प्रशांत किशोर की मुस्लिम रणनीति और बिहार की बदलती सियासत

प्रशांत किशोर ने बिहार में मुस्लिम राजनीति में बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाया है। जन सुराज पार्टी के जरिए वे डर और परंपरा से परे, शिक्षा, हक और सम्मान पर वोटिंग की सोच फैला रहे हैं। सीमांचल और मुस्लिम बहुल इलाकों में उनका अभियान चर्चा और उम्मीद का नया संदेश दे रहा है।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की राजनीति इस समय एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है। जहां एक तरफ एनडीए और महागठबंधन के बीच पुरानी लड़ाई जारी है, वहीं दूसरी तरफ एक नया चेहरा धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है प्रशांत किशोर। कभी चुनावी रणनीतिकार रहे किशोर अब खुद रणनीति के मैदान में उतर चुके हैं और उन्होंने अपनी जन सुराज पार्टी को लोगों के बीच उम्मीद के नए प्रतीक के तौर पर पेश करने की कोशिश की है। लेकिन उनकी असली परीक्षा इस बार सीमांचल और मुस्लिम बहुल इलाकों में है, जहां से वे राजनीतिक परिवर्तन की शुरुआत करना चाहते हैं।प्रशांत किशोर की मुस्लिम रणनीति पिछले कुछ महीनों में साफ रूप ले चुकी है। वे खुले तौर पर कह चुके हैं कि बिहार विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के हिसाब से होना चाहिए। वे अक्सर कहते हैं कि बिहार की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग सत्रह फीसदी है, इसलिए विधानसभा में भी उनकी मौजूदगी तीस-चालीस सीटों तक होनी चाहिए। यह बयान सिर्फ गणित नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश है  मुसलमानों को यह एहसास दिलाना कि जन सुराज उनकी हिस्सेदारी को पहचानता है।

किशोर के भाषणों का एक खास अंदाज़ है। वे प्रश्न पूछते हैं, जवाब नहीं थोपते। जैसे, “आपको अल्लाह के अलावा किसी से डरने की जरूरत क्यों पड़ती है?” या “जिस कौम की किताब की शुरुआत ‘इक़रा’ यानी पढ़ो से होती है, वो अपने बच्चों की पढ़ाई की परवाह क्यों नहीं करती?” यह तरीका उन्हें बाक़ी नेताओं से अलग बनाता है। वे धार्मिक संदर्भों का इस्तेमाल किसी डर या भावनात्मक उकसावे के लिए नहीं, बल्कि आत्म-जागरूकता के लिए करते हैं। सीमांचल के उनके कार्यक्रमों में वे बार-बार यह दोहराते हैं कि मुसलमानों को डर की राजनीति से बाहर निकलकर अपनी ताकत खुद बननी चाहिए।कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज और गया जैसे इलाकों में जब वे कहते हैं, “भाजपा से नहीं, अल्लाह से डरिए और अपने बच्चों की चिंता कीजिए,” तो यह महज नारा नहीं लगता। बिहार के मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा पिछले तीन दशकों से लालू-तेजस्वी की राजनीति के साथ खड़ा रहा है। इसका कारण विचारधारा से ज्यादा सुरक्षा की भावना रही है। मुसलमानों ने अक्सर इस डर से वोट दिया कि अगर उन्होंने वोट नहीं दिया तो भाजपा सत्ता में आ जाएगी। प्रशांत किशोर इसी डर को चुनौती देते हैं। उनका कहना है कि जो समुदाय केवल डर के आधार पर वोट देगा, वह कभी अपनी राजनीतिक ताकत नहीं बना पाएगा।

वे लालू-तेजस्वी पर सीधे निशाना साधते हैं। उनका बयान  “लालटेन में किरासन तेल बनकर जलते रहेंगे, तो लालू जी के घर रोशनी होगी, लेकिन आपके बच्चों का भविष्य अंधेरे में रहेगा”  दरअसल इस परंपरागत वोट बैंक पर तीखा हमला है। किशोर की कोशिश है कि मुसलमानों को यह एहसास कराया जाए कि महज भाजपा-विरोध से विकास नहीं आता। अगर वे अपने बच्चों के भविष्य की बात करेंगे, तो शिक्षा, रोज़गार और सम्मान की राजनीति अपने आप मजबूत होगी। यही वजह है कि जन सुराज की मुहिम का मुख्य फोकस शिक्षा पर है।किशोर यह जानते हैं कि बिहार में मुस्लिम राजनीति कई परतों में बंटी है। सीमांचल के मुसलमानों के मुद्दे अलग हैं, मगध के अलग, और उत्तर बिहार के अलग। सीमांचल में गरीबी, अशिक्षा और पलायन की समस्या सबसे गंभीर है। यहां पर पिछले चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने पांच सीटें जीती थीं, लेकिन बाद में वह लहर ठंडी पड़ गई। 2021 के बंगाल चुनाव में भी ओवैसी का असर नहीं दिखा। इसके उलट, उसी चुनाव में प्रशांत किशोर ने ममता बनर्जी के लिए रणनीति तैयार की थी, जिसमें मुस्लिम वोट एकजुट रहा और भाजपा को रोकने में बड़ी भूमिका निभाई। इस अनुभव का इस्तेमाल वे अब बिहार में कर रहे हैं।

