राष्ट्रवाद बनाम राजनीति मानसून सत्र में होगी सांसदों की असली अग्निपरीक्षा!

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
‘ऑपरेशन सिंदूर’ एक ऐसा नाम है, जिसने कुछ ही हफ्तों में हर भारतीय के दिल में एक खास जगह बना ली। आतंक के खिलाफ भारत की सीधी और साहसी कार्रवाई न सिर्फ सीमाओं पर एक सख्त संदेश थी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की गरिमा को भी एक नई ऊंचाई पर ले गई। लेकिन इस ऑपरेशन से जुड़ी एक और अनूठी पहल थी सभी दलों के सांसदों का वह प्रतिनिधिमंडल, जो विदेशों में भारत की बात रखने के लिए भेजा गया। ऐसा शायद पहली बार हुआ कि राजनीतिक मतभेदों को एक ओर रख कर, नेता भारत की छवि बचाने के लिए एक मंच पर दिखे।भारत के 33 सांसदों को विदेशों में भेजा गया। ये नेता अलग-अलग विचारधाराओं से आते हैं कोई कट्टर विरोधी तो कोई सरकार का पुराना सहयोगी। लेकिन इस दौरे में जो दिखा, वह किसी फिल्मी दृश्य से कम नहीं था। सबने एक सुर में भारत का पक्ष रखा। पाकिस्तान की नीतियों की आलोचना की गई, कश्मीर को भारत का अविभाज्य हिस्सा बताया गया और आतंक के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति को दोहराया गया। इन सांसदों की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए। लोगों ने तारीफ की कि देखो, भारत जब एक होता है तो कितना मजबूत नजर आता है।
लेकिन अब जब ये नेता वापस आ गए हैं, तो सवाल यह है कि क्या यह एकता संसद में भी नजर आएगी? या फिर वही पुरानी राजनीति लौट आएगी, जहां हर मुद्दा मतभेद का कारण बनता है?इन सवालों की गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब यह देखा जाता है कि संसद का मॉनसून सत्र नजदीक है। विपक्ष लगातार संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर रहा था ताकि ऑपरेशन सिंदूर, सीजफायर और पहलगाम हमले जैसे मुद्दों पर खुलकर बहस हो सके। लेकिन सरकार ने यह मांग खारिज कर दी है और सीधा मॉनसून सत्र शुरू करने का निर्णय लिया है।अब इस सत्र में क्या होगा, यह कई मायनों में महत्वपूर्ण होगा। विदेश में जो एकता दिखी थी, क्या वह संसद में भी दिखेगी? या राजनीतिक दल फिर से अपनी-अपनी लाइन पर लौट आएंगे? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि प्रतिनिधिमंडल में शामिल कई नेताओं ने विदेश में ऐसे बयान दिए जो अब संसद में सवाल बन सकते हैं। कुछ नेता पहले सरकार के आलोचक रहे हैं, लेकिन विदेश में उन्होंने सरकार की नीति का समर्थन किया। क्या अब वे संसद में जाकर उसी लाइन पर बने रहेंगे या अपनी पुरानी भूमिका में लौट आएंगे?
ऐसे ही कुछ नेताओं में वे चेहरे हैं जो अक्सर सरकार की आलोचना करते रहे हैं, लेकिन इस दौरे में पूरी तरह बदल गए नजर आए। उन्होंने विदेश में मीडिया से बातचीत की, विदेशी नेताओं से मुलाकात की और भारत के रुख को मजबूती से रखा। इन नेताओं के अनुभव अब देश की राजनीति में एक नई चुनौती बनकर सामने खड़े हैं। क्योंकि अब उनसे यह उम्मीद की जा रही है कि वे संसद में भी वही जिम्मेदार रवैया अपनाएं जो उन्होंने विदेशों में दिखाया।हालांकि सियासत का असली रंग तब नजर आता है जब संसद का दरवाजा खुलता है। एक ओर सत्ता पक्ष इस अभियान को अपनी बड़ी कूटनीतिक सफलता बताएगा, वहीं विपक्ष इसमें खामियां गिनाने लगेगा। सवाल पूछे जाएंगे हमले क्यों हुए, खुफिया तंत्र क्या कर रहा था, और सीजफायर की नीति के बावजूद इतनी बड़ी घटना कैसे हो गई?यहां से असली परीक्षा शुरू होगी। नेताओं पर अपने दलों का दबाव होगा। उन्हें पार्टी लाइन पर बोलने को कहा जाएगा। यहां तक कि संभव है व्हिप जारी कर दिया जाए जिसके तहत उन्हें पार्टी के निर्देशों का पालन करना ही होगा। और अगर कोई इससे हटेगा तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या विदेश में ‘भारत पहले’ कहने वाले नेता संसद में भी वही भावना कायम रख पाएंगे या फिर ‘दल पहले’ की राजनीति में लौट जाएंगे।
इसी के बीच देश में एक और बड़ी राजनीतिक घटना होने वाली है बिहार विधानसभा चुनाव। ये चुनाव न सिर्फ क्षेत्रीय महत्व रखते हैं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी गूंज होती है। ऐसे में हर पार्टी की कोशिश होगी कि वह संसद के मंच से ऐसे बयान दे, जिससे चुनावी लाभ उठाया जा सके। प्रतिनिधिमंडल में शामिल बिहार के सांसदों पर विशेष नजर रहेगी कि क्या वे चुनाव को ध्यान में रखते हुए अपना रुख बदलते हैं?एक बड़ा मुद्दा यह भी रहेगा कि विपक्ष को इस पूरे मामले में क्या मिलेगा? विदेश में जाकर भारत का पक्ष रखने के बावजूद, क्या विपक्ष को कोई राजनीतिक क्रेडिट मिलेगा? या फिर सत्ता पक्ष अपने मीडिया नेटवर्क और वक्ताओं के ज़रिये यह संदेश फैलाएगा कि यह सब सिर्फ सरकार की नीतियों की सफलता थी, विपक्ष की नहीं?कई बार यह भी देखा गया है कि विपक्ष जब सरकार के साथ खड़ा होता है, तब भी उसे कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। अगर विपक्ष सरकार का समर्थन करता है, तो उसे ‘दबाव में झुकने वाला’ कह दिया जाता है। और अगर सवाल पूछता है, तो उसे ‘राष्ट्रविरोधी’ करार दे दिया जाता है। ऐसे में विपक्ष के लिए ये दोधारी तलवार जैसी स्थिति है बोलें तो फंसे, चुप रहें तो गुमनाम।अब जब संसद का सत्र शुरू होगा, तो देश की नजरें उन नेताओं पर होंगी जिन्होंने विदेशों में भारत का पक्ष रखा। लोग देखना चाहेंगे कि क्या वे संसद में भी उतनी ही मजबूती से बात रखेंगे, या फिर अपने-अपने राजनीतिक खांचे में वापस लौट जाएंगे। जनता ने उन्हें जो समर्थन दिया, क्या वे उसका सम्मान कर पाएंगे? ‘ऑपरेशन सिंदूर’ ने एक उम्मीद जगाई है कि भारत की राजनीति में जब बात देश के हित की हो, तो दलगत सीमाएं टूट सकती हैं। अब यह उम्मीद संसद की दीवारों में कितनी गूंजती है, यही असली परीक्षा होगी।