सपा में सुलगती बगावत आज़म परिवार की नाराज़गी और चंद्रशेखर ‘रावण’ की नई बिसात

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
समाजवादी पार्टी (सपा) की राजनीति में इन दिनों जितनी चर्चा अखिलेश यादव की अगुवाई की नहीं हो रही, उससे कहीं अधिक सुर्खियों में है आज़म खान का परिवार, खासकर उनकी पत्नी तंजीम फातिमा के वे दो बयान जिन्होंने पार्टी के आंतरिक संतुलन को झकझोर कर रख दिया है। एक ओर आज़म खान वर्षों की राजनीतिक निष्ठा और संघर्ष के बावजूद हाशिए पर डाल दिए गए हैं, वहीं दूसरी ओर चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ जैसे नए दलित नेता राजनीतिक खालीपन में अपने लिए अवसर तलाशते दिखाई दे रहे हैं। इस पूरी कथा में न सिर्फ सपा की रणनीतिक विफलता उजागर होती है, बल्कि यह भी साफ होता है कि 2027 की ओर बढ़ती राजनीति किस करवट ले सकती है।सबसे पहले बात करें तंजीम फातिमा के उस बयान की, जो उन्होंने सीतापुर जेल में बंद अपने पति आज़म खान से मुलाकात के बाद दिया“अब मुझे सपा नहीं, सिर्फ अल्लाह पर भरोसा है।” यह वक्तव्य केवल एक भावुक प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि वह राजनीतिक निराशा थी, जो आज़म खान के परिवार में सपा नेतृत्व के प्रति लंबे समय से पल रही थी। तंजीम का दूसरा बयान, जिसमें उन्होंने कहा कि “अब वक्त आ गया है कि हम अपने हितों की राजनीति करें”, साफ तौर पर यह संकेत देता है कि अब आज़म खान का परिवार सपा के साथ बंधे रहने के मूड में नहीं है।
यह नाराज़गी सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है। इसके पीछे टिकट बंटवारे से लेकर अदालती लड़ाई तक, कई ठोस कारण हैं। सपा के भीतर यह धारणा गहराई है कि जब आज़म खान पर मुकदमों की बाढ़ आई, जब उन्हें जेल में लंबा समय बिताना पड़ा, तब पार्टी नेतृत्व खासकर अखिलेश यादव ने दिखावे से अधिक कुछ नहीं किया। एक ओर आज़म खान जैसे वरिष्ठ नेता को अकेले संघर्ष करने दिया गया, वहीं दूसरी ओर उनके विरोधियों को बढ़ावा मिला।इस पूरे मामले में मुरादाबाद से पूर्व सांसद डॉ. एसटी हसन और वर्तमान सांसद रुचिवीरा के बीच हुई जुबानी जंग इस असंतोष का सार्वजनिक रूप है। एसटी हसन, जिन्हें माना जाता है कि आज़म की सिफारिश पर टिकट से वंचित होना पड़ा, उन्होंने तंजीम के बयानों को गैर-जिम्मेदाराना बताया। जवाब में रुचिवीरा ने दो टूक कहा कि “सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता, संकट में कौन साथ खड़ा था, यह जनता जानती है।” यह दरअसल सपा के मुस्लिम नेतृत्व के भीतर चल रही एक अदृश्य खींचतान का प्रकटीकरण है।
अब इस खींचतान का सबसे बड़ा लाभ किसे मिल रहा है? यहां आता है नाम चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण‘ का। दलितों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे चंद्रशेखर अब मुसलमानों के भीतर भी राजनीतिक गुंजाइश तलाश रहे हैं। उनकी नगीना से सांसद के रूप में जीत ने उन्हें राष्ट्रीय मान्यता दी है, और अब वह इसे एक समरस गठबंधन दलित-मुस्लिम-यादव (DMY) के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं।चंद्रशेखर ने जब आज़म खान से सीतापुर जेल में जाकर मुलाकात की, तो यह सिर्फ हमदर्दी नहीं थी। उसके पीछे एक ठोस राजनीतिक रणनीति थी। फिर वह हरदोई जेल में अब्दुल्ला आज़म से मिलने गए, और रामपुर जाकर तंजीम फातिमा व अदीब आज़म से भी चर्चा की। यह संपर्क एक गठबंधन की संभावित रूपरेखा को जन्म देता है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि आज़म खान परिवार आज़ाद समाज पार्टी में शामिल होता है, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरी तरह बदल सकती है।
यह बात आकड़ों से भी साबित होती है। उत्तर प्रदेश की 80 में से लगभग 47 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम, दलित और यादव वोटर्स की संयुक्त आबादी 50% से अधिक है। अभी तक यह समीकरण सपा के पक्ष में जाता था, लेकिन अगर चंद्रशेखर और आज़म खान जैसे नेता साथ आते हैं, तो यह समीकरण पलट सकता है। 2024 में सपा को जिन मुस्लिम इलाकों में झटका लगा, वहां भी आज़म खान के ठंडे रवैये ने वोटरों को भ्रमित किया। अगर 2027 तक यह असंतोष दूर नहीं हुआ, तो सपा के लिए यह एक और 2017 जैसा जनादेश बन सकता है लेकिन इस बार विपक्ष में एक नया गठबंधन खड़ा होगा। अब सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव इस चुनौती को पहचान पा रहे हैं? अब तक के संकेत यही बताते हैं कि पार्टी नेतृत्व ‘डैमेज कंट्रोल’ की मुद्रा में नहीं है। न तो तंजीम फातिमा के बयानों पर कोई औपचारिक सफाई दी गई, न ही आज़म खान से संवाद की कोई ठोस पहल हुई। पार्टी शायद यह मान रही है कि यह सब एक अस्थायी नाराज़गी है, लेकिन यह अनुमान बहुत महंगा पड़ सकता है।
राजनीति में प्रतीकात्मकता का बहुत महत्व होता है। जब आज़म खान ने वर्षों तक पार्टी के लिए ज़मीनी संघर्ष किया, मुस्लिम समुदाय को सपा से जोड़े रखा, तो वही नेता अगर खुद को अकेला महसूस करने लगे, तो यह केवल एक व्यक्ति की व्यथा नहीं, बल्कि एक समुदाय का मोहभंग हो सकता है।दूसरी ओर, चंद्रशेखर ‘रावण’ ने इस खालीपन को भांपते हुए न केवल संपर्क साधा, बल्कि सीधे-सीधे सपा पर निशाना भी साधा। उन्होंने तंज कसते हुए कहा, “मेरे सीतापुर जेल पहुंचने के बाद अखिलेश यादव को भी आज़म खान से मिलने आना पड़ा।” यह बयान बताता है कि वह अब खुद को मुस्लिम नेतृत्व के समानांतर पेश करने की तैयारी में हैं।स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता का आज़ाद समाज पार्टी में आना और अब यदि आज़म खान भी उससे जुड़ते हैं, तो यह गठबंधन केवल जातिगत नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की नई परिभाषा बन सकता है। यह मायावती के कमजोर हो चुके दलित आधार और सपा के खिसकते मुस्लिम समर्थन के बीच एक नई राजनीति का प्रारंभ होगा। तंजीम फातिमा के दो बयान मात्र कोई व्यक्तिगत दर्द नहीं हैं, बल्कि एक पूरी राजनीतिक धारा का संकेत हैं जो अब सपा से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है। चंद्रशेखर आज़ाद की ASP इस धारा को नया मंच देने की होड़ में है। यदि अखिलेश यादव इस संकेत को गंभीरता से नहीं लेते, तो 2027 का चुनाव सपा के लिए केवल सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि पहचान की जंग बन सकता है।