शुभकामनाओं के बहाने सियासी समीकरण की जुगलबंदी, अखिलेश बने विपक्षी धुरी के केंद्र

1 जुलाई को समाजवादी पार्टी के मुखिया और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का 52वां जन्मदिन भले ही पारंपरिक तरीके से मनाया गया हो, लेकिन इस बार इस अवसर पर जो कुछ दिखा, वह केवल शुभकामनाओं तक सीमित नहीं रहा। इस दिन राजनीति के उन संकेतों की झलक मिली, जो आने वाले वक्त में प्रदेश की सत्ता के समीकरण बदलने का इशारा कर रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और बीएसपी प्रमुख मायावती की बधाइयों में छिपे संदेशों ने स्पष्ट कर दिया कि प्रदेश की राजनीति अब सीधे आमने-सामने की लड़ाई से आगे बढ़कर ‘सियासी मनोवैज्ञानिक रणनीति’ के दौर में प्रवेश कर चुकी है।सबसे पहले बात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बधाई की। सुबह-सुबह जब सीएम योगी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर अखिलेश यादव को जन्मदिन की बधाई दी, तो यह एक सामान्य शिष्टाचार की तरह लगा। लेकिन अखिलेश यादव का तुरंत और संयमित जवाब “आपकी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद” ने इस घटनाक्रम को सिर्फ औपचारिकता के दायरे में नहीं रहने दिया। यह संवाद उन दो नेताओं के बीच हुआ जो अब तक सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे को तीखा प्रतिद्वंद्वी मानते रहे हैं। 2017 से लेकर 2022 तक का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि भाजपा और सपा के बीच कितनी तल्खी रही है। ऐसे में यह नरमी किसी राजनीतिक ‘री-ऑब्जेक्टिव’ का हिस्सा लगती है।

क्या योगी और अखिलेश एक-दूसरे को अब शत्रु से प्रतिद्वंद्वी मानने लगे हैं? यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि भाजपा अब उत्तर प्रदेश में विपक्ष को पूरी तरह खारिज करने की रणनीति के बजाय, उसे नियंत्रित करने वाली रणनीति अपनाती दिख रही है। यह रणनीति नरेंद्र मोदी के 2024 के बाद के सियासी चरण की तरह है, जहां विपक्ष को सम्मान तो दिया जा रहा है, लेकिन उस पर ‘स्पेस’ नहीं छोड़ा जा रहा।इसी क्रम में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की बधाई और उसमें प्रयुक्त धार्मिक संदर्भ भी कम दिलचस्प नहीं। श्रीराम, श्रीकृष्ण और महादेव का उल्लेख करते हुए अखिलेश के लिए दीर्घायु की कामना क्या यह उस भाजपा की रणनीति का हिस्सा नहीं जिसमें विपक्ष के नेताओं को धार्मिक प्रतीकों से जोड़कर उन्हें ‘सेक्युलर बनाम धार्मिक’ की छवि से बाहर निकाला जाए? यह ठीक वैसी ही भाषा है जैसी प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष के ‘हिंदू विरोधी’ होने के दावे के प्रतिउत्तर में खुद को ‘सबका साथ’ कहकर सामने लाते हैं।

भाजपा नेता बृजभूषण शरण सिंह का यह बयान भी गौरतलब है कि “अखिलेश यादव कृष्णवंशी हैं और वे धर्मविरोधी नहीं हो सकते।” क्या यह बयान सिर्फ जन्मदिन की बधाई है या एक संदेश कि भाजपा अब सपा को धर्मविरोधी के खांचे से निकालकर, एक सीमित धार्मिक स्वीकृति देना चाहती है ताकि वह भविष्य में अधिक विभाजक न दिखे? भाजपा की यह रणनीति ‘क्लासिकल ध्रुवीकरण’ के बजाय ‘सामाजिक सह-स्वीकार्यता’ पर केंद्रित होती दिख रही है।इधर, मायावती का जन्मदिन पर बधाई देना राजनीतिक पटल पर एक और बड़ी हलचल है। बीएसपी और सपा के रिश्ते 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से पूरी तरह कटुता में बदल चुके थे। मायावती ने सपा को धोखेबाज तक कहा था, और आगे किसी भी गठबंधन से इंकार कर दिया था। लेकिन अब मायावती का यह बधाई संदेश संकेत देता है कि 2027 के लिए विपक्षी खेमे में संभावित समीकरण पर अंदरखाने मंथन शुरू हो चुका है।

