नीतीश-मांझी के गढ़ में राहुल गांधी की जीत की रणनीति, वोटबैंक को साधने की तैयारी

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की राजनीति में चुनावी तारीखों का भले ही औपचारिक ऐलान न हुआ हो, लेकिन सियासत की गर्मी अब धीरे-धीरे लपटों में बदलने लगी है। इस तपिश को और तेज कर रहे हैं कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जो अब राज्य में एक नई राजनीतिक जमीन तलाशने की पूरी तैयारी में हैं। बीते पांच महीनों में यह उनका बिहार का पांचवां दौरा है और इस बार उन्होंने सीधे दो ऐसे इलाकों को चुना है जो वर्षों से उनके राजनीतिक विरोधियों का गढ़ माने जाते हैं गया और नालंदा। एक ओर जहां गया को जीतनराम मांझी का अभेद्य दुर्ग माना जाता है, वहीं नालंदा नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत का प्रतीक है। राहुल गांधी का इन दोनों क्षेत्रों में पहुंचना, केवल एक प्रतीकात्मक यात्रा नहीं बल्कि एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है, जिसके केंद्र में दलित, अतिपिछड़े, और मुस्लिम मतदाताओं को जोड़ने की बड़ी कवायद है।

गया से शुरू हुए राहुल गांधी के इस ताजा दौरे का पहला मकसद मुसहर समुदाय को साधना है। यह वही समुदाय है जिससे दशरथ मांझी आते थे वह माउंटेन मैन जिन्होंने अकेले दम पर पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया था और बाद में महादलितों के लिए एक प्रेरणा बन गए। दशरथ मांझी की विरासत को राजनीतिक पहचान देने का काम जीतनराम मांझी ने किया, और वर्षों से यह समुदाय ‘हम’ पार्टी के साथ जुड़ा रहा है। अब कांग्रेस इसी राजनीतिक विरासत में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। राहुल गांधी ने दशरथ मांझी की प्रतिमा पर फूल अर्पित किया, उनके परिवार से मुलाकात की और उनके बेटे को पहले ही कांग्रेस में शामिल करा दिया है। यह कदम न सिर्फ सांकेतिक है, बल्कि मुसहर समाज को यह संदेश देने की कोशिश भी है कि कांग्रेस उनके संघर्ष और सम्मान को अपने राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा बनाना चाहती है।

गया में राहुल गांधी का महिलाओं से संवाद भी कांग्रेस की रणनीति का अहम हिस्सा है। यह संवाद सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि बिहार की महिला मतदाताओं को सीधे तौर पर जोड़ने की कोशिश है। नीतीश कुमार ने महिला वोटबैंक को लंबे समय तक शराबबंदी, आरक्षण और सरकारी योजनाओं के जरिए अपने पक्ष में बनाए रखा है। लेकिन अब जब उनकी राजनीति उम्र और सत्ता की थकावट से जूझ रही है, तब राहुल गांधी महिला मतदाताओं से सीधे संवाद स्थापित करके नया समीकरण गढ़ना चाहते हैं। माना जा रहा है कि राहुल गांधी इस मंच से महिलाओं के लिए कुछ नई योजनाओं या घोषणाओं का ऐलान भी कर सकते हैं, जो आने वाले विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार करेगा।

गया के बाद राहुल गांधी नालंदा पहुंचे नीतीश कुमार का गृह जिला और राजनीतिक रूप से सबसे मजबूत क्षेत्र। यहां उन्होंने कांग्रेस के ‘संविधान सुरक्षा सम्मेलन’ में हिस्सा लिया और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) के छात्रों से संवाद किया। यह आयोजन विशेष रूप से नीतीश कुमार के कोर वोटबैंक को चुनौती देने के लिए आयोजित किया गया था। नालंदा के राजगीर में यह कार्यक्रम आयोजित कर कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब वह नीतीश कुमार के परंपरागत सामाजिक आधार में सेंध लगाने के लिए सीधी लड़ाई लड़ना चाहती है।

बिहार में EBC और दलित वोटबैंक की राजनीतिक ताकत को नकारा नहीं जा सकता। आंकड़ों की बात करें तो राज्य में दलितों की आबादी लगभग 17% है, जबकि अतिपिछड़ा वर्ग 36% के आसपास है। यही वो सामाजिक समूह हैं जिन पर नीतीश कुमार ने अपनी सियासी इमारत खड़ी की थी। लेकिन अब कांग्रेस इन वर्गों को अपनी तरफ खींचने की रणनीति पर काम कर रही है। यही कारण है कि पार्टी नेतृत्व भी इन्हीं वर्गों से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम रविदास समुदाय से आते हैं, वहीं सह प्रभारी सुशील पासी पासी समाज से हैं। अब मुसहर समुदाय को जोड़ने के लिए राहुल गांधी का गया दौरा कांग्रेस के उस सामाजिक समीकरण को पूरा करने की कोशिश है, जो आने वाले चुनाव में नीतीश कुमार को सीधी टक्कर देने का माद्दा रखता है।

