राष्ट्रधर्म निभाकर लौटे ओवैसी, लेकिन डिनर डिप्लोमेसी से दूरी क्यों संयोग या वोट बैंक की मजबूरी?

पहलगाम आतंकी हमले के बाद जब पूरा देश शोक और आक्रोश में डूबा हुआ था, तब केंद्र सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ एक बड़े कदम के तहत ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की शुरुआत की। इस सैन्य कार्रवाई ने पाकिस्तान को उसके ही घर में घुसकर करारा जवाब दिया और दुनियाभर में भारत की छवि एक निर्णायक राष्ट्र के रूप में स्थापित की। यह ऑपरेशन न केवल कूटनीतिक दृष्टिकोण से बल्कि सैन्य रणनीति के लिहाज से भी ऐतिहासिक रहा। अमेरिका के इंडो-पैसिफिक कमांड के अनुसार, इस हमले में पाकिस्तान की वायुसेना की लगभग 20 प्रतिशत ताकत खत्म हो गई और चीन से मिले उसके कई आधुनिक हथियार पूरी तरह फेल साबित हुए।

भारत सरकार ने इस सैन्य कार्रवाई के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन हासिल करने के लिए एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का गठन किया। इस प्रतिनिधिमंडल को मुस्लिम बहुल देशों में भेजा गया ताकि पाकिस्तान का आतंकी चेहरा वहां उजागर किया जा सके और भारत के रुख को वैश्विक समर्थन मिल सके। इस प्रतिनिधिमंडल का एक अहम चेहरा AIMIM प्रमुख और सांसद असदुद्दीन ओवैसी भी थे। विदेश यात्रा के दौरान ओवैसी ने आश्चर्यजनक रूप से बेहद राष्ट्रवादी और आक्रामक तेवर अपनाए। उन्होंने न सिर्फ पाकिस्तान की खुलकर आलोचना की बल्कि भारत की सैन्य कार्रवाई को पूरी तरह जायज ठहराया। सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत और अल्जीरिया जैसे मुस्लिम देशों में ओवैसी ने साफ शब्दों में कहा कि भारत ने जो किया, वह आतंक के खिलाफ उसकी जिम्मेदारी है और पाकिस्तान को भविष्य में ऐसी हरकत करने से पहले दस बार सोचना होगा।

यह ओवैसी की अब तक की राजनीति से बिल्कुल अलग छवि थी। आमतौर पर मोदी सरकार की आलोचना करने वाले ओवैसी इस बार सरकार के साथ कदमताल करते नजर आए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के आतंकी ढांचे को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए और भारत को आतंकवाद के खिलाफ अब और नरमी नहीं बरतनी चाहिए। उन्होंने भारतीय मुस्लिमों की सुरक्षा और सम्मान की बात करते हुए विदेश में यह बयान भी दिया कि “भारत में मुसलमान पूरी तरह सुरक्षित हैं और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था हमें पूरी आजादी देती है।”

लेकिन जैसे ही यह प्रतिनिधिमंडल भारत लौटा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 लोक कल्याण मार्ग स्थित अपने सरकारी आवास पर डिनर पार्टी का आयोजन किया, जिसमें सभी नेताओं को आमंत्रित किया गया था, ओवैसी वहां नहीं दिखे। बैठक में कांग्रेस के शशि थरूर, सुप्रिया सुले, मनीष तिवारी और सलमान खुर्शीद जैसे नेता भी मौजूद थे। सबकी निगाहें एक ही नाम को ढूंढ रही थीं असदुद्दीन ओवैसी। सवाल उठने लगा कि क्या ओवैसी ने डिनर पार्टी से जानबूझकर दूरी बनाई? क्या यह कोई सियासी संदेश था या वाकई कोई व्यक्तिगत कारण?

