SIR के बहाने वोट बैंक की सियासत, बिहार की सड़कों पर फिर CAA जैसी आहट

अजय कुमार वरिष्ठ पत्रकार

बिहार में शुरू हुई मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया अब एक बड़े राजनीतिक विवाद में बदल चुकी है। चुनाव आयोग ने इसे “विशेष गहन पुनरीक्षण” करार दिया है, लेकिन विपक्ष ने इसे सीधा-सीधा लोकतंत्र पर हमला बताया है। पूरे राज्य में विपक्षी दलों की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि इस प्रक्रिया के बहाने गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के करोड़ों लोगों को मतदान के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर सत्तारूढ़ गठबंधन का तर्क है कि यह केवल मतदाता सूची को शुद्ध करने की एक कानूनी और नियमित कवायद है, जिसे अब सियासत का रंग दे दिया गया है सियासत इस कदर गर्माई है कि विपक्षी महागठबंधन ने 9 जुलाई को बिहार बंद का एलान कर दिया है। दावा किया जा रहा है कि करीब तीन करोड़ ऐसे मतदाता हैं जिनके पास वह दस्तावेज नहीं हैं, जो चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में नाम बनाए रखने के लिए जरूरी बताए हैं। यही नहीं, बिहार से बाहर काम करने वाले लाखों प्रवासी मजदूर भी इस प्रक्रिया की चपेट में आ सकते हैं, जिनका नाम या तो मतदाता सूची से कट सकता है या फिर उन्हें अपने मतदाता पहचान पत्र को स्थानांतरित कराना पड़ेगा।

इस बार आयोग ने 2003 के बाद मतदाता बने सभी व्यक्तियों से यह अपेक्षा की है कि वे जन्म प्रमाण पत्र, शैक्षणिक प्रमाण पत्र, जाति या निवास प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज पेश करें। वहीं विपक्ष का आरोप है कि बिहार जैसे राज्य में, जहां बड़ी संख्या में लोग दस्तावेजविहीन हैं, उनके लिए इस तरह के प्रमाण जुटाना आसान नहीं है। परिणामस्वरूप, यह पूरा अभियान एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने की रणनीति में बदल गया है। आरोप ये भी हैं कि पिछली बार जब 2003 में यह प्रक्रिया हुई थी, तब इतने कठोर दस्तावेज नहीं मांगे गए थे।दिलचस्प बात यह है कि इस मुद्दे पर न सिर्फ महागठबंधन मुखर है, बल्कि एनडीए खेमे के अंदर से भी आवाजें उठने लगी हैं। गठबंधन के कुछ सहयोगी दलों ने चुनाव आयोग के इस कदम को अव्यवहारिक बताया है और कहा है कि इससे वास्तविक मतदाता परेशान हो सकते हैं। राज्य में बड़ी संख्या में ऐसे वोटर हैं जो दूसरे राज्यों में नौकरी या मजदूरी करते हैं, ऐसे में यदि उनका नाम बिहार की मतदाता सूची से कटता है तो इसका सीधा असर चुनावी समीकरणों पर पड़ सकता है।

चुनाव आयोग का तर्क है कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से कानूनी है और इसका उद्देश्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि मतदाता सूची में केवल वास्तविक और जीवित मतदाताओं के ही नाम हों। आयोग का यह भी कहना है कि इसके तहत घर-घर जाकर बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) द्वारा फॉर्म बांटे जा रहे हैं, और जिन मतदाताओं के पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं, उन्हें समय और सहायता दी जा रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि जमीनी स्तर पर इस अभियान को लेकर भारी भ्रम है, और बड़ी संख्या में लोग यह नहीं समझ पा रहे कि उन्हें क्या करना है, कैसे करना है और कब तक करना है।राजनीतिक दलों ने इस पूरे अभियान को लेकर दो स्पष्ट धड़े बना लिए हैं। एक तरफ वे दल हैं जो इसे लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला बता रहे हैं, तो दूसरी ओर वे हैं जो इसे वोटर लिस्ट की शुद्धता का अभियान कह रहे हैं। लेकिन दोनों ही पक्ष इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि यदि बड़ी संख्या में मतदाता इस प्रक्रिया में फंसे या छूट गए, तो इसका असर सीधे तौर पर आगामी विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। यही कारण है कि सत्ताधारी दल भी अंदरखाने इस प्रक्रिया को लेकर सतर्क हैं और अपने स्तर पर यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं कि उनका वोट बैंक प्रभावित न हो।

विपक्ष की कोशिश है कि इस पूरे मसले को एक भावनात्मक मुद्दा बना दिया जाए। ठीक उसी तरह जैसे नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और एनआरसी के समय हुआ था। उस समय भी देशभर में यह प्रचार किया गया कि लाखों-करोड़ों लोगों की नागरिकता खत्म हो जाएगी, जबकि आज तक एक भी व्यक्ति की नागरिकता नहीं गई। अब वही फॉर्मूला फिर से दोहराया जा रहा है डर पैदा करो, भावनाएं भड़काओ और वोट बैंक को संगठित करो।इस बीच यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि यह मतदाता सूची पुनरीक्षण वास्तव में नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (NPR) की ओर पहला कदम है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार गुपचुप तरीके से एनआरसी जैसे कदमों की ओर बढ़ रही है और इसका पहला प्रयोग बिहार में किया जा रहा है। जवाब में सत्ता पक्ष ने इसे पूरी तरह से अफवाह बताया है और कहा है कि यह केवल विपक्ष की एक सोची-समझी रणनीति है ताकि समाज में भ्रम और असंतोष पैदा किया जा सके।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर कोई मतदाता अपने निवास स्थान से बाहर किसी अन्य राज्य में काम कर रहा है और वहीं उसका वोटर कार्ड बना हुआ है, तो अब वह अपने मूल गांव या कस्बे में वोट नहीं डाल पाएगा। चुनाव आयोग की इस नीति के चलते बिहार के लाखों प्रवासी मतदाता जो दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में काम कर रहे हैं, उनका वोट कट सकता है। जानकारों का मानना है कि ऐसे मतदाताओं का झुकाव आमतौर पर भाजपा और जेडीयू की ओर ज्यादा होता है, ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इस प्रक्रिया का असर सत्ताधारी दलों पर भी उतना ही पड़ेगा जितना कि विपक्ष पर।फिलहाल चुनाव आयोग का कहना है कि 1 अगस्त को ड्राफ्ट मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी और इसके बाद 1 से 30 सितंबर तक आपत्तियां और सुधार स्वीकार किए जाएंगे। अंतिम सूची 30 सितंबर को जारी की जाएगी। लेकिन जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक सियासत इस मुद्दे पर गरमाती रहेगी।बिहार की सियासत में यह मुद्दा अब एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया से कहीं आगे बढ़ चुका है। यह मुद्दा अब जाति, वर्ग और धर्म के समीकरणों को प्रभावित कर रहा है। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या यह कवायद वास्तव में लोकतंत्र को मजबूत करने की है या फिर यह एक बड़े वोटबैंक को सियासी कारणों से हाशिए पर डालने की चाल है? जनता इसका जवाब आने वाले चुनाव में देगी। अभी के लिए इतना तय है कि यह मामला थमेगा नहीं, बल्कि आने वाले दिनों में और ज्यादा राजनीतिक भूचाल लाएगा।

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