शशि थरूर: नफरतें झेलता एक वफादार सिपाही, जिसे पार्टी पहचान नहीं पा रही

शशि थरूर भारतीय राजनीति की उन शख्सियतों में गिने जाते हैं जो अपनी बौद्धिक क्षमता, वैश्विक दृष्टिकोण और बेबाकी के लिए जाने जाते हैं। एक ऐसा नेता जिसे एक ओर जहां भाजपा सरकार अपने मंच पर आमंत्रित करती है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के भीतर ही उनके खिलाफ खामोश असहजता दिखाई देती है। यह विरोधाभास ही शशि थरूर की राजनीति की खूबी भी है और चुनौती भी। वे न तो पूरी तरह से पार्टी लाइन पर चलते हैं और न ही अपनी व्यक्तिगत पहचान को मिटाते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस के भीतर थरूर को लेकर लगातार भ्रम की स्थिति बनी रहती है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का गठन किया गया, जिसमें शशि थरूर को भी शामिल किया गया। इस प्रतिनिधिमंडल की सदस्यता को लेकर कांग्रेस के भीतर हलचल मच गई। केरल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रदेश अध्यक्ष रह चुके के. सुधाकरन ने इस बात पर आपत्ति जताई कि थरूर का नाम पार्टी की सिफारिश में नहीं था, लेकिन फिर भी वह प्रतिनिधिमंडल में कैसे चले गए। उन्होंने इस घटनाक्रम को शशि थरूर का अपमान करार दिया और यहां तक कह दिया कि पार्टी उन्हें बार-बार हाशिये पर डाल रही है, जबकि वे एक काबिल और वफादार नेता हैं। सुधाकरन ने यह भी स्पष्ट किया कि थरूर पार्टी छोड़ने नहीं जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने जो संकेत दिए हैं वह कांग्रेस नेतृत्व के लिए खतरे की घंटी हैं।शशि थरूर खुद भी एक मलयालम पॉडकास्ट में कह चुके हैं कि यदि पार्टी को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं है, तो उनके पास विकल्प खुले हैं। यह बयान हल्का नहीं था।
इसमें एक गंभीर राजनीतिक संकेत था, जिसे कांग्रेस ने शायद अभी तक गंभीरता से नहीं लिया है। थरूर ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर पार्टी उन्हें इस्तेमाल करना चाहती है, तो वह पूरी तरह उपलब्ध हैं, लेकिन अगर पार्टी की कोई रुचि नहीं है, तो वह खुद को बर्बाद नहीं करेंगे क्योंकि उनके पास करने के लिए बहुत कुछ है। यह बयान दरअसल कांग्रेस नेतृत्व को यह याद दिलाने जैसा था कि उन्हें हल्के में न लिया जाए। शशि थरूर का यह आत्मविश्वास सिर्फ उनके व्यक्तिगत कद से नहीं आता बल्कि यह उनके राजनीतिक ट्रैक रिकॉर्ड का भी नतीजा है। 2009 में जब उन्होंने पहली बार लोकसभा में कदम रखा, तब से लेकर आज तक वे लगातार तिरुवनंतपुरम से चुनाव जीतते आ रहे हैं। 2014 में जब कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी, तब भी उन्होंने सीट बचाई थी और 2024 में जब भाजपा ने उनके खिलाफ केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर जैसे मजबूत उम्मीदवार को उतारा, तब भी उन्होंने जीत दर्ज की।
शशि थरूर कांग्रेस के उस धड़े का चेहरा रहे हैं, जिसे जी-23 कहा जाता है। यह वो नेता थे जिन्होंने कांग्रेस में संगठनात्मक बदलाव और एक स्थायी अध्यक्ष की मांग की थी। इस ग्रुप को लेकर गांधी परिवार के वफादारों ने काफी विरोध किया, और नतीजा ये हुआ कि थरूर को एक विपक्षी आवाज़ के रूप में देखा जाने लगा। जब मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, तब थरूर ने भी नामांकन भरा था और लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव लड़ा था। चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने पार्टी से न कोई शिकायत की और न ही किसी तरह की विद्रोही राजनीति की, लेकिन जिस तरह से उन्हें लगातार साइडलाइन किया गया, उससे यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी के भीतर उन्हें लेकर दुविधा बनी हुई है।