ओवैसी ने इस पर सफाई देते हुए एएनआई से कहा कि वे देश में नहीं हैं और उन्हें एक निजी मेडिकल इमरजेंसी के चलते दुबई जाना पड़ा। उन्होंने बताया कि उनके बचपन के दोस्त और रिश्तेदार की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी, और उन्हें तुरंत विदेश रवाना होना पड़ा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने प्रतिनिधिमंडल के संयोजक बैजयंत पांडा को इस बारे में पहले ही सूचना दे दी थी। हालांकि, इसके बावजूद राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज हो गई कि क्या यह वाकई एक संयोग था या कोई सोची-समझी रणनीति?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओवैसी का पीएम मोदी की डिनर पार्टी से दूरी बनाना कोई संयोग नहीं था, बल्कि एक सियासी प्रयोग था। असदुद्दीन ओवैसी की पूरी राजनीति मुस्लिम वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती है। उन्हें पता है कि हिंदू वोटर उनका परंपरागत समर्थन आधार नहीं है और अगर वे मोदी के साथ किसी भी मंच पर दिखते हैं, तो उनके मुस्लिम वोटरों में भ्रम की स्थिति बन सकती है। पहले भी जब उन्होंने केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह से मालेगांव बुनकरों के मुद्दे पर मुलाकात की थी, तो मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग ने उन पर सवाल उठाए थे।

फिलहाल बिहार विधानसभा चुनाव करीब हैं और सीमांचल के इलाके में ओवैसी की पार्टी AIMIM अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। इन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी बहुत अधिक है और ओवैसी इन्हीं वोटरों के दम पर चुनावी सफलता का सपना देख रहे हैं। अगर वे मोदी के साथ डिनर पार्टी में नजर आते तो विपक्षी दल उन पर पहले से लग रहे ‘बीजेपी की बी-टीम’ के आरोपों को और मजबूती से उछालते। साथ ही मुस्लिम वोटरों के मन में यह संदेश जाता कि ओवैसी की राष्ट्रवाद की बातें महज दिखावा थीं और वे भी राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बन चुके हैं।

इसलिए राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो ओवैसी ने डिनर पार्टी से दूरी बनाकर अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश की। विदेश में उन्होंने जिस राष्ट्रवादी चेहरे को प्रस्तुत किया, भारत लौटने पर उन्होंने एक बार फिर अपनी मुस्लिम पहचान को प्राथमिकता दी। एक इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि भारत में मुसलमान सुरक्षित हैं या नहीं, तो उन्होंने कहा कि “बीजेपी और आरएसएस की विचारधारा के तहत मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं।” यह वही ओवैसी हैं जो कुछ दिन पहले तक विदेश में कह रहे थे कि “भारत में मुसलमानों को लेकर चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।”

इस तरह ओवैसी ने एक बार फिर 360 डिग्री सियासी मोड़ लिया और अपनी राजनीति को उसी दिशा में मोड़ दिया जहां से उन्हें चुनावी लाभ मिलने की उम्मीद है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि AIMIM ने महाराष्ट्र के औरंगाबाद से लेकर बिहार के किशनगंज और सीमांचल तक मुस्लिम वोटों के सहारे ही चुनावी ज़मीन बनाई है। ओवैसी को मालूम है कि हिंदू वोटर उनके साथ नहीं है और अगर मुस्लिम वोटर भी उनसे दूर हो गया तो उनकी पूरी राजनीतिक जमीन खिसक जाएगी।

मोदी सरकार के ऑपरेशन सिंदूर ने भारत को वैश्विक स्तर पर मजबूती दिलाई है। दुनिया के तमाम देश अब यह मानने लगे हैं कि भारत आतंकवाद के खिलाफ सिर्फ शब्दों में नहीं, बल्कि व्यवहारिक स्तर पर कड़ा रुख अपना रहा है। इस ऑपरेशन में तकनीकी और सैन्य स्तर पर जो दक्षता दिखाई गई, उसने पाकिस्तान को वैश्विक मंचों पर शर्मिंदा कर दिया। लेकिन ओवैसी की अनुपस्थिति ने उस एकता की तस्वीर को हल्का सा धुंधला कर दिया।

डिनर डिप्लोमेसी में अनुपस्थित रहकर ओवैसी ने एक तरफ राष्ट्रधर्म निभाने की सीमा रेखा खींच दी और दूसरी तरफ वोट बैंक की राजनीति का संतुलन साधा। यह फैसला बताता है कि ओवैसी जैसे नेता हर कदम फूंक-फूंककर रखते हैं और जब भी उन्हें लगे कि उनके राजनीतिक हित पर चोट पड़ सकती है, तो वे राष्ट्रधर्म से एक कदम पीछे हटने से भी नहीं हिचकते। यही उनकी राजनीति की असल पहचान है चतुराई, संतुलन और समयानुकूल सियासी पैंतरेबाजी।

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