संघनिष्ठों की वापसी और संगठनात्मक संतुलन से भाजपा ने 2029 की बिसात बिछाई

भारतीय जनता पार्टी में संगठनात्मक बदलाव की पटकथा अब निर्णायक मोड़ पर है। मंगलवार को बीजेपी ने पांच राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, तेलंगाना, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में नए प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति कर यह स्पष्ट संकेत दे दिया है कि पार्टी अब पूरी तरह 2029 की सियासी जमीन तैयार करने में जुट गई है। वहीं मध्य प्रदेश में हेमंत विजय खंडेलवाल का निर्विरोध अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा है, जिससे यह अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं कि अब राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर भी नई नियुक्ति की प्रक्रिया अंतिम मोड़ पर पहुंच गई है। यह महज संगठनात्मक बदलाव नहीं, बल्कि राजनीतिक संतुलन, वैचारिक प्रतिबद्धता और जातीय समीकरणों के बारीक गणित का समुच्चय है, जो बताता है कि बीजेपी अपनी मूल ताकत यानी जमीनी कार्यकर्ता, संघ विचारधारा और सामाजिक संतुलन को फिर से केंद्र में ला रही है।

भाजपा की इन नियुक्तियों से सबसे स्पष्ट जो संदेश निकलता है, वह यह है कि पार्टी ने अब संगठन को फिर से सक्रिय करने, पुराने कार्यकर्ताओं को सम्मान देने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ सामंजस्य बनाए रखने की नीति को पूरी प्रतिबद्धता के साथ लागू करना शुरू कर दिया है। इन छह राज्यों में जिन चेहरों को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है, उनका एक समान सूत्र यह है कि वे सभी लंबे समय से पार्टी से जुड़े हुए हैं, अधिकांश का छात्र राजनीति का सफर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से शुरू हुआ है और वे संघ की विचारधारा के प्रति पूरी तरह निष्ठावान माने जाते हैं। यह संदेश बिल्कुल साफ है कि पार्टी अब उन चेहरों पर भरोसा कर रही है, जिन्होंने जमीन पर पसीना बहाया है, न कि उन पर जो अवसरवाद के चलते बीजेपी में शामिल हुए।

हिमाचल प्रदेश में राजीव बिंदल को तीसरी बार प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपना इस बात का प्रमाण है कि पार्टी पुराने और भरोसेमंद नेताओं को फिर से सक्रिय भूमिका में ला रही है। वैश्य समाज से आने वाले बिंदल संगठन के अनुभवी नेता हैं और उनका संघ से भी गहरा नाता रहा है। उनके साथ-साथ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर के राजपूत समाज से आने के चलते बीजेपी ने राज्य में सामाजिक संतुलन भी कायम रखा है। उत्तराखंड में भी यही रणनीति देखने को मिली। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ठाकुर समुदाय से हैं, तो प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए महेंद्र भट्ट ब्राह्मण समाज से आते हैं। भट्ट भी एबीवीपी से निकले हुए नेता हैं, जिनका संघ से लंबा जुड़ाव है और जो लगातार दूसरी बार प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए हैं।

तेलंगाना में जिस तरह एन. रामचंदर राव को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया, वह निर्णय पार्टी की संगठनात्मक प्राथमिकता को दर्शाता है। रामचंदर राव संघ पृष्ठभूमि से हैं, एबीवीपी से राजनीति की शुरुआत की, पेशे से वकील हैं और दिवंगत अरुण जेटली के करीबी रहे हैं। उनके नाम पर गोशामहल से विधायक टी. राजा सिंह ने नाराजगी जताते हुए पार्टी से इस्तीफा तक दे दिया, लेकिन पार्टी ने अपने निर्णय पर न तो पुनर्विचार किया और न ही दबाव में आई। यह इस बात का संकेत है कि भाजपा अब स्पष्ट दिशा में चल रही है संगठन सर्वोपरि है, न कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं। पार्टी नेतृत्व ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी एक नेता की नाराजगी के कारण अपनी रणनीति में फेरबदल नहीं करेगा, चाहे वह कितना ही लोकप्रिय क्यों न हो।

