सपा की ‘वैचारिक सर्जरी’ तीन विधायकों का निष्कासन और 2027 की रणनीतिक नींव

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपने संगठन और विचारधारा को नए सिरे से संवारने की दिशा में एक बड़ा और स्पष्ट कदम उठाया है। पार्टी ने गोसाईगंज से विधायक अभय सिंह, गौरीगंज से राकेश प्रताप सिंह और ऊंचाहार से मनोज कुमार पांडेय को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह फैसला केवल अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं है, बल्कि सपा की उस वैचारिक राजनीति का ऐलान है जो आने वाले समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति को नया मोड़ देने जा रही है। यह निर्णय सपा की राजनीतिक रीति-नीति में एक निर्णायक बदलाव का प्रतीक है, जिसका असर सिर्फ पार्टी तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि प्रदेश की समूची राजनीति पर पड़ेगा।यह निष्कासन एक लंबी राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम है, जिसकी शुरुआत 2024 के राज्यसभा चुनावों में हुई जब सपा के सात विधायकों ने पार्टी के निर्देश के खिलाफ जाकर भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में क्रॉस वोटिंग की। इनमें से यही तीन विधायक सबसे अधिक मुखर रहे और उन्होंने न केवल पार्टी नेतृत्व की खुली आलोचना की, बल्कि भाजपा की नीतियों को भी कई बार समर्थन देने जैसा व्यवहार किया। यह बात सपा के लिए केवल राजनीतिक रणनीति की विफलता नहीं थी, बल्कि संगठनात्मक और वैचारिक चुनौती भी बन गई थी।

सपा नेतृत्व ने इन विधायकों को तत्काल निष्कासित करने के बजाय उन्हें ‘अनुग्रह-अवधि’ दी। यह अवधि इस उद्देश्य से दी गई थी कि यदि इन नेताओं में आत्मचिंतन की भावना आए और वे पार्टी की मूल विचारधारा की ओर लौटें, तो उन्हें पुनः संगठन में पूरी गरिमा के साथ स्थान दिया जा सके। लेकिन महीनों तक चले इस इंतजार और संवाद के बावजूद जब पार्टी नेतृत्व को यह यकीन हो गया कि इन नेताओं की राजनीतिक प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं और वे पार्टी की सामूहिक सोच के साथ नहीं चल सकते, तब यह फैसला लिया गया।सपा ने अपने आधिकारिक बयान में साफ कहा कि ये तीनों विधायक ‘विचारधारा विरोधी’, ‘साम्प्रदायिक ताकतों के सहयोगी’ और ‘पीडीए विरोधी एजेंडे’ को बढ़ावा देने में लगे हुए थे। पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वह सामाजिक आधार जिस पर अखिलेश यादव ने पार्टी की नई वैचारिक नींव रखी है। इस समीकरण के इर्द-गिर्द सपा अपनी सामाजिक न्याय की राजनीति को पुनर्परिभाषित कर रही है और यही अब पार्टी की रणनीतिक रीढ़ बन चुका है।

सपा की नई रणनीति यह स्पष्ट करती है कि पार्टी अब केवल सत्ता के लिए गठबंधन या समीकरण बनाने की राजनीति नहीं करेगी, बल्कि विचारधारा आधारित लामबंदी को प्राथमिकता देगी। यही कारण है कि पार्टी अब उन नेताओं को साथ लेकर नहीं चलेगी जो विचारधारा से समझौता कर ‘व्यक्तिगत राजनीतिक लाभ’ की दिशा में काम कर रहे हों। मनोज पांडेय जैसे वरिष्ठ नेता, जो पूर्व में मंत्री भी रह चुके हैं और जिन्हें अखिलेश यादव का करीबी माना जाता रहा है, को बाहर का रास्ता दिखाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पार्टी अब विचारधारा से कोई भी समझौता नहीं करेगी, चाहे वह कोई भी चेहरा क्यों न हो।इस फैसले की गूंज सिर्फ संगठन तक सीमित नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला 2027 विधानसभा चुनाव की रणनीति से सीधे जुड़ा है। भाजपा जिस प्रकार लगातार समाजवादी पार्टी के सामाजिक आधार में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है, उसके जवाब में सपा ने पीडीए के तहत एक स्पष्ट सामाजिक वर्ग को गोलबंद करने का प्रयास किया है। इन वर्गों में विश्वास बहाल रखने के लिए यह जरूरी था कि पार्टी के अंदर से उन तत्वों को बाहर किया जाए जो भाजपा के साथ नरमी दिखा रहे थे या पार्टी लाइन से भटक चुके थे।