जन सुराज की मुस्लिम रणनीति दो स्तरों पर काम कर रही है। पहला, संगठनात्मक जहां मुस्लिम बहुल इलाकों में स्थानीय स्तर पर नए चेहरों को सामने लाया जा रहा है। दूसरा, भावनात्मक  जहां मुसलमानों को यह बताया जा रहा है कि वे अब दूसरों के डर से नहीं, बल्कि अपने हक की लड़ाई के लिए वोट दें। किशोर का यह भी कहना है कि जो लोग अपने समुदाय से नेता नहीं चुनते, वे दूसरों के रहमो-करम पर रहते हैं। उनके भाषणों में यह आत्म-आलोचना साफ दिखाई देती है कि “बाहर वालों से ज्यादा मुसलमान खुद अपनी बदहाली के जिम्मेदार हैं, क्योंकि वे अपने लोगों में से नेता नहीं चुनते। फिर भी चुनौती बहुत बड़ी है। बिहार में मुस्लिम वोटिंग पैटर्न काफी स्थायी माना जाता है। 1990 के दशक से अब तक आरजेडी और कांग्रेस को मिलकर मुस्लिम वोट का लगभग साठ से सत्तर प्रतिशत हिस्सा मिला है। मुसलमान अब भी उसी दल को वोट देते हैं जो भाजपा को हराने में सक्षम लगे। अगर जन सुराज को ये भरोसा नहीं मिलेगा कि वह भाजपा को रोक सकती है, तो मुसलमानों का वोट पूरी तरह इधर नहीं आएगा। यही कारण है कि राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पीके को पहले अपनी “जीत की संभावना” मजबूत करनी होगी, तभी मुस्लिम भरोसा बनेगा।

मुस्लिम समाज में एक तबका यह मानता है कि प्रशांत किशोर भले ही नयी बात कर रहे हों, पर उनके पास अभी जमीनी ताकत नहीं है। वहीं, युवाओं और शिक्षित वर्ग का एक हिस्सा उन्हें गंभीरता से सुनने लगा है। किशोर की शिक्षा-केंद्रित बातें इस वर्ग को आकर्षित कर रही हैं। वे यह कहकर युवाओं को जोड़ते हैं कि “अगर तेजस्वी यादव नौवीं फेल हैं और वे आपके बच्चों का भविष्य तय करेंगे, तो सोचिए क्या होगा?” यह बयान भले व्यक्तिगत लगे, पर इसका असर उस तबके पर है जो पढ़ाई-लिखाई को आगे बढ़ने की कुंजी मानता है। आने वाले चुनावों में सीमांचल की लगभग 30 सीटें निर्णायक होंगी। अगर जन सुराज इनमें से कुछ सीटों पर अच्छा प्रदर्शन कर लेती है, तो यह बिहार की राजनीति में नया संतुलन बना सकता है। हालांकि अभी तक पार्टी का ढांचा कमजोर है, लेकिन प्रशांत किशोर की यह कोशिश सफल रही है कि वे चर्चा में बने रहें। मुस्लिम वोटर अब यह सोचने लगे हैं कि क्या उन्हें हमेशा किसी बड़े गठबंधन की बैसाखी पर रहना चाहिए या अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनानी चाहिए।

मुसलमानों के भीतर यह मंथन ही प्रशांत किशोर की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उन्होंने कम से कम इतना तो कर ही दिया है कि अब लोग खुले तौर पर यह चर्चा कर रहे हैं कि डर की राजनीति कब तक चलेगी। पर विश्वास अभी दूर है। जब तक जन सुराज के उम्मीदवार जीतने लायक ताकत नहीं दिखाते, तब तक मुस्लिम वोट का बड़ा हिस्सा पुरानी पार्टियों के साथ रहेगा।बिहार की राजनीति में यह बदलाव धीमा जरूर है, लेकिन शुरू हो चुका है। अगर आने वाले चुनावों में जन सुराज दो-चार मुस्लिम बहुल सीटें भी जीत लेती है या दूसरे नंबर पर रहती है, तो यह संदेश जाएगा कि मुसलमानों के बीच विकल्प बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। प्रशांत किशोर का यह प्रयोग सफल हो या असफल, पर उन्होंने यह बहस ज़रूर छेड़ दी है कि मुसलमानों को सिर्फ डर के आधार पर नहीं, बल्कि हक, शिक्षा और आत्मसम्मान के आधार पर वोट देना चाहिए।बिहार की मिट्टी में राजनीति हमेशा भावनाओं से चलती रही है। प्रशांत किशोर इस भावनात्मक जमीन को तर्क और शिक्षा की बात से बदलना चाहते हैं। यह आसान नहीं है, लेकिन शायद यही उनकी असली राजनीति है। उन्होंने कहा है “जब तक आप अपनी आवाज को ताकत नहीं देंगे, तब तक आपका प्रतिनिधित्व नहीं होगा।” अब देखना यही है कि मुस्लिम समाज उनकी इस आवाज को सुनता है या फिर एक बार फिर डर और परंपरा के रास्ते पर लौट जाता है।

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