आंध्र प्रदेश में पीवीएन माधव को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने का निर्णय भी संघ और पार्टी के पुराने निष्ठावान कार्यकर्ताओं को महत्व देने की नीति का ही हिस्सा है। माधव के पिता पीवी चेलापति 1980 में संयुक्त आंध्र प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं और खुद माधव ने भारतीय जनता युवा मोर्चा से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी। वह पार्टी के कई संगठनात्मक पदों पर रह चुके हैं और उनका कार्यकाल अनुशासन और विचारधारा से जुड़ा रहा है। तेलंगाना और आंध्र दोनों राज्यों में ब्राह्मण और ओबीसी समाज के नेताओं को तरजीह देकर पार्टी ने सामाजिक समीकरण का भी पूरा ध्यान रखा है।

महाराष्ट्र में रवींद्र चव्हाण को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने से यह स्पष्ट हो गया है कि पार्टी मराठा–ब्राह्मण संतुलन बनाए रखना चाहती है। चव्हाण मराठा समुदाय से आते हैं, जबकि सरकार में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण समाज से हैं। इस नियुक्ति से राज्य में पार्टी का सामाजिक आधार व्यापक करने की कोशिश की गई है। इसी तरह मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री मोहन यादव ओबीसी वर्ग से आते हैं तो हेमंत विजय खंडेलवाल वैश्य समाज से हैं। खंडेलवाल का नामांकन दाखिल हो चुका है और उनका निर्विरोध चुना जाना तय है। यह नियुक्ति जातीय संतुलन के साथ-साथ संगठन की नब्ज को समझने वाले कार्यकर्ता को आगे लाने की नीति का हिस्सा है।

संघ की भूमिका इन नियुक्तियों में बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती है। भले ही कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई, लेकिन यह सभी जानते हैं कि इन नियुक्तियों में संघ की सहमति और मार्गदर्शन प्राप्त किया गया है। यह भी एक तथ्य है कि लोकसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता न मिलने के बाद संघ ने साफ संकेत दे दिए थे कि संगठनात्मक ढील अब बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इसलिए प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति में उस कसौटी को अपनाया गया है जो संघ और संगठन दोनों को संतुष्ट करती है। यही वजह है कि इन चेहरों का चुनाव ऐसा किया गया जो एक ओर संघ की विचारधारा से जुड़े हैं और दूसरी ओर जमीनी हकीकत से।

अब जब करीब आधे राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त हो चुके हैं, तो पार्टी के संविधान के अनुसार, राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव भी शीघ्र संभव है। माना जा रहा है कि जेपी नड्डा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद अब पार्टी एक ऐसा चेहरा तलाश रही है जो न केवल संगठन को मजबूती दे सके, बल्कि संघ के साथ भी संतुलन साध सके और आगामी विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों में पार्टी के लिए जीत की नई राह खोल सके। इस दौड़ में कई वरिष्ठ नेता जैसे शिवराज सिंह चौहान, भूपेंद्र यादव, एमएल खट्टर आदि के नाम चर्चा में हैं, लेकिन अंतिम निर्णय संगठन की बैठक और संघ की सहमति के बाद ही संभव होगा।

इन नियुक्तियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा अब अवसरवादी राजनीति से परहेज करती दिख रही है और उन लोगों को तरजीह दे रही है जिन्होंने पार्टी के लिए वर्षों मेहनत की है। यह कार्यकर्ताओं के लिए भी एक बड़ा संदेश है कि पार्टी उन्हें भूली नहीं है और समय आने पर उनका सम्मान करती है। यही पार्टी की सबसे बड़ी ताकत रही है कैडर आधारित राजनीति, विचारधारा की स्पष्टता और अनुशासित संगठन। इन तीनों तत्वों को मिलाकर भाजपा ने जो नई रणनीति बनाई है, वह आने वाले वर्षों की राजनीति को दिशा देगी।

भाजपा की यह चाल केवल संगठन के पुनर्गठन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भावी सियासी रण की गहराई से तैयारी है। विपक्ष जहां सत्ताविरोधी लहर और गठबंधन की राजनीति में उलझा है, वहीं भाजपा अपने संगठन, कार्यकर्ता और वैचारिक ढांचे को दुरुस्त करने में जुटी है। यही वजह है कि इन प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति महज नामों की फेरबदल नहीं, बल्कि एक सुविचारित रणनीति का हिस्सा है जो पार्टी को 2029 तक की राजनीति में निर्णायक भूमिका में बनाए रखने की योजना का संकेत है।

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