गौर करने वाली बात यह भी है कि सपा ने बाकी चार विधायकों राकेश पांडेय, पूजा पाल, विनोद चतुर्वेदी और आशुतोष मौर्य पर फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं की है। पार्टी प्रवक्ता फखरुल हसन चांद ने साफ किया कि इन विधायकों ने ‘पीडीए के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर की है’ और उनका आचरण अपेक्षाकृत अनुशासित रहा है। लेकिन पार्टी ने यह चेतावनी भी दी है कि यदि भविष्य में उनके आचरण में कोई विचलन पाया गया तो वही कठोर कार्रवाई उनके विरुद्ध भी की जाएगी। इससे यह भी साफ होता है कि सपा किसी को भी स्थायी सुरक्षा कवच नहीं देने जा रही।भाजपा ने इस निर्णय पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह सपा की अंदरूनी फूट को छिपाने का प्रयास है। भाजपा नेताओं ने कहा कि पार्टी ने नेताओं को ‘राजनीतिक सुविधा’ के हिसाब से टारगेट किया और अपने भीतर के मतभेदों को वैचारिक बहस का नाम दे दिया। लेकिन सपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं के बीच यह फैसला एक मजबूत संगठन की दिशा में उठाया गया जरूरी कदम माना जा रहा है।

राजनीति में विचारधारा और अनुशासन दो अलग-अलग धारणाएं होती हैं, लेकिन जब कोई पार्टी इन्हें जोड़कर अपनी रणनीति बनाती है, तब वह केवल सत्ता नहीं, समाज में एक नैतिक स्थान भी अर्जित करती है। सपा ने इसी दिशा में कदम उठाया है। यह अब केवल सरकार में आने या विपक्ष में रहने की पार्टी नहीं रहना चाहती, बल्कि एक स्थायी सामाजिक विकल्प के रूप में खुद को स्थापित करना चाहती है। और यह तभी संभव होगा जब पार्टी के भीतर किसी तरह की द्वैधता नहीं होगी न व्यवहार में, न बयान में और न निष्ठा में। यह देखना दिलचस्प होगा कि निष्कासित विधायक अब कौन सा राजनीतिक रास्ता अपनाते हैं। क्या वे भाजपा में शामिल होते हैं या फिर कोई स्वतंत्र सियासी मंच बनाते हैं? लेकिन जो भी हो, सपा की इस कार्रवाई ने पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों और संभावित मतदाताओं को एक मजबूत संदेश दिया है कि यह पार्टी अब पहले जैसी नहीं रही। यह पार्टी अब संगठन और विचारधारा को लेकर स्पष्ट और दृढ़ है।

अंततः, इस पूरे घटनाक्रम से यही संदेश उभरता है कि समाजवादी पार्टी ने न सिर्फ तीन बागियों को बाहर किया है, बल्कि अपने भीतर की उस उथल-पुथल को शांत किया है जो पिछले कुछ वर्षों से पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा रही थी। यह सिर्फ एक संगठनात्मक निर्णय नहीं, बल्कि एक वैचारिक युद्ध की पहली लड़ाई थी और इस लड़ाई में सपा ने दिखा दिया कि वह अब समझौते की राजनीति छोड़, सिद्धांत की राजनीति को गले लगा रही है। यही सपा की 2027 की असली तैयारी है।

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