पंचायत चुनाव बना सपा की अग्निपरीक्षा, अखिलेश ने फिर थामा पीडीए का झंडा

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
उत्तर प्रदेश की मिट्टी फिर एक बार सियासी हलचल से गरम है। गाँव की चौपालों से लेकर लखनऊ के दरबारों तक, हर ओर पंचायत चुनाव की सुगबुगाहट है। पर इस बार बात महज़ प्रधान या ब्लॉक प्रमुख की कुर्सी की नहीं है। यह कोई साधारण स्थानीय चुनाव नहीं है। यह 2027 के महासमर यानी विधानसभा चुनाव का पहला मोर्चा है, जिसकी बुनियाद गांवों की गलियों में डाली जा रही है। और सबसे ज्यादा अगर कोई इस चुनाव को लेकर गंभीर है, तो वो हैं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव।अखिलेश ने जब पहली बार “पीडीए” शब्द का इस्तेमाल किया पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तो कुछ लोग इसे सिर्फ एक चुनावी जुमला मान बैठे थे। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में यही फॉर्मूला सपा के लिए ऑक्सीजन बन गया। बीजेपी की हाईटेक, हाईवोल्टेज राजनीति के सामने समाजवादी पार्टी ने अपनी जमीन पर टिके रहकर 37 सीटों का कमाल कर दिखाया। यह जीत सिर्फ सीटों की नहीं थी, यह जीत थी सामाजिक गठबंधन की, दबे-कुचले वर्गों के राजनीतिक पुनर्जागरण की। और अब यही फार्मूला पंचायत चुनावों में गाँव-गाँव, खेत-खलिहान और पगडंडियों के ज़रिए दोहराया जा रहा है।
अखिलेश यादव जानते हैं कि पंचायत चुनाव, सत्ता की सीढ़ी का पहला पायदान है। ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य, जिला पंचायत अध्यक्ष इन पदों पर अगर अपने लोग होंगे, तो गांवों में सत्ता की नब्ज पर उनकी पार्टी की पकड़ मजबूत होगी। इसी नब्ज को थामने के लिए सपा ने पूरी ताकत झोंक दी है। पार्टी कार्यकर्ताओं को बूथ स्तर पर सक्रिय किया जा रहा है। हर जिले में पीडीए पंचायतें बनाई जा रही हैं। पिछड़े, दलित और मुसलमान युवाओं को संगठन में आगे लाया जा रहा है। जिन जिलों में संगठन निष्क्रिय था, वहाँ नए चेहरों को मौका दिया जा रहा है क्योंकि अखिलेश को पता है कि सिर्फ पुराने चेहरों से नई लड़ाई नहीं जीती जा सकती।पर पंचायत चुनाव सिर्फ संगठन से नहीं जीता जाता। सत्ता में बैठी बीजेपी की रणनीति भी कम नहीं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार अपने पास मौजूद आंकड़ों और प्रशासनिक तंत्र का इस्तेमाल करके परिसीमन और आरक्षण में बदलाव की तैयारी में है। अखिलेश को डर है कि बीजेपी ‘डेटा’ की आड़ में आरक्षण का गणित बदलकर सपा के कोर वोटर्स को हाशिए पर डाल सकती है। इसलिए अखिलेश यादव ने अपनी टीम को निर्देश दिया है कि वो हर जिले में परिसीमन और आरक्षण की प्रक्रिया पर नजर रखे। पार्टी के पास अब जिलावार कमेटियाँ हैं जो अगर कहीं भी गड़बड़ी देखेंगी, तो सीधे चुनाव आयोग या कोर्ट में जाएगी। अखिलेश इस चुनाव को इतना गंभीर मानते हैं कि वे इसे “लोकतंत्र की नींव का टेस्ट” कह चुके हैं।
2024 के चुनाव के बाद सपा के भीतर भी नई जान आई है। अब पार्टी में उत्साह है, एक भरोसा है कि बीजेपी को हराया जा सकता है। ये भरोसा पंचायत चुनावों में और गाढ़ा होगा। पंचायत चुनावों के जरिए सपा को दो बड़े फायदे होंगे एक, संगठन का हर स्तर टेस्ट हो जाएगा; और दो, 2027 की असली लड़ाई से पहले जनमानस का मिजाज पता चल जाएगा। सपा यही देखेगी कि किन इलाकों में पार्टी मजबूत है, कहाँ कमजोरी है, और क्या रणनीति काम कर रही है। बूथ स्तर पर की जा रही यह निगरानी सपा के लिए 2027 के लिए ड्रेस रिहर्सल जैसी है।