राहुल गांधी के अब तक के बिहार दौरे साफ संकेत देते हैं कि वह केवल भाषणों और नारों तक सीमित नहीं रहना चाहते, बल्कि सामाजिक आधार को मजबूत करने के लिए निरंतर संपर्क और संवाद की रणनीति पर भरोसा कर रहे हैं। पांच जनवरी को पटना में ‘संविधान सुरक्षा कार्यक्रम’, पांच फरवरी को श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में जगलाल चौधरी की जयंती पर उपस्थिति, सात अप्रैल को फिर से संविधान सम्मेलन, पंद्रह मई को दरभंगा में दलित-अतिपिछड़ा छात्रों के साथ संवाद और अब 6 जून को गया और नालंदा का दौरा ये सभी कार्यक्रम राहुल गांधी की सोच और कांग्रेस की रणनीति को स्पष्ट करते हैं।

इन सभी कार्यक्रमों का फोकस स्पष्ट है दलित, पिछड़े, अतिपिछड़े और युवाओं को अपने पाले में लाना। कांग्रेस जानती है कि बिहार में सत्ता की चाबी इन्हीं वर्गों के पास है। यही वजह है कि राहुल गांधी ‘पलायन रोको, नौकरी दो’, ‘शिक्षा न्याय संवाद’, और ‘संविधान सुरक्षा सम्मेलन’ जैसे अभियानों के ज़रिए इन्हीं वर्गों को जागरूक करने और जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस अब न केवल सामाजिक न्याय की बात कर रही है, बल्कि इसे जमीन पर उतारने की रणनीति पर भी काम कर रही है।

राहुल गांधी के गया और नालंदा दौरे का एक और स्पष्ट संदेश यह है कि कांग्रेस अब अपने सहयोगियों के भरोसे नहीं बैठना चाहती। वह जानती है कि जब तक पार्टी खुद अपनी सामाजिक और राजनीतिक जमीन मजबूत नहीं करती, तब तक गठबंधनों में भी उसका महत्व सीमित रहेगा। यह भी साफ है कि राहुल गांधी अब नीतीश कुमार की राजनीतिक पकड़ को चुनौती देने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। नालंदा में जाकर नीतीश के कोर वोटबैंक में सीधी सेंधमारी का प्रयास इसका स्पष्ट उदाहरण है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार में अब एक त्रिकोणीय दलित राजनीति बनने की संभावना है। एक ओर एलजेपी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान, जो दलित युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। दूसरी ओर जीतनराम मांझी, जो महादलित समुदाय के भरोसे केंद्र और राज्य दोनों में सत्ताधारी गठबंधन के हिस्सेदार बने हुए हैं। और अब कांग्रेस, जो दलित, अतिपिछड़े और महिलाओं को साथ जोड़कर नए समीकरण गढ़ने में लगी है। ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीतिक तस्वीर पूरी तरह से बदलने की संभावना है।

इस पूरे सियासी घटनाक्रम का सबसे अहम पहलू यह है कि राहुल गांधी अब प्रतिरोध की राजनीति से पहल की राजनीति की ओर बढ़ चुके हैं। वह अब सिर्फ सरकार और विपक्ष की आलोचना नहीं कर रहे, बल्कि नए विचारों और नए सामाजिक समीकरणों के साथ जनता के बीच जाकर समर्थन जुटा रहे हैं। गया और नालंदा जैसे विरोधी किलों में पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस अब मैदान में उतर चुकी है और संघर्ष का मन बना चुकी है।

कुल मिलाकर, राहुल गांधी का यह ताजा बिहार दौरा कांग्रेस की उस नई सोच और रणनीति का हिस्सा है जो पार्टी को फिर से राज्य में प्रासंगिक बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले महीनों में यह मेहनत कितना रंग लाती है, लेकिन एक बात स्पष्ट है बिहार की राजनीति अब नए समीकरणों की तरफ बढ़ रही है और उसमें राहुल गांधी की भूमिका पहले से कहीं अधिक सक्रिय और चुनौतीपूर्ण होती जा रही है।

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