निषाद समाज का बड़ा आंदोलन, 2027 चुनाव में बनेगा सियासी समीकरणों का नया चक्रवात
उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में निषाद समाज की बढ़ती ताकत सामने आई है। संजय निषाद के कड़े बयान भाजपा, सपा और बसपा को चुनौती देते हैं। 2027 के विधानसभा चुनावों में निषाद वोट बैंक निर्णायक साबित होगा। छोटे नेताओं से दूर रहने की चेतावनी और गठबंधन को मजबूत बनाए रखने की अपील प्रमुख मुद्दे हैं।


उत्तर प्रदेश की राजनीति का मैदान अब और भी गर्म हो चला है। निषाद पार्टी के प्रमुख और कैबिनेट मंत्री संजय निषाद ने हाल ही में सीतापुर में मीडिया से बातचीत के दौरान जो कुछ कहा, वह सिर्फ एक बयान नहीं, बल्कि पूरे सियासी परिदृश्य को झकझोरने वाला संदेश है। उन्होंने भाजपा को साफ-साफ नसीहत दी कि छोटे-मोटे ‘छुटभैया’ नेताओं से दूर रहना चाहिए, वरना नुकसान होगा। साथ ही, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी पर तीखे तीर चलाए। आजम खान की रिहाई पर चुटकी ली कि ‘बहुत देर कर दी आते-आते’, मायावती को ‘मिशनरी नेता’ बता दिया, और इशारों में यह भी कह दिया कि 18 प्रतिशत निषाद वोटों का साथ किसके साथ, वही जीतेगा। ये बातें सुनकर लगता है जैसे निषाद समाज अब अपनी ताकत का पूरा जोर दिखा रहा हो। आखिर, यह सब क्यों हो रहा है? और इसका असर आने वाले दिनों में क्या पड़ेगा? आइए, इसकी परतें खोलते हैं, ताकि आम आदमी भी समझ सके कि सियासत की यह जंग कैसे उसकी जिंदगी को छूती है।
सबसे पहले तो संजय निषाद को थोड़ा करीब से जान लें। वे न सिर्फ उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं, बल्कि निषाद समाज के एक बड़े नेता भी। निषाद समुदाय तो गंगा-यमुना के किनारों पर बसे वे मेहनती लोग हैं, जो मछली पकड़ते हैं, नाव चलाते हैं, और साल भर पानी से जूझते रहते हैं। लंबे समय से ये लोग दलित श्रेणी में आने की मांग कर रहे हैं, ताकि उन्हें सही आरक्षण मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने निषाद पार्टी को गठबंधन में जगह दी थी। संजय निषाद को मंत्री बनाया गया, और समाज को लगा कि अब उनकी सुनवाई होगी। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में हालात बदल गए। भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिला, और निषाद वोटों का एक हिस्सा इधर-उधर बंट गया। संजय निषाद ने खुद माना कि उस चुनाव में ‘कुछ गड़बड़ी’ हुई, जिससे सीटें कम रहीं। यह गड़बड़ी क्या थी? बात यही है कि आरक्षण का पूरा वादा न निभाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण पर सवाल उठाए, और निषाद जैसे समुदायों को एससी में शामिल करने की मांग फिर से तेज हो गई। संजय निषाद का यह बयान उसी नाराजगी का आईना है। वे कह रहे हैं- सरकार को उन छोटे नेताओं से बचना चाहिए जो समाज को तोड़ते हैं, वरना बड़ा नुकसान होगा। पूर्वांचल के गांवों में तो लोग कहते हैं कि निषाद समाज अब चुप नहीं बैठेगा।
अब आते हैं आजम खान वाली कहानी पर। समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता आजम खान को 23 सितंबर 2025 को सीतापुर जेल से रिहा किया गया, करीब 23 महीने की कैद के बाद। जेल से बाहर निकलते ही वे डीएसपी पर भड़क पड़े, और रामपुर पहुंचे तो समर्थकों का सैलाब उमड़ आया। लेकिन संजय निषाद ने तंज कसते हुए कहा- ‘बहुत देर कर दी आते-आते।’ यह सिर्फ मजाकिया बात नहीं, बल्कि सपा की कमजोरी पर सीधा प्रहार है। आजम खान पर 72 से ज्यादा मुकदमे दर्ज थे, ज्यादातर भाजपा सरकार आने के बाद। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने रिहाई पर कहा कि आने वाले समय में उनके सारे केस खत्म हो जाएंगे। लेकिन संजय निषाद ने पलटकर कहा- ‘उनकी सरकार आएगी तभी तो केस खत्म करेंगे, और वो आएगी ही नहीं।’ कयास तो यह भी लगे कि आजम खान बसपा की ओर रुख कर सकते हैं। उनकी पत्नी तंजीन फातिमा ने मायावती से मिलने की बातें तो चलीं ही। बसपा के एक विधायक ने कहा कि अगर आजम जुड़ें, तो उनका स्वागत है। संजय निषाद का मतलब साफ था- आजम चाहे पुरानी डाल पर बैठें या नई पर, फर्क नहीं पड़ता। लेकिन असल में यह सपा को चेतावनी है। अगर अपने पुराने साथी को समय पर सहारा न दिया, तो वो कहीं और चले जाएंगे। आजम खान का राजनीतिक सफर लंबा है। वे रामपुर-शाहजहांपुर से पांच बार सांसद रह चुके हैं, और मुस्लिम-यादव वोट बैंक में उनकी पकड़ कायम है। अगर वे सपा छोड़ते हैं, तो 2027 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव को जोरदार झटका लगेगा। पूर्वांचल के मुस्लिम बहुल इलाकों में तो लोग चर्चा कर रहे हैं कि आजम की रिहाई से सपा मजबूत होगी या कमजोर?