यह चुनाव एक और वजह से खास है। पहली बार, सपा पीडीए फार्मूले को गांव-गांव लागू कर रही है। पहले मंडल की राजनीति सिर्फ शहरों और विधानसभा क्षेत्रों तक सीमित रहती थी। अब वह पंचायत स्तर तक पहुंच चुकी है। अब गांव का पिछड़ा युवक भी जानता है कि उसकी भागीदारी सिर्फ वोट देने तक नहीं, बल्कि सत्ता चलाने तक है। उसे अब सिर्फ रैली में झंडा उठाने के लिए नहीं बुलाया जा रहा, बल्कि प्रधान या बीडीसी बनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। दलितों और मुसलमानों को साथ जोड़कर एक मजबूत सामाजिक गठबंधन तैयार किया जा रहा है, जो बीजेपी के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नैरेटिव को टक्कर दे सके।
बीजेपी भी इस खतरे को समझती है। इसलिए वह भी अब गांवों की राजनीति में नई चालें चल रही है। जैसे आगरा में हाल ही में अहिल्याबाई होलकर की जयंती मनाई गई, ताकि धनगर और गडरिया समुदाय को साधा जा सके। पिछड़े वर्गों को बांटने की कोशिशें तेज हो गई हैं। वक्फ कानून पर विवाद पैदा कर अल्पसंख्यकों को घेरा जा रहा है। लेकिन सपा इसके लिए तैयार है। अखिलेश बार-बार कह रहे हैं कि बीजेपी जातियों को बाँटने के लिए ‘डेटा का हथियार’ इस्तेमाल कर रही है। पर सपा जातियों को जोड़ने के लिए ‘संविधान का रास्ता’ ले रही है।पंचायत चुनावों को लेकर एक और दिलचस्प पहलू यह है कि सपा इसे गठबंधन की परीक्षा भी मान रही है। 2024 में सपा और कांग्रेस साथ लड़े, पर पंचायत चुनावों में यह साझेदारी साफ नहीं है। अखिलेश कई बार संकेत दे चुके हैं कि 2027 में अगर हालात बने, तो सपा अकेले भी मैदान में उतर सकती है। और पंचायत चुनावों से पार्टी यह भी समझेगी कि क्या वह अपने दम पर जीत सकती है। कांग्रेस के साथ रिश्तों में आई खटास और पल्लवी पटेल जैसे सहयोगियों के बदले हुए तेवर यह संकेत दे रहे हैं कि आने वाले वक्त में विपक्षी एकता उतनी सहज नहीं होगी जितनी दिख रही है।
पर अखिलेश यादव की असली लड़ाई विपक्ष से नहीं, सत्तापक्ष से है। बीजेपी ने पूरे प्रदेश में सरकारी मशीनरी के जरिए पंचायत स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत की है। विकास प्राधिकरण से लेकर शिक्षा, स्वास्थ और आवास योजनाएं अब सीधा पंचायतों से जोड़ी जा रही हैं। ऐसे में अगर सपा पंचायत चुनावों में अच्छी पकड़ बनाती है, तो यह बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका होगा। और अगर सपा पिछड़ जाती है, तो 2027 की लड़ाई मुश्किल हो जाएगी।पंचायत चुनाव का मैदान अब पूरी तरह सज चुका है। एक ओर सपा है जो सामाजिक न्याय और भागीदारी की बात कर रही है, और दूसरी ओर बीजेपी है जो राष्ट्रवाद और विकास के नैरेटिव के साथ मैदान में है। सियासी पंडित कह रहे हैं कि पंचायत चुनाव का रिजल्ट भले ही प्रदेश की सरकार न बदले, लेकिन इससे यह तय हो जाएगा कि 2027 में कौन सी पार्टी कितनी जमीन पर खड़ी है।
गाँव के लोग धीरे-धीरे इस चुनाव को लेकर जागरूक हो रहे हैं। पहले जहां प्रधान का चुनाव ‘पैसे’ और ‘परिचय’ से होता था, अब वहाँ ‘पार्टी’ और ‘पॉलिसी’ भी चर्चा में हैं। अखिलेश ने जो पीडीए का बीज बोया है, वो अब हर गाँव में चर्चा का विषय है। पिछड़ी जातियों के युवा अब राजनीति में अपनी हिस्सेदारी को लेकर मुखर हो रहे हैं। यह बदलाव सपा के लिए शुभ संकेत है।तो सवाल अब सिर्फ ये नहीं है कि पंचायत चुनाव कौन जीतेगा। असली सवाल यह है कि इस चुनाव से किस पार्टी की रणनीति जमीन पर काम करती दिखेगी? कौन अपने संगठन को कस पाएगा? कौन जनता का विश्वास जीत पाएगा? और सबसे अहम 2027 के लिए कौन खुद को तैयार कर पाएगा?इस सबके बीच अखिलेश यादव का संदेश साफ है “यह चुनाव गांव की सरकार बनाने का नहीं, प्रदेश की सरकार बदलने की तैयारी है।”