कांग्रेस के बोझ को हल्का करने निकले राहुल, क्या बदल पाएंगे सियासी किस्मत?

अजय कुमार,लखनऊ
राहुल गांधी इन दिनों अपनी राजनीति में जिस तरह का बदलाव दिखा रहे हैं, वह न सिर्फ कांग्रेस पार्टी के भीतर एक नई सोच का संकेत देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वह अब अतीत की गलतियों की जिम्मेदारी लेने से पीछे नहीं हट रहे हैं। यह वही राहुल गांधी हैं, जो कभी 1984 के सिख दंगों और ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसे संवेदनशील मुद्दों पर टालमटोल करते दिखते थे, लेकिन अब उन्होंने खुले मंच से इन फैसलों को गलत ठहराकर जिम्मेदारी लेने का ऐलान किया है। अमेरिका की प्रतिष्ठित ब्राउन यूनिवर्सिटी में आयोजित कार्यक्रम के दौरान जब उनसे हिंदू राष्ट्रवाद के दौर में सभी समुदायों को साथ लेकर चलने वाली धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में सवाल पूछा गया, तो उन्होंने सिर्फ वर्तमान की बात नहीं की बल्कि अतीत की गलती स्वीकार करते हुए कहा कि 80 के दशक में जो कुछ हुआ, वह गलत था और वे इन गलतियों की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं। यह पहला मौका नहीं है जब राहुल गांधी ने कांग्रेस के ऐतिहासिक फैसलों पर सवाल उठाए हों। इससे पहले वे इमरजेंसी को भी गलत ठहरा चुके हैं और हाल ही में उन्होंने 90 के दशक की कांग्रेस सरकारों द्वारा दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज के साथ न्याय न कर पाने की बात भी स्वीकारी थी। इन बयानों से साफ जाहिर होता है कि राहुल गांधी अब अपनी पार्टी की पुरानी गलतियों पर पर्दा डालने के बजाय उन्हें स्वीकार कर उस राजनीतिक बोझ को हल्का करना चाहते हैं जो दशकों से कांग्रेस की छवि पर असर डालता रहा है।
राहुल गांधी के इस बदले हुए रुख का विश्लेषण करते समय यह देखना जरूरी है कि वे यह सब महज राजनीतिक मजबूरी में कर रहे हैं या सचमुच वे कांग्रेस पार्टी को एक नए सामाजिक अनुबंध की ओर ले जाने की कोशिश में हैं। ब्राउन यूनिवर्सिटी में उन्होंने भगवान राम के बारे में जिस तरह से अपने विचार रखे, वह भी कम विवादास्पद नहीं रहा। उन्होंने भगवान राम को करुणामय और क्षमाशील बताया और कहा कि वे उस हिंदू विचारधारा से सहमत नहीं हैं जिसे भारतीय जनता पार्टी प्रस्तुत करती है। उनके अनुसार असली हिंदू धर्म बहुलतावादी, सहिष्णु और प्रेममयी है। इस बयान के तुरंत बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन पर निशाना साधते हुए उन्हें ‘राम-द्रोही’ करार दिया और उन पर भगवान राम का अपमान करने का आरोप लगाया। बीजेपी नेताओं का कहना है कि राहुल गांधी कभी भगवान राम को पौराणिक पात्र बताते हैं तो कभी राम मंदिर के उद्घाटन को ‘नाच-गाना’ करार देते हैं, जिससे उनका दोहरा चरित्र उजागर होता है। इस पूरे प्रकरण में बीजेपी को राहुल गांधी पर हमला करने का सुनहरा अवसर मिला, और उन्होंने इसे पूरी तरह भुनाने की कोशिश भी की।
राहुल गांधी के भगवान राम को लेकर दिए गए बयान को लेकर कांग्रेस पार्टी के भीतर भी अलग-अलग स्वर सुनाई दिए हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने स्पष्ट किया कि कांग्रेस गांधी के राम की पूजा करती है, न कि बीजेपी के राम की। उन्होंने कहा कि बीजेपी ने राम को सीता और लक्ष्मण से अलग कर एक राजनीतिक प्रतीक में बदल दिया है, जबकि कांग्रेस के लिए भगवान राम करुणा, न्याय और सच्चाई के प्रतीक हैं। यह बयान भी बताता है कि कांग्रेस अब हिंदू प्रतीकों से पूरी तरह कन्नी काटने के बजाय उन्हें अपने तरीके से परिभाषित करने का प्रयास कर रही है। हालांकि, बीजेपी इस प्रयास को ‘चुनावी हिंदू’ राजनीति करार देती है और राहुल गांधी को पाखंडी हिंदू बताने से पीछे नहीं हटती। बीजेपी प्रवक्ताओं का मानना है कि राहुल गांधी वोट बैंक की राजनीति के तहत भगवान राम को लेकर अपना दृष्टिकोण बार-बार बदलते हैं और जनता को भ्रमित करते हैं।
