जावेद अख्तर क्यों चिढ़े अफगान विदेश मंत्री मुत्तकी के स्वागत को लेकर?
प्रख्यात शायर जावेद अख्तर ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी के भव्य स्वागत पर कड़ी नाराजगी जताई, तो महिला पत्रकारों पर भी तंज कस दिया। लेकिन सवाल यह है क्या कूटनीति कभी सिर्फ नैतिकता के मोहताज होती है, या यह सिर्फ भारत पर आरोप लगाने का एक नया बहाना है?


अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी का हालिया भारत दौरा सुर्खियों में छाया हुआ है। 9 अक्टूबर को दिल्ली पहुंचे मुत्तकी का यह दौरा 2021 में तालिबान के सत्ता हथियाने के बाद पहला उच्च-स्तरीय संपर्क था। विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से उनकी मुलाकातों में आर्थिक सहयोग, व्यापार बढ़ाने और काबुल में भारत के तकनीकी मिशन को पूर्ण दूतावास का दर्जा देने की बात हुई। लेकिन इस दौरे ने कुछ लोगों के बीच गहरी नाराजगी पैदा कर दी। खासकर मशहूर शायर और गीतकार जावेद अख्तर ने एक्स पर एक तीखा पोस्ट लिखकर अपनी शर्मिंदगी जताई। उन्होंने मुत्तकी को ‘दुनिया के सबसे खराब आतंकी समूह’ का प्रतिनिधि बताया और देवबंद में उनके भव्य स्वागत पर सवाल उठाए। अख्तर का कहना था कि जो लोग हर मंच पर आतंकवाद के खिलाफ चिल्लाते हैं, वे ही तालिबान को सम्मान दे रहे हैं। यह सुनकर सवाल उठता है- क्या कूटनीति हमेशा आदर्शों पर चलती है, या राष्ट्रीय हित कभी-कभी कठोर फैसलों की मांग करते हैं?
जावेद अख्तर की नाराजगी समझ में आती है। वे एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष विचारक हैं, जो महिलाओं के अधिकारों और मानवता के पक्षधर रहे हैं। तालिबान की नीतियां- जैसे छठी कक्षा के बाद लड़कियों की शिक्षा पर रोक, महिलाओं पर सख्त पाबंदियां- किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक हैं। संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक समुदाय ने भी तालिबान को इसी कारण मान्यता नहीं दी। अख्तर ने 13 अक्टूबर को एक्स पर लिखा कि देवबंद जैसे संस्थान, जो खुद को उदार इस्लाम का प्रतिनिधित्व करते हैं, मुत्तकी को माल्यार्पण और तालियों से स्वागत कर रहे हैं। उनका इशारा साफ था- केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर। लेकिन क्या यह आलोचना पूरी तरह सही है? अख्तर को देवबंद के फैसले पर सवाल उठाने का पूरा हक है, लेकिन कूटनीति को इतना सीधा नापना शायद आसान नहीं। भारत ने कभी तालिबान को औपचारिक मान्यता नहीं दी। यह दौरा व्यावहारिकता का हिस्सा है, जहां पड़ोसी देश के साथ संबंध बनाए रखना जरूरी हो जाता है।
दरअसल, मुत्तकी का दौरा सिर्फ एक मेहमाननवाजी नहीं था। इसमें भारत-अफगानिस्तान के बीच पुराने रिश्तों को नई जान फूंकने की कोशिश दिखी। भारत ने हमेशा अफगानिस्तान को मानवीय मदद भेजी है- गेहूं, दवाइयां, खाद्य सामग्री। 2021 के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। मुत्तकी ने खुद कहा कि वे भारत के साथ संबंध मजबूत करना चाहते हैं। चर्चा में चाबहार बंदरगाह का जिक्र हुआ, जो ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक माल पहुंचाने का जरिया बनेगा। अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों में भारतीय निवेश की बात हुई। वाघा बॉर्डर से व्यापार बढ़ाने का प्लान है। ये कदम भारत के आर्थिक हितों को मजबूत करेंगे। लेकिन सबसे बड़ा फायदा? पाकिस्तान को काउंटर करना। मुत्तकी ने भारत की धरती से ही जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा बताया और पहलगाम आतंकी हमले की निंदा की। पाकिस्तान ने इस पर आपत्ति जताई, लेकिन यह साफ संकेत है कि तालिबान अब इस्लामाबाद की कठपुतली नहीं रहा।
