मोदी का नया मंत्र: देरी विकास का दुश्मन


अमेरिकी लेखक जय एम फिनमैन की अमेरिकी बीमा कंपनियों के कामकाज को लेकर कुछ साल पहले एक पुस्तक आई थी, डिले, डिनाय, डिफेंड…अंग्रेजी के इन तीन शब्दों का अर्थ है टालना, इनकार करना और बचाव करना। इस पुस्तक में फिनमैन ने साबित किया है कि किस तरह बीमा कंपनियां दावों को टालती हैं, देने से इनकार करती हैं और फिर अपने फैसले का बचाव करती हैं। नौकरशाही से जिनका पल्ला पड़ता रहता है, उन्हें भी पता है कि नौकरशाही किस तरह फैसलों को टालती हैं, उनके हिसाब से योजना नहीं हुई तो उससे आगे बढ़ाने से इनकार कर देती है और आखिर में उस योजना का पलीता ही लगा देती है। इस देर और इनकार की कीमत आखिरकार जनता को चुकानी पड़ती है। अव्वल तो तय समय पर लोगों को सहूलियतें मिल ही नहीं पाती। लेकिन जब किसी वजह से परियोजना पर काम चलता भी है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, उसकी लागत खर्च बढ़ चुकी होती है। आखिरकार इसकी कीमत देश को ही चुकानी पड़ती है।
लंबे समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहते प्रधानमंत्री मोदी ने तंत्र की इस खामी को समझा था। सबसे पहले इस कमजोरी पर काबू पाने की उन्होंने गुजरात में कोशिश की और देश की कमान संभालने के बाद उन्होंने तंत्र से इस खामी को दूर करने की कोशिश की। प्रधानमंत्री का यह कहना कि देरी विकास का दुश्मन है और हमारी सरकार इस दुश्मन को हराने के लिए प्रतिबद्ध है, उनकी इसी सोच को जाहिर करता है। बीते दिनों एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने परियोजनाओं में देरी को देश के विकास की बड़ा रोड़ा बताया है। अपने संबोधन में उन्होंने स्वीकार किया परियोजनाओं में देरी से प्रगति बाधित होती है, जबकि तात्कालिक कार्रवाई से विकास को बढ़ावा मिलता है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में असम के बोगीबील पुल परियोजन का उदाहरण दिया, जिसकी आधारशिला 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने रखी थी, बाद में सत्ता संभालते ही अटल बिहारी वाजपेयी ने इसका काम शुरू कराया। लेकिन बाद की सरकारों के दौरान पता नहीं किन वजहों से इस परियोजना का काम रोक दिया गया। जिसकी वजह से अरुणाचल प्रदेश और असम के लाखों लोगों को परेशानियां झेलनी पड़ीं। इस योजना पर दोबारा काम मोदी सरकार के आने के बाद शुरू हुआ और चार साल में यह पुल बनकर तैयार हुआ और 2018 इसे जनता के लिए खोला गया। अगर इसी हिसाब से देखें तो यह काम 2001 या अधिक से अधिक 2002 में पूरा किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
सत्ताएं बदलते ही कई योजनाएं रोक दी जाती हैं और राजनीतिक नफा-नुकसान को देखते हुए उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। केरल की कोल्लम बाईपास सड़क परियोजना को इसके उदाहरण के रूप में रखा जा सकता है। यह योजना 1972 में शुरू होनी थी, लेकिन नहीं हुई। तकरीबन पचास साल तक यह योजना लटकी रही। यह बात और है कि इस काम को मोदी सरकार ने ही पूरा किया।
प्रधानमंत्री मोदी जब भी कोई नया काम शुरू करते हैं या देश के सामने कोई लक्ष्य रखते हैं, तो वे नया नारा भी गढ़ते हैं। ‘देरी विकास का दुश्मन है’ इस कड़ी में नया नारा है। देश में ऐसी कई परियोजनाएं मिल जाएंगी, जिन्हें तय वक्त तक पूरा नहीं किया जा सका। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने के लिए घाघरा नदी पर मांझी में एक पुल है। प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह ने इस पुल को केंद्र मे रखकर कविता ही रच डाली है। इस पुल का शिलान्यास जनता पार्टी के शासनकाल के राज्य मंत्री चांद राम ने शुरू किया और दशकों तक इसका काम नहीं हो पाया। अरसे बाद यह पुल बनकर तैयार हो पाया। परियोजनाओं में देरी की ऐसी ढेरों कहानियां पूरे देश में फैली हुई हैं। