के पास है।

इसी वजह से चीन अब इस सप्लाई चेन का मालिक बन गया है। उसने एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी कई माइनें खरीदी हैं ताकि कोई देश अगर वैकल्पिक स्रोत ढूंढे, तो भी उसका फायदा अंततः चीन को ही मिले। यह आर्थिक रणनीति नहीं, बल्कि राजनीतिक दबदबे का औजार भी बन चुकी है। हाल के वर्षों में जब अमेरिका ने चीन पर तकनीकी प्रतिबंध लगाए, तो चीन ने भी जवाब में इन दुर्लभ धातुओं के निर्यात पर रोक लगानी शुरू की। यह सीधा संदेश था कि अगर आप सेमीकंडक्टर या रक्षा उद्योग पर रोक लगाएंगे, तो हम आपको ‘कच्चे माल’ से ही रोक देंगे। यह ‘रेयर अर्थ डिप्लोमेसी’ अब चीन की नई ताकत बन गई है।इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित वे देश हैं, जो तेजी से तकनीकी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं जैसे भारत। भारत के पास भी इन धातुओं का अच्छा-खासा भंडार है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हमारे पास विश्व का पांचवां सबसे बड़ा रिजर्व है करीब सात मिलियन टन के आसपास। तमिलनाडु, केरल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और गुजरात के तटीय इलाकों में यह धातुएं पाई जाती हैं। लेकिन समस्या यह है कि खनन और प्रोसेसिंग दोनों ही क्षेत्र में हमारी क्षमता बहुत सीमित है। भारत अभी इन धातुओं का केवल एक प्रतिशत उत्पादन कर पाता है।

सरकार ने इस दिशा में ‘नेशनल क्रिटिकल मिनरल्स मिशन 2025’ शुरू किया है। इस मिशन के तहत करीब 34 हजार करोड़ रुपये का कोष रखा गया है ताकि नए भंडारों की खोज, खनन और प्रोसेसिंग सुविधाओं का विस्तार किया जा सके। भारत ने अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ ‘मिनरल सिक्योरिटी पार्टनरशिप’ में भी भागीदारी की है, जिसका उद्देश्य इन रणनीतिक खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला को सुरक्षित करना है। भारत अब ई-वेस्ट यानी पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से इन धातुओं को दोबारा निकालने की दिशा में भी शोध कर रहा है, क्योंकि इसमें भी रेयर अर्थ तत्व बड़ी मात्रा में मौजूद होते हैं।फिर भी चुनौतियां बहुत हैं। सबसे बड़ी समस्या है तकनीकी दक्षता और रिफाइनिंग क्षमता की कमी। रेयर अर्थ प्रोसेसिंग एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया है जिसमें सल्फ्यूरिक एसिड, अमोनियम बाइकार्बोनेट जैसी रसायन प्रयोग में आते हैं और इनके निपटान में पर्यावरणीय जोखिम रहता है। चीन ने इस खतरे को नजरअंदाज करके विकास किया, लेकिन भारत के लिए यह रास्ता आसान नहीं है। हमारे यहां पर्यावरणीय मंजूरियों और स्थानीय विरोध के कारण खनन प्रोजेक्टों में देरी होती है। साथ ही, निजी क्षेत्र की भागीदारी अभी शुरुआती चरण में है।

भारत के पास इस क्षेत्र में दो रास्ते हैं  या तो वह केवल खनिज निर्यात करने वाला देश बनकर रह जाए, या फिर पूरी वैल्यू चेन में हिस्सा लेकर अपनी तकनीकी संप्रभुता बढ़ाए। सरकार अब दूसरी दिशा में सोच रही है। हाल में भारत ने कुछ प्राइवेट कंपनियों को इस क्षेत्र में साझेदारी की अनुमति दी है। केरल और तमिलनाडु में कुछ नए प्लांट लगाए जा रहे हैं जहां प्रोसेसिंग और वैल्यू एडिशन होगा। लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे फलीभूत होने में कम से कम पांच से दस वर्ष लगेंगे।दुनिया भी चीन के वर्चस्व को चुनौती देने में जुटी है। अमेरिका अपनी बंद पड़ी माउंटेन पास माइन को फिर से सक्रिय कर चुका है। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा नई खदानें विकसित कर रहे हैं। यूरोपीय संघ महासागरों के तल से दुर्लभ धातुओं को निकालने की तकनीक पर शोध कर रहा है। जापान ने समुद्री तलछट से इन तत्वों की खोज शुरू की है। परंतु इन सभी कोशिशों के बावजूद चीन की तकनीकी और औद्योगिक बढ़त इतनी बड़ी है कि उसे पकड़ने में अभी वर्षों लगेंगे।

भविष्य की लड़ाई अब केवल खदानों की नहीं, बल्कि तकनीक और सप्लाई चेन की है। जिस देश के पास इन दोनों पर नियंत्रण होगा, वही डिजिटल युग में असली शक्ति रखेगा। चीन ने यह समझ बहुत पहले हासिल कर ली थी और उसी के दम पर वह आज विश्व की तकनीकी नसों पर हाथ रखे हुए है। भारत के पास समय अभी भी है, लेकिन हर साल की देरी हमारे लिए रणनीतिक जोखिम बढ़ा रही है।भारत को अब “खनिज आत्मनिर्भरता” को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ना होगा। जैसे हमने रक्षा और सेमीकंडक्टर क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत अभियान शुरू किया, वैसे ही रेयर अर्थ मिनरल्स में भी दीर्घकालिक निवेश, अनुसंधान और निजी भागीदारी बढ़ानी होगी। क्योंकि आने वाला युग ‘तेल पर नहीं’, बल्कि ‘रेयर अर्थ’ पर चलेगा। और जो देश इन धातुओं पर निर्भर रहेगा, उसकी आर्थिक और तकनीकी स्वतंत्रता हमेशा सीमित रहेगी।आज चीन के पास जो ताकत है, वह केवल उसके भंडार की वजह से नहीं, बल्कि उसकी दूरदर्शी नीति, लगातार निवेश और वैश्विक रणनीति की वजह से है। अगर भारत ने अब इसी दिशा में ठोस कदम बढ़ाए, तो आने वाले दशक में वह भी इस क्षेत्र में एक निर्णायक खिलाड़ी बन सकता है। पर अगर हम अभी भी कच्चा माल बेचने की मानसिकता में रह गए, तो तकनीकी युग में आत्मनिर्भरता का सपना अधूरा रह जाएगा। चीन ने यह दिखा दिया है कि आधुनिक दुनिया में असली ताकत बंदूकों या बमों से नहीं, बल्कि उन धातुओं से आती है जिनसे ये चीजें बनती हैं। अब भारत के सामने चुनौती है कि वह इस “दुर्लभ” अवसर को कितनी गंभीरता से पकड़ पाता है।

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