लालू का अखिलेश वाला दांव बिहार में बेअसर, कांग्रेस के तेवर से बैकफुट पर आरजेडी
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर घमासान मचा है। लालू यादव का सिंबल वाला दांव क्यों फेल हुआ? कांग्रेस और आरजेडी के बीच तनातनी की असली वजह क्या है? जानिए बिहार की राजनीति में मजबूरी बनाम महत्वाकांक्षा की यह दिलचस्प कहानी।


बिहार की सियासी जमीन पर चुनाव का बिगुल बज चुका है। नवंबर में दो चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो गई है, लेकिन महागठबंधन यानी इंडिया ब्लॉक में सीटों के बंटवारे की गांठ अभी तक नहीं सुलझी। आरजेडी, कांग्रेस, वीआईपी और वाम दलों के बीच खींचतान चल रही है। ऐसे में आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने एक चाल चली, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कांग्रेस पर दबाव बनाने के लिए अपनाई थी। लालू ने दिल्ली से पटना लौटते ही आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवारों को सिंबल बांट दिया, लेकिन तेजस्वी यादव के पटना पहुंचते ही खेल पलट गया। सिंबल वापस ले लिए गए। यह घटना बताती है कि बिहार की राजनीति में दांव-पेंच कितने जटिल हो चुके हैं। क्या लालू का यह दांव कांग्रेस पर दबाव बनाने में नाकाम रहा? या फिर आरजेडी की अपनी मजबूरियां हैं जो इसे बैकफुट पर ले आईं?
क्या हुआ था: लालू ने बांटे सिंबल, तेजस्वी ने वापस लिए
पहले समझते हैं कि क्या हुआ। सोमवार देर शाम लालू यादव ने मनेर से मौजूदा विधायक भाई वीरेंद्र, मसौढ़ी (आरक्षित) से रेखा पासवान, मटिहानी से बोगो सिंह, परबत्ता से डॉ. संजीव कुमार, हथुआ से राजेश कुमार और संदेश से दीपू सिंह उर्फ दीपू राणावत को आरजेडी का सिंबल सौंपा। यह कदम सीधे-सीधे कांग्रेस पर प्रेशर बनाने का था, क्योंकि महागठबंधन में सीट शेयरिंग का ऐलान अभी नहीं हुआ था। लालू का इरादा था कि जैसे 2024 में अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को टिकट बांटकर कांग्रेस को बैकफुट पर धकेल दिया था, वैसे ही यहां भी कांग्रेस को झुकना पड़ेगा। उस समय उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए सपा और कांग्रेस के बीच सीट बंटवारे में देरी हो रही थी। अखिलेश ने बिना इंतजार किए अपनी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए, यहां तक कि कुछ ऐसी सीटों पर भी जहां कांग्रेस दावा कर रही थी। नतीजा? कांग्रेस को सपा के फॉर्मूले पर राजी होना पड़ा।
तेजस्वी की वापसी और बैकफुट पर आई आरजेडी
लेकिन बिहार में कहानी अलग निकली। तेजस्वी यादव दिल्ली से पटना लौटे तो आधी रात को उन उम्मीदवारों को राबड़ी आवास पर बुलाया गया जिन्हें सिंबल मिला था। सभी ने फॉर्म-बी वापस कर दिया। क्यों? क्योंकि कांग्रेस ने इस कदम पर नाराजगी जताई। दिल्ली में तेजस्वी और कांग्रेस नेताओं की बैठक के दौरान यह मुद्दा उठा। कांग्रेस ने साफ कहा कि जब तक सीट शेयरिंग फाइनल नहीं होती, तब तक सिंबल बांटना गठबंधन की भावना के खिलाफ है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि कांग्रेस ने अब तक अपनी कोई लिस्ट जारी नहीं की है और न ही सिंबल दिए हैं। तेजस्वी को लगा कि अगर कांग्रेस नाराज हो गई तो महागठबंधन टूट सकता है, और यह आरजेडी के लिए बड़ा झटका होगा। आखिरकार, बिहार चुनाव आरजेडी के लिए जिंदगी-मौत का सवाल है। अगर महागठबंधन सत्ता में आता है तो मुख्यमंत्री की कुर्सी तेजस्वी यादव को मिलेगी, न कि किसी कांग्रेस नेता को।
लालू का दांव क्यों नहीं चला?
