लखनऊ में बीएसपी का सियासी तीर मुस्लिम-दलित-पिछड़ा जोड़ से बदलेगा 2027 का गणित?

बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2027 की तैयारी को लेकर जो कदम उठाया है, उसने प्रदेश की सियासत में एक नई हलचल पैदा कर दी है। मायावती ने लखनऊ जैसे वीआईपी इलाके में आठ विधानसभा सीटों पर 16 नए संयोजक नियुक्त कर न केवल संगठन को धार देने की कोशिश की है, बल्कि इस बार के सामाजिक समीकरण से यह साफ हो गया है कि बीएसपी अब पूरी तरह से मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्गों के गठजोड़ पर दांव लगाने जा रही है। लखनऊ में जिन नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है, उनमें आधे मुस्लिम समाज से आते हैं। बीएसपी के पुराने संगठन ढांचे को देखने वाले जानते हैं कि मायावती ने पहले कभी इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम चेहरों को एक साथ इतनी अहम जिम्मेदारी नहीं सौंपी थी। लेकिन बदलते सियासी हालात, लोकसभा चुनाव में बीएसपी के कमजोर प्रदर्शन और प्रदेश में नए सामाजिक समीकरण ने मायावती को एक बार फिर पुराने सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले की याद दिला दी है।
लखनऊ में बक्शी का तालाब से लेकर मोहनलालगंज तक जिन विधानसभा क्षेत्रों में संयोजक बनाए गए हैं, वहां पार्टी ने बेहद सोच-समझ कर हर सीट पर दो संयोजकों का फॉर्मूला लागू किया है। उदाहरण के तौर पर बक्शी का तालाब सीट पर इमामुद्दीन और अमित गौतम की जोड़ी बनाई गई है। इसी तरह लखनऊ पूर्वी में मोहम्मद अनीस और रामेश्वर दयाल को जिम्मेदारी मिली है। लखनऊ पश्चिम में जिया उल हक और सज्जन लाल गौतम को संयोजक बनाया गया है। मलिहाबाद सीट पर आरसी अहमद और यशपाल वर्मा की जोड़ी बनाई गई है। लखनऊ मध्य में कमरुल हसन और राजेश गौतम को मैदान में उतारा गया है, जबकि लखनऊ कैंट में मोहम्मद हबीब और देवेश कुमार गौतम को जिम्मेदारी दी गई है। मोहनलालगंज सीट पर आसिफ मोहम्मद और कन्हैयालाल रावत को संयोजक बनाकर पार्टी ने यह साफ संकेत दे दिया है कि इस बार मायावती का पूरा फोकस सामाजिक संतुलन साधने और बूथ स्तर तक अल्पसंख्यक मतदाताओं को जोड़ने पर है।
इसके साथ ही पार्टी ने एक और बड़ा दांव खेलते हुए पिछड़ा, दलित और मुस्लिम भाईचारा कमेटी का गठन किया है। यह कमेटी उन इलाकों में जाकर दलितों और पिछड़ों को जोड़ने के साथ-साथ मुस्लिम समाज को भी बीएसपी के पक्ष में लामबंद करेगी, जहां पार्टी का आधार कमजोर हुआ है। पार्टी नेताओं का दावा है कि यह भाईचारा कमेटी गांव-गांव, मोहल्ले-मोहल्ले जाकर लोगों से संवाद करेगी, छोटी-छोटी बैठकें होंगी और बीएसपी को फिर से एक विकल्प के तौर पर मजबूत करने की कोशिश होगी।दरअसल, मायावती का यह दांव अचानक नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी को जिस तरह से वोट शेयर में नुकसान हुआ, उससे पार्टी नेतृत्व ने साफ तौर पर यह समझा कि महज दलित वोट बैंक के भरोसे सत्ता में वापसी संभव नहीं है। मुस्लिम वोट बैंक पर सपा की मजबूत पकड़ और कांग्रेस की सक्रियता ने बीएसपी को बैकफुट पर धकेल दिया था। लेकिन मायावती जानती हैं कि अगर दलित वोट बैंक के साथ मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग उनके साथ मजबूती से खड़ा हो जाए, तो उत्तर प्रदेश में सियासी समीकरण बदलते देर नहीं लगेगी। यही वजह है कि लखनऊ जैसे शहरी और मिश्रित आबादी वाले इलाके में आधे संयोजकों को मुस्लिम समाज से चुनकर एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की गई है।