इन आरोप-प्रत्यारोपों के बीच राहुल गांधी की रणनीति को समझना जरूरी है। दरअसल, कांग्रेस पार्टी लंबे समय से उस सामाजिक आधार को गंवा रही है, जिसने कभी उसे सत्ता की सीढ़ियों तक पहुंचाया था। दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और आदिवासी वर्गों में पार्टी की पकड़ धीरे-धीरे कमजोर होती गई और इन तबकों का रुख क्षेत्रीय दलों या बीजेपी की ओर होता गया। ऐसे में राहुल गांधी की यह कोशिश दिखती है कि वे इन वर्गों को फिर से कांग्रेस के साथ जोड़ें और इसके लिए वे पुरानी सरकारों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार हैं। यह रणनीति सिर्फ आत्मचिंतन नहीं बल्कि आत्म सुधार की दिशा में भी उठाया गया कदम माना जा सकता है। इस रणनीति के तहत ही कांग्रेस ने गैर-गांधी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को चुना, जिससे यह संकेत गया कि कांग्रेस अब सिर्फ एक परिवार की पार्टी नहीं रहना चाहती बल्कि वह समावेशी नेतृत्व की ओर बढ़ रही है।
जहां तक भगवान राम के प्रति राहुल गांधी की हालिया टिप्पणी का सवाल है, यह भी एक गहरी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। दरअसल, राम सिर्फ एक धार्मिक प्रतीक नहीं हैं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना में गहराई से बसे हुए हैं। कांग्रेस अगर इस चेतना से कटकर रहेगी तो उसका नुकसान तय है। शायद यही वजह है कि राहुल गांधी अब राम के प्रति अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर यह संदेश देना चाहते हैं कि वे भी भारतीय संस्कृति के मूल्यों में विश्वास रखते हैं, लेकिन उनका हिंदुत्व बीजेपी के कट्टर और एकांगी विचार से अलग है। यह एक संतुलन साधने की कोशिश है, जहां वे धार्मिक प्रतीकों का आदर करते हुए भी धर्मनिरपेक्षता की भावना को बनाए रखना चाहते हैं।
इस पूरे घटनाक्रम के पीछे एक चुनावी समीकरण भी छिपा है। आगामी चुनावों में बिहार जैसे राज्य जहां जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे गरम हैं, वहां राहुल गांधी की यह स्वीकारोक्ति और समावेशी रुख कांग्रेस को राजनीतिक लाभ दिला सकती है। खासकर मुस्लिम वोट बैंक पर असदुद्दीन ओवैसी और आरजेडी के प्रभाव को संतुलित करने के लिए राहुल गांधी की सक्रियता बढ़ी है। वे नहीं चाहते कि यह वोट बैंक पूरी तरह कांग्रेस के हाथ से निकल जाए। इसलिए वे हर मंच से यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस ही वह पार्टी है जो सभी वर्गों को साथ लेकर चल सकती है। उनका यह दावा कितना असर करेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन इतना जरूर तय है कि राहुल गांधी अब सिर्फ सवालों से बचने वाले नेता नहीं रह गए हैं, बल्कि वे जवाब देने और जिम्मेदारी लेने को भी तैयार हैं।
कुल मिलाकर राहुल गांधी का यह नया रूप राजनीतिक रूप से जोखिम भरा जरूर हो सकता है, लेकिन यह उन्हें एक परिपक्व नेता के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक गंभीर प्रयास भी है। वे अब पार्टी की विफलताओं को झुठलाने की बजाय उन्हें स्वीकार कर भविष्य की राह बनाना चाहते हैं। यह रवैया भारतीय राजनीति में दुर्लभ है, जहां नेता आमतौर पर अपनी या अपनी पार्टी की गलतियों को स्वीकारने से बचते हैं। राहुल गांधी के इन बयानों को सिर्फ राजनीतिक चाल के तौर पर देखने के बजाय एक व्यापक परिवर्तन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए, जिसमें वे अपनी पार्टी और अपनी छवि दोनों को एक नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ये प्रयास सफल होंगे या नहीं, इसका निर्णय जनता के हाथ में है, लेकिन इतना जरूर है कि राहुल गांधी अब अतीत के बोझ से बाहर निकल कर वर्तमान को बदलने और भविष्य को संवारने की राह पर बढ़ चुके हैं।