कांग्रेस पहले ही सपा के साथ गठबंधन में है। अगर बसपा भी इस कड़ी में जुड़ती है तो भाजपा के लिए यह 2017 और 2022 से एक बिल्कुल अलग चुनावी चुनौती बन सकती है। खासकर तब जब पश्चिमी यूपी में जाट-मुस्लिम समीकरण, पूर्वांचल में यादव-ब्राह्मण समीकरण और बुंदेलखंड में दलित वोट बैंक निर्णायक भूमिका निभाते हैं।इस समूचे घटनाक्रम के बीच, अखिलेश यादव का खुद को ‘सामाजिक और सांस्कृतिक’ नेता के रूप में प्रस्तुत करना भी एक सधी हुई रणनीति का हिस्सा है। अपने जन्मदिन पर उन्होंने मुलायम सिंह यादव की याद में दान की अपील की। यह प्रयास न सिर्फ ‘इमोशनल कनेक्ट’ बनाने वाला था बल्कि इसने कार्यकर्ताओं को पार्टी से भावनात्मक रूप से जोड़ने का भी कार्य किया। हालांकि साइबर अपराधियों ने इस अपील का दुरुपयोग करते हुए फर्जी लिंक से चंदा मांगा, जिससे पार्टी को सतर्कता जारी करनी पड़ी।

यह घटना इस ओर भी इशारा करती है कि 2027 का चुनाव सिर्फ सड़कों पर नहीं, डिजिटल मोर्चे पर भी लड़ा जाएगा। सत्तारूढ़ भाजपा पहले ही डिजिटल प्रचार में पारंगत है, लेकिन विपक्ष अब इस क्षेत्र में अधिक सक्रिय और सतर्क होता दिख रहा है।यदि इन सभी घटनाओं को एक-दूसरे से जोड़कर देखें तो स्पष्ट होता है कि अखिलेश यादव का जन्मदिन उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बदलाव की ‘सांकेतिक शुरुआत’ बन गया है। यह वह समय है जब राजनीतिक दल अपने विरोधियों को खत्म करने के बजाय उन्हें ‘मैनेज’ करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। यही वजह है कि भाजपा अब अखिलेश को धर्मविरोधी के बजाय ‘संस्कृति में रचे-बसे’ नेता के रूप में दिखाना चाहती है, वहीं सपा विपक्षी एकता की नई बुनियाद रख रही है।

अखिलेश यादव की शांत प्रतिक्रिया, योगी की बधाई, मायावती का समर्थन, केशव मौर्य का धार्मिक आह्वान यह सब कुछ इशारा कर रहा है कि 2027 के लिए राजनीतिक बिसात बिछ चुकी है। पर यह बिसात तलवारों से नहीं, शब्दों और संकेतों से लड़ी जाएगी। यह चुनाव भाषणों से नहीं, भावनाओं और छवियों से जीता जाएगा।अब देखना यह है कि इस जन्मदिन की गर्माहट आगे जाकर सहयोग में बदलती है या फिर यह सिर्फ रणनीतिक दिखावा बनकर रह जाती है। लेकिन इतना तय है 1 जुलाई 2025 को उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ बदला जरूर है। और वह बदलाव कैमरे की लेंस में नहीं, सियासी धड़कनों में दर्ज हो गया है।

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