मुलायम फैमिली जैसी ही कहानी लालू परिवार में, तेजप्रताप-रोहिणी की कलह पर चर्चा

बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लालू परिवार में सियासी वर्चस्व की जंग उसी तरह से छिड़ गई है, जैसे 2017 चुनाव से पहले मुलायम परिवार में छिड़ गई थी. आरजेडी की सत्ता में वापसी की उम्मीदों पर कहीं लालू परिवार की कलह सियासी ग्रहण न बन जाए?

बिहार की सियासत इस समय एक अजीब मोड़ पर खड़ी है। विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने वाला है, लेकिन आरजेडी का सबसे बड़ा सहारा माने जाने वाला लालू परिवार ही बिखराव की चपेट में आ गया है। घर के भीतर से उठ रही आवाजें अब सीधे चुनावी समीकरणों को बिगाड़ने का खतरा बन गई हैं। लालू यादव की विरासत संभालने की ज़िम्मेदारी तेजस्वी यादव पर है, लेकिन बड़े भाई तेजप्रताप और बहन रोहिणी आचार्य के तेवर ने सबको चौंका दिया है।तेजप्रताप यादव को आरजेडी ने छह साल के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया है। लंबे समय से उनके बागी तेवर पार्टी के लिए सिरदर्द बने हुए थे। कभी विवादित बयान, तो कभी अपनी ही पार्टी नेताओं पर आरोप, आखिरकार आरजेडी नेतृत्व ने कठोर कदम उठाया और उन्हें निष्कासित कर दिया। तेजप्रताप ने भी साफ कह दिया कि अब वे किसी कीमत पर आरजेडी में वापसी नहीं करेंगे। उन्होंने नया मोर्चा बना लिया है और छोटे दलों के साथ तालमेल की तैयारी कर रहे हैं। उनके इस फैसले से यादव समाज का एक हिस्सा और युवा वोटर अलग हो सकते हैं।

इधर, तेजप्रताप की गूंज थमी भी नहीं थी कि लालू यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने सोशल मीडिया पर नाराज़गी जता दी। अमेरिका से लौटकर पिता को किडनी दान कर रोहिणी जनता के बीच भावनात्मक जुड़ाव रखती हैं। लेकिन हाल ही में उन्होंने ‘X’ पर तेजस्वी यादव, आरजेडी और अपने परिवार के कई लोगों को अनफॉलो कर दिया। पहले वे 61 लोगों को फॉलो करती थीं, अब केवल तीन ही रह गए हैं। यह कदम अचानक नहीं था। दरअसल, बिहार अधिकार यात्रा के दौरान तेजस्वी की बस की आगे वाली सीट पर उनके करीबी संजय यादव बैठे दिखाई दिए थे। इस पर सवाल उठा कि यह जगह तो परिवार या शीर्ष नेतृत्व के लिए होनी चाहिए थी। पटना के एक नेता ने फेसबुक पर यही लिखा, जिसे रोहिणी ने शेयर कर दिया। इसके बाद उन्होंने लगातार पोस्ट लिखे और साफ किया कि उनका आत्म-सम्मान सबसे ऊपर है।रोहिणी ने यह भी लिखा कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। लेकिन उनकी नाराज़गी का असर सीधा पार्टी की छवि पर पड़ा है। वजह यह है कि रोहिणी जनता के बीच भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई हैं और उनके पिता को किडनी देने का बलिदान लोग भूले नहीं हैं। ऐसे में उनका पार्टी से दूरी बनाना चुनावी नुकसान का कारण बन सकता है।

सारी कहानी में एक और अहम किरदार है संजय यादव। हरियाणा से आने वाले संजय लंबे समय से तेजस्वी के करीबी माने जाते हैं। पार्टी की रणनीति बनाने में उनकी बड़ी भूमिका है, लेकिन अब यही भूमिका विवाद की वजह बन गई है। पुराने नेता और कार्यकर्ता संजय के दखल से खुश नहीं हैं। तेजप्रताप और रोहिणी की नाराज़गी में भी उनकी भूमिका की चर्चा हो रही है। यही कारण है कि विरोधी दल इस मसले को और हवा दे रहे हैं।बीजेपी और जेडीयू ने परिवार की इस लड़ाई को तेजस्वी की कमजोरी बताना शुरू कर दिया है। वे कह रहे हैं कि जो नेता अपने परिवार को नहीं संभाल पा रहा, वह बिहार को कैसे संभालेगा। चुनाव के दौरान यह हमला और तेज हो सकता है।यह स्थिति बहुत हद तक उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी जैसी लग रही है। 2016-17 में अखिलेश यादव और चाचा शिवपाल यादव के बीच विवाद खुलकर सामने आया था। उस समय समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। अब वही खतरा आरजेडी के सामने खड़ा है। अगर लालू परिवार की कलह चुनाव तक जारी रही तो परिणाम भी यूपी जैसे हो सकते हैं।

तेजस्वी यादव के सामने इस समय दोहरी चुनौती है। एक तरफ उन्हें जनता को यह भरोसा दिलाना है कि वे बिहार को नई दिशा दे सकते हैं। दूसरी तरफ परिवार और पार्टी को एकजुट रखना भी उनकी ज़िम्मेदारी है। 2020 में उन्होंने कड़ी मेहनत से पार्टी को सत्ता की दहलीज तक पहुँचाया था। इस बार उनकी उम्मीदें और बड़ी हैं, लेकिन परिवार की नाराज़गी उस राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकती है।लालू प्रसाद यादव की बीमारी और उम्र के कारण उनकी सक्रिय भूमिका अब सीमित है। पूरा दारोमदार तेजस्वी पर ही है। सवाल यही है कि क्या वे समय रहते मतभेदों को खत्म कर पाएँगे। अगर परिवार की कलह और गहरी हुई तो इसका फायदा नीतीश कुमार और बीजेपी को मिलेगा।बिहार की जनता इस लड़ाई को गौर से देख रही है। एक तरफ बेरोज़गारी और विकास जैसे मुद्दे हैं, दूसरी तरफ विपक्षी दल की सबसे बड़ी ताक़त खुद कमजोर होती दिखाई दे रही है। यही वजह है कि इस बार का चुनाव सिर्फ़ आरजेडी और एनडीए की टक्कर नहीं बल्कि लालू परिवार की एकजुटता की परीक्षा भी बनने जा रहा है।

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