यहां सवाल उठता है कि लालू का दांव क्यों नहीं चला? वजह साफ है। 2024 में अखिलेश की प्रेशर पॉलिटिक्स इसलिए कामयाब हुई क्योंकि कांग्रेस की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत गठबंधन चाहिए था, इसलिए उन्होंने झुकना पड़ा। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में हालात उलट हैं। यहां कांग्रेस की मजबूरी कम है। कांग्रेस जानती है कि आरजेडी को सत्ता चाहिए, और तेजस्वी को सीएम बनना है। इसलिए कांग्रेस ने अपना दांव चला और आरजेडी को झुकना पड़ा। सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस 61 सीटों पर अड़ी हुई है, जबकि आरजेडी 135 सीटें खुद रखना चाहती है। वीआईपी को 16 सीटें और वाम दलों को बाकी। लेकिन कुछ सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस जिताऊ उम्मीदवार चाहती है, और आरजेडी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं।
इतिहास दोहराता है: पहले भी हुआ है सीट बंटवारे पर घमासान
बिहार की राजनीति में यह पहली बार नहीं है जब गठबंधन में ऐसी खींचतान हो रही हो। 2020 के विधानसभा चुनाव में भी महागठबंधन में सीट शेयरिंग को लेकर विवाद हुआ था। तब कांग्रेस को 70 सीटें मिलीं, लेकिन उसका स्ट्राइक रेट महज 27 फीसदी रहा। इस बार कांग्रेस ज्यादा सतर्क है। वह वोटर अधिकार यात्रा की सफलता के बाद ज्यादा सीटें और जिताऊ वाली मांग रही है। वहीं, आरजेडी प्रमुख लालू यादव अब सीट बंटवारे की कमान खुद संभाले हुए हैं। उन्होंने कांग्रेस से उम्मीदवारों की सूची मांगी है, ताकि बातचीत आगे बढ़े। लेकिन तेजस्वी की दिल्ली यात्रा भी बेनतीजा रही। वह कांग्रेस नेताओं से मिले, लेकिन राहुल गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात नहीं हुई। बैठक से निकलते हुए तेजस्वी ने कहा कि ऐसे हालात में गठबंधन आगे नहीं बढ़ सकता। फिर भी, आरजेडी बैकफुट पर आई और सिंबल वापस ले लिए।
महागठबंधन बनाम एनडीए: तैयार कौन है?
यह पूरी घटना महागठबंधन की कमजोरी को उजागर करती है। एक तरफ एनडीए में सीट शेयरिंग का ऐलान हो चुका है। जेडीयू और बीजेपी 101-101 सीटों पर लड़ेंगी, चिराग पासवान की एलजेपी को 29 सीटें मिलीं। नीतीश कुमार एनडीए के चेहरे हैं, और गिरिराज सिंह जैसे नेता कह रहे हैं कि एनडीए की नीति, नेतृत्व और नीयत सब तय है। वहीं, महागठबंधन में नेतृत्व का सवाल भी उलझा है। कांग्रेस ने साफ कर दिया कि तेजस्वी यादव आरजेडी के सीएम फेस हैं, महागठबंधन के नहीं। पप्पू यादव जैसे नेता तो आरजेडी पर तंज कस रहे हैं कि पहले वह मास पार्टी थी, अब टेक्निकल चीजों में फंसी है।
जनता के सवाल: विकास और मुद्दे पीछे छूटे
बिहार के आम मतदाता के लिए यह सब क्या मतलब रखता है? चुनाव विकास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर होना चाहिए, लेकिन सियासी दांव-पेंच में ये मुद्दे गौण हो जाते हैं। तेजस्वी यादव ने कहा है कि महागठबंधन में सब ठीक है, जल्द सीट बंटवारे का ऐलान होगा। कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक भी शाम को होनी है। लेकिन नामांकन की डेडलाइन करीब है, और अगर देरी हुई तो उम्मीदवारों को तैयारी का समय नहीं मिलेगा। लालू-तेजस्वी को अब कांग्रेस को मनाना होगा, क्योंकि गठबंधन टूटा तो आरजेडी अकेले मैदान में उतरने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस भी जानती है कि बिना आरजेडी के बिहार में उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन वह अपनी शर्तों पर समझौता चाहती है।
मजबूरी बनाम महत्वाकांक्षा की लड़ाई
अंत में, बिहार की जनता को चाहिए एक मजबूत विपक्ष जो एनडीए को टक्कर दे। लेकिन अगर महागठबंधन इसी तरह उलझा रहा तो फायदा एनडीए को मिलेगा। लालू का दांव भले फेल हो गया, लेकिन यह सिखाता है कि राजनीति में मजबूरी और महत्वाकांक्षा का खेल हमेशा चलता रहता है। अब देखना है कि दिल्ली से पटना तक की यह सियासी जंग किस करवट बैठती है। क्या सीट शेयरिंग आज तय हो जाएगी, या फिर और ड्रामा बाकी है? बिहार की जनता इंतजार में है।
				
					