हाल के दिनों में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका दौरे पर थे और वहां उनका भव्य स्वागत हुआ, तब थरूर ने उस यात्रा की सराहना की थी। उन्होंने कहा था कि एक भारतीय प्रधानमंत्री को दुनिया भर में इस तरह का सम्मान मिलना गर्व की बात है। कांग्रेस को यह बयान रास नहीं आया। उनके बयानों को पार्टी लाइन से भटकाव बताया गया और यहां तक कहा गया कि वे भाजपा की तारीफ कर रहे हैं। लेकिन थरूर ने स्पष्ट किया कि वे केवल राष्ट्रहित में बोल रहे हैं और किसी भी सरकार की अच्छी बात की सराहना करना गलत नहीं है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भाजपा सरकार की नीतियों की आलोचना की जाए, लेकिन किसी भी तरह के व्यक्तिगत हमले से बचा जाए। उनकी यह सलाह कांग्रेस के लिए बेहद जरूरी थी, लेकिन शायद पार्टी ने उसे सुना ही नहीं।
आज जब कांग्रेस की स्थिति यह है कि वह कई राज्यों में अपनी पकड़ खो चुकी है, और कई वरिष्ठ नेता जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, अनिल एंटनी आदि पार्टी छोड़कर जा चुके हैं, तब भी वह शशि थरूर जैसे नेताओं को लेकर दोराहे पर खड़ी दिखाई देती है। थरूर वही नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ते समय कहा था कि उन्हें कांग्रेस से दूर जा चुके वोटर को वापस लाने की जरूरत है। आज वही बात राहुल गांधी भी दोहरा रहे हैं और यहां तक कि माफी मांगने की बात भी कर रहे हैं। लेकिन अंतर यह है कि थरूर ने यह बात समय रहते कही थी, जब कांग्रेस इसे नजरअंदाज कर रही थी।
आज केरल में जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और प्रियंका गांधी वाड्रा वहां से सांसद बन चुकी हैं, वहीं थरूर का कद और बड़ा हो गया है। ऐसे समय में अगर कांग्रेस उन्हें साइडलाइन करती है, तो इसका राजनीतिक नुकसान पार्टी को ही होगा। कांग्रेस को यह समझना होगा कि थरूर जैसे नेता किसी एक राज्य के नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के प्रतिनिधि हैं। उनके पास अंतरराष्ट्रीय अनुभव है, संयुक्त राष्ट्र में काम करने का अनुभव है और भाषाई क्षमता से लेकर कूटनीति तक में निपुणता है। ऐसे नेता को सिर्फ इसलिए नकारना कि वह पार्टी लाइन से अलग राय रखते हैं, राजनीतिक अपरिपक्वता का संकेत है।
शशि थरूर के शब्दों में ही यह साफ है कि वह पार्टी छोड़ने की जल्दी में नहीं हैं, लेकिन पार्टी को यह तय करना होगा कि वह उनके साथ कैसे आगे बढ़ना चाहती है। राजनीति में विकल्प हमेशा खुले होते हैं और थरूर जैसे नेता के पास ये विकल्प ज्यादा मजबूत हो सकते हैं। अगर कांग्रेस ने समय रहते यह नहीं समझा, तो वह दिन दूर नहीं जब पार्टी को एक और बड़े नेता के जाने का अफसोस करना पड़ेगा। आज की कांग्रेस को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनमें सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह अपने अंदर के ही कद्दावर नेताओं को संभाल नहीं पा रही है। थरूर जैसे नेता की अनदेखी न सिर्फ पार्टी के लिए रणनीतिक नुकसान है, बल्कि यह उस वैचारिक संघर्ष का भी प्रतीक है जो आज कांग्रेस के भीतर चल रहा है। अगर पार्टी को इस संघर्ष से उबरना है, तो उसे थरूर जैसे नेताओं की ओर ध्यान देना ही होगा। वरना, इतिहास गवाह है कि कांग्रेस कई बार अपने ही लोगों को समझ नहीं पाई, और जब तक समझी, तब तक देर हो चुकी थी।