सियासी जानकार मानते हैं कि मायावती का यह दांव यूपी की विपक्षी राजनीति में नया समीकरण खड़ा कर सकता है। सपा को जहां मुस्लिम वोट बैंक पर सबसे ज्यादा भरोसा है, वहीं बीएसपी की इस पहल ने सपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। मायावती पहले ही साफ कर चुकी हैं कि वह किसी भी दल से गठबंधन नहीं करेंगी और अपने दम पर मैदान में उतरेंगी। ऐसे में अगर बीएसपी मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने में सफल होती है, तो सपा का वोट बैंक कमजोर होगा और भाजपा को अप्रत्यक्ष फायदा मिल सकता है। लेकिन मायावती के करीबी कहते हैं कि पार्टी किसी को फायदा पहुंचाने के लिए नहीं बल्कि अपनी खोई जमीन वापस पाने के लिए यह रणनीति बना रही है।पार्टी ने उन नेताओं को संयोजक बनाकर मैदान में उतारा है, जिनकी अपने इलाके में सामाजिक पकड़ मजबूत है और जिनका जुड़ाव जमीनी स्तर पर है। खास बात यह है कि हर विधानसभा सीट पर पिछड़े, दलित और मुस्लिम समाज से संयोजकों को जोड़कर यह भी सुनिश्चित किया गया है कि कोई एक तबका नाराज न हो। पार्टी की योजना है कि ये संयोजक अपने-अपने इलाके में लोगों से संपर्क करेंगे, छोटी बैठकें करेंगे और बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत करेंगे। इसके लिए उन्हें हर महीने प्रगति रिपोर्ट देने का भी निर्देश दिया गया है।
मायावती के इस फैसले के बाद सियासी हलकों में यह चर्चा भी तेज हो गई है कि क्या बीएसपी फिर से 2007 का सोशल इंजीनियरिंग मॉडल दोहराने की तैयारी में है। उस वक्त मायावती ने ब्राह्मण-दलित समीकरण से सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी। लेकिन इस बार ब्राह्मण समाज की जगह मुस्लिम और पिछड़े वर्ग को जोड़ने की कोशिश हो रही है। बदलते वक्त में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह समीकरण बीएसपी के लिए वोट में तब्दील हो पाएगा या नहीं।लखनऊ की आठ विधानसभा सीटों पर यह प्रयोग अगर सफल होता है तो पार्टी इसे प्रदेश के अन्य जिलों में भी लागू करेगी। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बीएसपी इस बार सिर्फ कागजों पर संगठन नहीं बनाएगी, बल्कि हर इलाके में संयोजकों की जवाबदेही तय की जाएगी। अगर किसी क्षेत्र में कमजोर प्रदर्शन होता है तो संयोजकों से जवाब मांगा जाएगा। यही वजह है कि इस बार संयोजकों के चयन में संगठनात्मक क्षमता के साथ सामाजिक समीकरण को भी बराबर तवज्जो दी गई है।
प्रदेश में अगले दो साल के भीतर ही चुनाव होने हैं और ऐसे में बीएसपी की यह तैयारी दिखाती है कि पार्टी अब पीछे हटने के मूड में नहीं है। भाजपा और सपा के बीच सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने के लिए बीएसपी हर वह दांव चल रही है जिससे वह खुद को मजबूत विकल्प के तौर पर पेश कर सके। मायावती जानती हैं कि अगर मुस्लिम वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा सपा से छिटककर उनके खेमे में आता है तो प्रदेश की राजनीति में बड़ा बदलाव संभव है।सियासी पंडितों की राय है कि बीएसपी की यह रणनीति तभी काम आएगी जब जमीन पर संगठन मजबूत होगा और संयोजक व भाईचारा कमेटी सही मायने में लोगों के बीच जाकर काम करेगी। वरना कागजों पर बनी यह कमेटी भी पुराने फार्मूलों की तरह महज एक दिखावा बनकर रह जाएगी। लेकिन जिस तरह से मायावती ने खुद लखनऊ में बैठकर संयोजकों की सूची जारी की और भाईचारा कमेटी को सक्रिय करने का ऐलान किया है, उससे यह साफ है कि बीएसपी अब बिना शोर किए अपनी खोई ताकत वापस पाने के मिशन में जुट गई है।अब यह देखना दिलचस्प होगा कि दलित-मुस्लिम-पिछड़ा समीकरण का यह नया फार्मूला मायावती को एक बार फिर सत्ता के करीब ले जा पाता है या नहीं, लेकिन इतना तय है कि लखनऊ में उठाया गया यह कदम यूपी की सियासत में नए गठजोड़ की कहानी जरूर लिखने वाला है।