इजरायल से दोस्ती की रेस में कजाखस्तान समेत मुस्लिम देश, फिलिस्तीन मुद्दा पीछे
कजाखस्तान का अब्राहम समझौते में जुड़ना अमेरिका और इजरायल के लिए राजनीतिक सफलता दिखा रहा है, लेकिन वास्तविकता में यह केवल औपचारिकता है। देश पहले से ही इजरायल के साथ व्यापार, रक्षा और तकनीकी सहयोग में सक्रिय है। मुस्लिम देशों में आर्थिक हित अब धार्मिक भावनाओं से आगे हो रहे हैं, जिससे फिलिस्तीन का मुद्दा पीछे छूट रहा है।


वंदे मातरम पर बेवजह उठे विवाद के बाद अब चर्चा का केंद्र मध्य एशिया बन गया है, जहां मुस्लिम बहुल कजाखस्तान के अब्राहम समझौते से जुड़ने की घोषणा ने नई राजनीतिक हलचल पैदा कर दी है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए दावा किया कि यह कदम इजरायल और मुस्लिम देशों के बीच नई शुरुआत है। लेकिन भू-राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि कजाखस्तान का यह जुड़ाव वास्तव में प्रतीकात्मक कदम है, क्योंकि इस देश के इजरायल से रिश्ते पहले से ही तीन दशकों से कायम हैं। यह समझौता जहां अमेरिकी कूटनीति के लिए एक उपलब्धि की तरह पेश किया जा रहा है, वहीं आलोचक इसे केवल राजनीतिक प्रचार का हिस्सा मानते हैं।अब्राहम समझौते की शुरुआत वर्ष 2020 में हुई थी। इसका उद्देश्य था कि मुस्लिम और अरब देश इजरायल के साथ औपचारिक संबंध स्थापित करें। इस पहल के तहत पहले चरण में कुछ इस्लामिक देशों ने इजरायल को मान्यता दी थी। इस समझौते में शामिल होने वाले देशों को इजरायल से रक्षा तकनीक, कृषि और ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग का लाभ मिलता है, साथ ही अमेरिका से निवेश और सामरिक सहायता भी। इस पूरे ढांचे का मकसद यह दिखाना है कि मुस्लिम दुनिया में इजरायल के प्रति दशकों पुरानी शत्रुता अब कम हो रही है।
लेकिन कजाखस्तान के मामले में स्थिति अलग है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही इस देश ने इजरायल के साथ अपने कूटनीतिक और व्यापारिक संबंध बनाए रखे हैं। दोनों देशों के बीच वर्ष 1998 में व्यापारिक समझौता हुआ था, और 2010 में कजाखस्तान ने इजरायली नागरिकों के लिए वीज़ा नियमों में छूट दी थी। वर्ष 2016 में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कजाखस्तान की यात्रा की थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि दोनों देशों के बीच संवाद और सहयोग पहले से मौजूद था। ऐसे में ट्रंप का यह दावा कि यह एक “नया अध्याय” है, वस्तुतः केवल राजनीतिक प्रस्तुति भर है।कजाखस्तान एक ऊर्जा संपन्न देश है, और उसकी विदेश नीति हमेशा से संतुलन पर आधारित रही है। वह रूस, चीन, यूरोप और अमेरिका सभी से रिश्ते बनाए रखता है। ऐसे में इजरायल से सहयोग बढ़ाना उसकी रणनीतिक नीति का स्वाभाविक हिस्सा माना जा सकता है। यह कदम उस क्षेत्रीय कूटनीति का हिस्सा है, जिसमें छोटे मुस्लिम देश अपने आर्थिक हितों के लिए वैश्विक शक्तियों के साथ तालमेल बनाना चाहते हैं।
इस समझौते का एक पहलू यह भी है कि इसमें शामिल मुस्लिम देशों को फिलिस्तीन के मुद्दे को पीछे छोड़ना पड़ता है। समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देश इजरायल को पूर्ण मान्यता देते हैं, जबकि फिलिस्तीन को लेकर उनका रुख लचीला हो जाता है। यह शर्त अब मुस्लिम राजनीति में बड़ा विमर्श बन चुकी है। कजाखस्तान जैसे देशों के लिए यह व्यावहारिक फैसला है, लेकिन इससे फिलिस्तीन की कूटनीतिक ताकत और कमजोर होती जा रही है। इससे यह भी साबित होता है कि इस्लामिक देशों में अब विचारधारा से ज्यादा प्राथमिकता आर्थिक और सामरिक हितों को दी जा रही है।