मायावती पर ‘मिशनरी नेता’ वाला तंज तो कमाल का है। संजय निषाद ने कहा कि बसपा प्रमुख मायावती मिशनरी नेता हैं, यानी सिर्फ अपना मिशन चलाती रहती हैं, बाकी सबको भूल जाती हैं। यह बात तब कही जब मायावती ने हाल ही में एक रैली की। संजय निषाद ने बधाई तो दी, लेकिन साथ ही कहा कि ‘रैली को रैला कहते हैं’। यह बयान सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, और बसपा में हड़कंप मच गया। क्यों? क्योंकि बसपा भी निषाद समाज को लुभाने की कोशिश में लगी है। 2024 के चुनाव में अकेले लड़कर बसपा को सिर्फ दो सीटें मिलीं, और दलित वोट बंट गए। अब मायावती एससी समुदायों को एकजुट करने पर जोर दे रही हैं। लेकिन संजय निषाद का संदेश साफ है- निषाद समाज अब किसी के पीछे नहीं चलेगा। आजम खान की रिहाई के बाद बसपा ने उन्हें न्योता दिया, लेकिन संजय निषाद जैसे नेता इसे साजिश बता रहे हैं। यूपी की सियासत में वोट बैंक की लड़ाई तो तेज है ही। निषाद समाज करीब 18 प्रतिशत वोट देता है, खासकर पूर्वांचल के जिलों में। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इन्हें गठबंधन में शामिल कर साफा बांधा था, लेकिन आरक्षण का वादा पूरा न होने से नाराजगी बढ़ी। मायावती की रैली में भी निषाद समाज के लोग कम दिखे, और संजय निषाद का तंज इसी की वजह से।
सपा पर हमला भी कम नहीं। अखिलेश यादव ने योगी सरकार पर अपराधियों को संरक्षण देने का इल्जाम लगाया। संजय निषाद ने जवाब दिया- ‘उनके समय में क्या होता था, सबको पता है। हमारी सरकार सबको सुरक्षा दे रही है।’ यह पुरानी दुश्मनी है। सपा के शासन में गुंडाराज की कहानियां तो आज भी लोग सुनाते हैं। संजय निषाद ने हाल ही में गोंडा में कहा कि अखिलेश को जेल में आजम से मिलना चाहिए था। दुख के समय साथ न दें, तो सुख में क्या फायदा? यह बात सपा के दोहरे चरित्र पर चोट करती है। अगर आजम यादव होते, तो शायद व्यवहार अलग होता। निषाद समाज भी यही सोचता है सत्ता में आने पर सब याद आ जाते हैं, वरना भूल जाते हैं। अपराध के मुद्दे पर तो यूपी के गांवों में लोग कहते हैं कि योगी सरकार ने सख्ती दिखाई है, लेकिन सपा वाले पुरानी यादें ताजा कर रहे हैं।
ओम प्रकाश राजभर की नाराजगी का जिक्र भी जरूरी है। बिहार चुनाव में एनडीए ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को सीटें कम दीं, जिससे राजभर जी नाराज हो गए। संजय निषाद ने कहा- समय आने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन निषाद और राजभर दोनों ही भाजपा से असंतुष्ट हैं। बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव करीब हैं, और ये समुदाय ओबीसी वोट बैंक के 20-25 प्रतिशत हैं। अगर ये गठबंधन तोड़ते हैं, तो एनडीए को बड़ा धक्का लगेगा। संजय निषाद का 18 प्रतिशत वोट वाला दावा इसी ताकत का प्रतीक है। तीसरे मोर्चे के सवाल पर उन्होंने कहा- निषाद जिसके साथ, जीत उसी की। यह भाजपा को सीधी चेतावनी है- गठबंधन को मजबूत रखो, वरना नुकसान हो सकता है। बिहार और यूपी दोनों जगह ओबीसी समाज की आवाज तेज हो रही है।
इस सबके पीछे निषाद समाज की असली ताकत है। ये लोग नदियों के किनारे रहते हैं, जहां बाढ़ आती है तो सब कुछ बह जाता है। फिर भी, वे फिर से खड़े हो जाते हैं। आरक्षण की लड़ाई तो दशकों से चल रही है। 2021 में यूपी सरकार ने निषाद को ओबीसी में शामिल किया, लेकिन एससी की मांग अभी भी अधर में है। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर सख्त रुख अपनाया, तो अब ये समुदाय अपनी राजनीतिक ताकत दिखा रहा है। संजय निषाद जैसे नेता इसे हथियार बना रहे हैं। 2024 में पूर्वांचल की कई सीटों पर निषाद वोट निर्णायक बने। अगर भाजपा ने इन्हें नजरअंदाज किया, तो 2027 के चुनाव में मुश्किलें बढ़ सकती हैं। निषाद समाज के युवा अब शिक्षित हो रहे हैं, और वे कहते हैं कि वोट से ही बदलाव आएगा।
कुल मिलाकर, संजय निषाद के ये बयान यूपी-बिहार की सियासत को नई मोड़ दे सकते हैं। छोटे समुदाय अब बड़े दावे कर रहे हैं। सपा, बसपा, भाजपा- सबको लग रहा होगा कि निषाद समाज को हल्के में न लें। आम आदमी के लिए सबक साफ है- वोट की ताकत से ही न्याय मिलता है। अगर निषाद समाज एकजुट रहा, तो सत्ता की दिशा बदल सकती है। समय बताएगा कि ये बयान हवा में उड़ेंगे या जमीनी हलचल पैदा करेंगे। लेकिन एक बात तय है- उत्तर प्रदेश की राजनीति अब और रोचक होने वाली है। नदियों के किनारे बसे ये मेहनती लोग अब सियासत के मैदान में भी अपनी लहर दिखा रहे हैं।
				
					


