सावरकर सम्मान ठुकराकर थरूर ने कांग्रेस-बीजेपी दोनों को दिया साफ राजनीतिक संदेश

कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने वीर सावरकर इंटरनेशनल इम्पैक्ट अवॉर्ड 2025 को बिना सहमति और जानकारी के ठुकरा दिया। उनका यह निर्णय विचारधारा, पारदर्शिता और नैतिकता पर आधारित था। थरूर ने स्पष्ट किया कि राजनीति में सम्मान तभी मायने रखता है जब वह स्वीकृति, जानकारी और सिद्धांतों के अनुरूप हो। यह विवाद राजनीतिक और सामाजिक बहस को नया आयाम देता है।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

कांग्रेस सांसद शशि थरूर एक ऐसा नाम हैं जो राजनीतिक बयानबाज़ी, अपनी विशिष्ट भाषा‑शैली और बेबाक विचारों के कारण लगातार सुर्खियों में बने रहते हैं। कई बार उनके बयान पार्टी लाइन से मेल नहीं खाते, कई बार उनके रुख से कांग्रेस नेतृत्व असहज भी हो जाता है। लेकिन हालिया विवाद में थरूर ने ऐसा फैसला लिया जिसने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि वे राजनीतिक भीड़ में बहने वाले नेता नहीं हैं, बल्कि अपनी स्वतंत्र सोच और मर्यादा के साथ चलने वाले राजनेता हैं। यह फैसला है  वीर सावरकर इंटरनेशनल इम्पैक्ट अवॉर्ड 2025  को ठुकराने का। दिल्ली में आयोजित इस समारोह में उन्हें सम्मानित किया जाना था, लेकिन कार्यक्रम से ठीक पहले उन्होंने साफ घोषणा कर दी कि न तो उन्हें अवॉर्ड की कोई औपचारिक जानकारी दी गई और न ही उनकी सहमति ली गई। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि ऐसी अनिश्चित और असमझौते वाली परिस्थितियों में किसी सम्मान को स्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता। उनका बयान आते ही राजनीति में हलचल मच गई।

थरूर ने कहा कि अवॉर्ड के बारे में उन्हें सिर्फ मीडिया के जरिए जानकारी मिली। जब वे केरल में वोट डालने पहुंचे, तभी पत्रकारों ने उनसे प्रश्न किए और यह मामला सामने आया। उन्होंने वही बात सोशल मीडिया पर भी दोहराई बिना जानकारी और बिना सहमति का नामांकन गैर‑जिम्मेदाराना है। उन्होंने यहां तक कहा कि कार्यक्रम, पुरस्कार की प्रकृति और उसे देने वाले संगठन की पूरी जानकारी न होने की स्थिति में वह किसी भी सूरत में कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकते।यहां से विवाद ने नया मोड़ लिया। अवॉर्ड आयोजित करने वाली संस्था HRDS इंडिया के सचिव अजी कृष्णन ने थरूर के बयान को गलत बताया। उनका दावा था कि वे और अवॉर्ड जूरी के अध्यक्ष स्वयं तिरुवनंतपुरम स्थित थरूर के आवास गए थे और पूरे कार्यक्रम की जानकारी दी थी। उन्होंने यह भी कहा कि थरूर ने पुरस्कार पाने वाले अन्य लोगों की सूची भी मांगी थी और उन्हें वह सूची दे दी गई थी। संस्था का आरोप था कि थरूर राजनीतिक दबाव में पीछे हट गए।

इस आरोप‑प्रत्यारोप के बीच सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि थरूर ने इस विवाद में कहीं भी भावुकता या आक्रामकता नहीं दिखाई। उन्होंने किसी पर उंगली नहीं उठाई। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि यदि कोई संगठन किसी सांसद को सम्मानित करना चाहता है तो कम से कम इतना दायित्व तो निभाए कि उसे पहले से आधिकारिक रूप से सूचित कर दे। थरूर कांग्रेस में भी अलग तरह के नेता रहे हैं। वे न राहुल गांधी जैसे बेबाक हमलों के समर्थक हैं, न ही सोनिया गांधी की पारंपरिक राजनीतिक शैली में पूरी तरह ढले हुए। G‑23 समूह का हिस्सा रहने के कारण उन पर कई बार यह आरोप लगाया गया कि वे कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ खड़े हैं। उनका मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना सिर्फ नीतियों पर होनी चाहिए, व्यक्तिगत हमलों का कोई मतलब नहीं। पार्टी के भीतर इस सोच के समर्थक कम हैं, और यह बात उन्हें अक्सर निशाने पर भी ले आती है।