ट्रंप का यह ऐलान ऐसे समय में आया जब उन्हें अमेरिका में चुनावी दौर से पहले एक अंतरराष्ट्रीय उपलब्धि की जरूरत थी। उन्होंने इसे अपने नेतृत्व की “शांति पहल” बताया, लेकिन कई विश्लेषक इसे राजनीतिक पीआर का हिस्सा मानते हैं। दरअसल, ट्रंप प्रशासन के दौरान ही अब्राहम समझौते की शुरुआत हुई थी, और अब कजाखस्तान को जोड़कर इसे एक बार फिर जीवित दिखाने की कोशिश की जा रही है। हालांकि वास्तविकता यह है कि कजाखस्तान पहले से ही इजरायल के साथ व्यापार, कृषि, रक्षा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सक्रिय साझेदार रहा है।
हाल के वर्षों में कजाखस्तान और इजरायल के बीच व्यापारिक संबंध लगातार बढ़े हैं। 2023 तक दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार लगभग 370 मिलियन डॉलर के आसपास पहुंच गया। ऊर्जा, खनिज, रक्षा उपकरण और तकनीकी सेवाओं में दोनों देशों के बीच सहयोग तेज़ी से बढ़ा है। कजाखस्तान को इजरायल से उन्नत सिंचाई तकनीक, कृषि उपकरण और रक्षा प्रणाली मिलती है, जबकि इजरायल को कजाखस्तान से तेल और खनिज संसाधन मिलते हैं। यह परस्पर हित पहले से मौजूद था, इसलिए अब्राहम समझौते में इसका जुड़ना केवल औपचारिक विस्तार है।मुस्लिम देशों में इजरायल को लेकर धारणा बदल रही है। पहले जहां इजरायल विरोध राजनीतिक पहचान का हिस्सा माना जाता था, अब वही देश आर्थिक साझेदारी और तकनीकी सहयोग के लिए तैयार हैं। यह बदलाव इसलिए भी आया है क्योंकि तेल आधारित अर्थव्यवस्थाएं अब विविध निवेश और तकनीक पर निर्भर हो रही हैं। मध्य एशिया के देशों को इजरायल की कृषि तकनीक, साइबर सुरक्षा और रक्षा क्षेत्र में विशेषज्ञता की जरूरत है। ऐसे में यह जुड़ाव एक व्यावहारिक नीति का हिस्सा है, न कि वैचारिक परिवर्तन का।
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा असर यह है कि अब्राहम समझौता अमेरिकी प्रभाव का नया माध्यम बनता जा रहा है। अमेरिका इस फ्रेमवर्क के ज़रिए न सिर्फ इजरायल की स्थिति मजबूत कर रहा है, बल्कि उन मुस्लिम देशों को भी अपने नज़दीक ला रहा है जो रूस और चीन के प्रभाव में हैं। कजाखस्तान की भौगोलिक स्थिति इस दृष्टि से बेहद अहम है क्योंकि यह मध्य एशिया में रणनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण केंद्र है।फिलिस्तीन के सवाल पर अब्राहम समझौते की आलोचना लगातार हो रही है। इस समझौते से जुड़ने वाले देशों ने फिलिस्तीन की मांगों को पीछे छोड़कर अपने हितों को प्राथमिकता दी है। कजाखस्तान के इस कदम से भी यही संदेश गया है कि आर्थिक अवसर अब धार्मिक भावनाओं से ऊपर रखे जा रहे हैं। यह मुस्लिम दुनिया के लिए एक नया यथार्थ है, जहां “सिद्धांत से पहले सहयोग” की नीति हावी होती दिख रही है।
कुल मिलाकर, कजाखस्तान का अब्राहम समझौते से जुड़ना कोई ऐतिहासिक मोड़ नहीं, बल्कि एक रणनीतिक औपचारिकता है। यह उस पुराने रिश्ते को नया नाम देने जैसा है जो पहले से स्थापित था। इससे ट्रंप को एक राजनीतिक सफलता दिखाने का अवसर जरूर मिला, लेकिन भू-राजनीतिक स्तर पर इससे कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। यह घटना मुस्लिम देशों में इजरायल के प्रति बदलते नजरिए की झलक तो देती है, मगर फिलिस्तीन के संघर्ष को और हाशिए पर ले जाती है। इसीलिए कहा जा सकता है कि यह समझौता शांति की दिशा में नहीं, बल्कि व्यावहारिक कूटनीति की दिशा में उठाया गया कदम है।