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नवी मुंबई हवाई अड्डा परियोजना का भी इसी संदर्भ में उल्लेख किया है। देश की आर्थिक राजधानी के लिए बेहतर और सुगम हवाई सेवा की जरूरत से किसे इनकार हो सकता है। लेकिन नवी मुंबई में हवाई अड्डा बनाने की चर्चा साल 1997 में शुरू हुई। लेकिन उस परियोजना को ठीक दस साल बाद यानी 2007 में मंजूरी मिल पाई। लेकिन राजनीति और नौकरशाही से कोलाज वाले तंत्र की वजह से इस परियोजना पर ठोस रूप में काम नहीं हो पाया। प्रधानमत्री ने तो सीधे-सीधे इसके लिए इस दौरान केंद्र और महाराष्ट्र में काबिज रही कांग्रेस सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। प्रधानमंत्री के अनुसार, कांग्रेस की सरकारों ने इस परियोजना में ना तो दिलचस्पी दिखाई, ना ही कोई कार्रवाई नहीं की। यह बात और है कि मोदी सरकार ने इस परियोजना के कामकाज में तेजी लाने की दिशा आगे बढ़ी है। उम्मीद की जा रही है कि जिस तरह दूसरी योजनाएं तेज गति से तय वक्त या उससे पहले पूरी हुईं, उसी गति और तेजी से नवी मुंबई हवाई अड्डा परियोजना भी पूरा होगी।
देश के आर्थिक विकास की नींव नरसिंह राव ने साल 1991 में रखी थी, जिनके सहयोग से तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की गति को तेज किया था। देश की आर्थिकी को लाइसेंस राज और लालफीताशाही से दूर किया था। उस बदलाव का असर भी दिखा। लेकिन राजकाज की कमान जिस तंत्र के हाथों में रही, वह पुरानी मानसिकता से ग्रस्त रहा। प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता संभालने के बाद इस मानसिकता को थोड़ी लगाम जरूर लगी है। यह बात और है कि इस मोर्चे पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
‘देरी, विकास का दुश्मन है’ के प्रधानमंत्री के नए मंत्र का ही असर कहा जाएगा कि आर्थिक मोर्चे पर तय लक्ष्यों को हासिल करना आसान हुआ। आर्थिक मोर्चे पर बदलाव का ही असर है कि कुछ ही वर्षों में दुनिया की 11वें नंबर से भारतीय अर्थव्यवस्था पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है। दुनियाभर की विकास दर को कोरोना की महामारी ने बुरी तरह प्रभावित किया। आज की दुनिया के विकास का ईंधन एक तरह से जैविक ऊर्जा यानी पेट्रोल और डीजल है। अरब देशों के आपसी संघर्ष और रूस-यूक्रेन युद्ध के बावजूद भारत को पेट्रोलियम आपूर्ति में बाधा न पड़ना, चीन और अमेरिका के बीच जारी व्यापार युद्ध के बावजूद भारत की विकास दर में कमी ना आना, एक तरह के भारत के संकल्प का नतीजा है। बेशक इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है, लेकिन प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इसका श्रेय युवाओं को दिया। उन्होंने कहा कि यह अभूतपूर्व बढ़ोतरी युवाओं की महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं से प्रेरित है। इससे दुनिया का भारत के प्रति नजरिया बदला है। पहले दुनिया मानती थी कि भारत धीरे-धीरे और लगातार प्रगति करेगा, उसी दुनिया को भारत अलग नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री के शब्दों में कहें तो दुनिया अब देश को ‘तेज और निडर भारत’ के रूप में देख रही है। परियोजनाओं में देरी को विकास के दुश्मन के तौर पर प्रधानमंत्री का स्थापित करना एक तरह से राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं को संबोधित करना है। विश्व गुरू बनने की आकांक्षा हो या आर्थिक या दूसरी तरह वैश्विक महाशक्ति बनना, इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इसी सोच को हर स्तर पर ना सिर्फ आगे बढ़ाना होगा, बल्कि उसे राष्ट्रीय प्राथमिकता के तौर पर भी विकसित किया जाना होगा।
सबको पता है कि कई बार राजनीतिक कारणों से पहले की सरकारों की लाई या उनके द्वारा शुरू या जारी की गई योजनाएं लटका दी जाती हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। कई बार नौकरशाही भी इस डिले, डिनाय और डिस्ट्राय यानी टालना, इनकार करना और खारिज करने के लिए जिम्मेदार होती है। आजादी के पचहतर साल बीतने के बावजूद नौकरशाही में यह मानसिकता बनी हुई है। अब भी तंत्र ऐसे ढेर सारे तत्व हैं, जो योजनाओं को लटकाने और टालने में भरपूर रूचि लेते हैं। एक तरह से ऐसी सोच वाला डीएनए तंत्र में फैला हुआ है। सरकारी तंत्र से जिनका रोजाना पल्ला पड़ता है, अक्सर वे भी फिनमैन जैसी ही सोच रखते हैं। आर्थिक मोर्चे पर भारत की सफलता दर अगर बढ़ी है तो उसके पीछे निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री की दृष्टि है।
उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक हैं।
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)