लेकिन सावरकर अवॉर्ड विवाद ने थरूर की राजनीतिक पहचान का एक और पहलू सामने रखा  विचारधारा पर स्पष्टता। कांग्रेस सावरकर को लेकर अपनी स्पष्ट मान्यता रखती है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेता खुले तौर पर यह कहते रहे हैं कि किसी भी कांग्रेस नेता को सावरकर के नाम पर कोई सम्मान स्वीकार नहीं करना चाहिए। जब विवाद बढ़ा तो केरल कांग्रेस के नेताओं ने भी यही कहा कि सावरकर के नाम से दिया गया कोई भी सम्मान कांग्रेस की विचारधारा के विपरीत है।कई विश्लेषकों का मानना है कि यदि थरूर से औपचारिक रूप से पूछा जाता, और उनका रुख स्पष्ट रूप से सामने आता, तो शायद वे स्वयं ही सहयोग ना देते। लेकिन नाम बिना सहमति घोषित कर देना, यह बात उन्हें सही नहीं लगी। यही कारण था कि उन्होंने कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार कर दिया।यह विवाद ऐसे समय आया है जब ऑपरेशन सिंदूर के बाद कई राजनीतिक पर्यवेक्षक यह कह रहे थे कि थरूर धीरे‑धीरे भाजपा की ओर झुक रहे हैं। विदेश नीति वाली समितियों में उनकी भूमिका और प्रधानमंत्री मोदी के प्रति उनके कुछ नरम स्वर भी चर्चा में रहे। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ राज्य भोज में उनका शामिल होना भी उसी बहस को और हवा देने वाला था। कांग्रेस यह सवाल उठा रही थी कि राहुल गांधी को आमंत्रित क्यों नहीं किया गया, लेकिन थरूर को बुलाया गया और वे शामिल भी हुए।

इसी क्रम में एक और रोचक बात केंद्र सरकार ने कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जाने वाले प्रतिनिधिमंडलों में थरूर को शुरुआती सूची में शामिल किया है। जबकि कांग्रेस द्वारा भेजे गए नेताओं के नाम बाद में जुड़ते हैं। इससे कांग्रेस के भीतर भी यह शक बढ़ जाता है कि थरूर का भाजपा नेतृत्व से कोई अप्रत्यक्ष समीकरण बन रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने केरल की सभा में यह तक कह दिया कि आज थरूर मेरे साथ मंच पर हैं, इसलिए कुछ लोगों की नींद उड़ जाएगी।लेकिन थरूर ने हर बार साफ किया है कि वे कहीं नहीं जा रहे। उन्होंने कहा कि राजनीति के अलावा भी उनके पास बहुत काम हैं और पार्टी छोड़ने की बात पूरी तरह गलत है। यह भी याद रखने वाली बात है कि 2009 से 2024 तक लगातार तिरुवनंतपुरम से जीतकर आना कोई छोटी बात नहीं। 2024 में उन्होंने केरल भाजपा के अध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर को हराया, जबकि प्रदेश में भाजपा लगातार बढ़त बना रही है।

वीर सावरकर अवॉर्ड को ठुकराना थरूर के लिए सिर्फ एक व्यक्तिगत फैसला नहीं था। यह एक संदेश भी था कि राजनीतिक मतभेद और वैचारिक दूरी को सम्मान का मुद्दा बनाना गलत है। वैसे भी, किसी भी पुरस्कार का अर्थ उसकी पृष्ठभूमि से तय होता है। यदि वह पृष्ठभूमि स्पष्ट न हो, या वह किसी ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व से जुड़ी हो जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर मतभेद हों, तो उसे स्वीकार करने से पहले सावधानी ज़रूरी है।थरूर के इस फैसले ने उनकी राजनीतिक शैली की सबसे बड़ी पहचान को फिर से रेखांकित किया स्पष्टता, मर्यादा और स्वतंत्र सोच। यह घटना बताती है कि वे नाम और सम्मान के लिए किसी भी कार्यक्रम में नहीं जाते, बल्कि अपनी शर्तों और विचारधारा पर कायम रहते हैं।

आज की राजनीति में जहां विवाद और बयानबाज़ी रोज़मर्रा की बात हो गई है, ऐसे में थरूर का यह निर्णय अलग खड़ा नजर आता है। उन्होंने किसी पर हमला नहीं किया, किसी को गलत नहीं ठहराया, सिर्फ इतना कहा कि बिना सहमति और बिना जानकारी उनका नाम शामिल करना उचित नहीं था।इस विवाद से एक बात और स्पष्ट हुई थरूर न तो भाजपा की ओर जाने के संकेत दे रहे हैं और न ही कांग्रेस से अलग कोई रास्ता खोज रहे हैं। वह अपने राजनीतिक जीवन में वही कर रहे हैं जो वे हमेशा से करते आए हैं अपनी शर्तों पर राजनीति ।अगर इस पूरे विवाद से कोई एक संदेश निकलता है, तो वह यह है कि सार्वजनिक जीवन में सम्मान तब ही स्वीकार्य हो सकता है जब वह आपकी जानकारी, आपकी सहमति और आपकी विचारधारा के अनुरूप हो। और शशि थरूर ने यही सिद्ध किया कि सम्मान की कीमत कभी‑कभी अस्वीकार में भी होती है।

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