पाकिस्तान का जिक्र आया तो याद आती है लंबी लिस्ट उसके गुनाहों की। बामियान की बुद्ध मूर्तियां तोड़ना, भारतीय इंजीनियरों की हत्या, कंधार हाईजैकिंग- ये सब तालिबान के काले अध्याय हैं। आलोचक यही याद दिलाते हैं कि भारत किस आधार पर संबंध बहाल कर रहा है? लेकिन अगर इसी तर्क पर चलें तो पाकिस्तान को तो मान्यता ही न दें। 1947 से लेकर आज तक पाकिस्तान ने कितने हमले करवाए? मुंबई 26/11, पठानकोट, पुलवामा- लिस्ट लंबी है। फिर भी भारत ने कभी संबंध पूरी तरह तोड़े नहीं। क्यों? क्योंकि कूटनीति राष्ट्रीय सुरक्षा और हितों पर टिकी होती है। अमेरिका ने भी तालिबान से बात की, बगदादी को मारने में उनकी मदद ली। रूस, चीन, तुर्की तो तालिबान को मान्यता दे चुके हैं। अगर भारत पीछे हटेगा तो खाली जगह कौन भर लेगा? पाकिस्तान तो पहले ही अफगानिस्तान को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा है।
देवबंद का स्वागत भी इसी बहस का हिस्सा बन गया। 12 अक्टूबर को दारुल उलूम देवबंद पहुंचे मुत्तकी का स्वागत भव्य था। उप-कुलपति मौलाना अबुल कासिम नोमानी और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने उनका अभिवादन किया। मुत्तकी क्लास में साधारण छात्र बन बैठे, हदीस का पाठ सुना। बड़ी भीड़ ने तालियां बजाईं। अख्तर ने इसे शर्मनाक बताया, लेकिन क्या यह तालिबान की नीतियों का समर्थन था? देवबंद एक गैर-सरकारी धार्मिक संस्था है। उनका स्वागत धार्मिक-सांस्कृतिक रिश्ते का प्रतीक हो सकता है। इतिहास गवाह है कि देवबंद का अफगानिस्तान से पुराना नाता है। 1915 में काबुल में बनी भारत की पहली निर्वासित सरकार का कनेक्शन देवबंद से था। राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में यह सरकार बनी, जिसमें देवबंद के उलेमा शामिल थे। मुत्तकी ने भी इस ऐतिहासिक रिश्ते का जिक्र किया। देवबंद ने तालिबान की कुछ नीतियों, जैसे शिक्षा पर रोक, की आलोचना भी की है। तो इसे पूर्ण समर्थन मानना गलत होगा। शायद देवबंद ने इसे एक मौका देखा- तालिबान को उदार इस्लामी विचारों से प्रभावित करने का। भारत सरकार की तरह ही, देवबंद भी व्यावहारिक कदम उठा रहा है।
कूटनीति में अक्सर ‘लोहे को लोहा ही काटता है’ का सिद्धांत काम आता है। जावेद अख्तर का ही डायलॉग है यह, जो 1975 की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘शोले’ में सलीम-जावेद ने लिखा। फिल्म में ठाकुर गब्बर सिंह जैसे डाकू से बदला लेने के लिए दो शातिर चोरों- वीरू और जय- की मदद लेता है। ठाकुर रिटायर्ड पुलिसवाला है, लेकिन पुलिस पर भरोसा न करके चोरों को चुनता है। ठीक वैसे ही, भारत तालिबान को पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है। पाकिस्तान ने तालिबान को ‘प्लांट’ किया था अफगानिस्तान में, लेकिन अब हालात उलट चुके हैं। मुत्तकी ने कहा कि पाकिस्तान के खिलाफ उनका संघर्ष पूरा हो गया है। अफगानिस्तान ने भारत को ‘जिगरी दोस्त’ बताया, जबकि पाकिस्तान को ‘जानी दुश्मन’। यह बदलाव भारत की रणनीति का नतीजा है। अगर भारत न करेगा तो चीन या रूस कर लेंगे। अमेरिका तो ट्रंप के समय पाकिस्तानी नेताओं के साथ घूमता रहा, भले ही पाक आतंकी राष्ट्र हो। सीरिया के विवादास्पद नेताओं से अमेरिका ने संबंध बनाए। कतर जैसे देश, जो आतंकी गुटों को पनाह देते हैं, उनके साथ दुनिया का व्यापार चलता है। तो भारत का अफगानिस्तान से बात करना क्यों गलत?
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक पुरानी बहस है- डी फैक्टो बनाम डी जूर। डी जूर मतलब कानूनी मान्यता, जो तालिबान को अभी नहीं मिली। लेकिन डी फैक्टो यानी वास्तविकता- तालिबान अफगानिस्तान पर शासन कर रहा है। इतिहास में कई उदाहरण हैं। 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद दुनिया ने सालों तक नई सरकार को मान्यता नहीं दी। फिर भी, धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की क्रांति के बाद अमेरिका ने दशकों तक दुश्मनी निभाई, लेकिन बाकी दुनिया ने संबंध बनाए। अफगानिस्तान में भी यही हो रहा है। तालिबान की पर्सनल नीतियां गलत हैं, लेकिन इन्हें आधार बनाकर संबंध तोड़ना व्यावहारिक नहीं। अमेरिका, चीन, रूस सबके पास मानवाधिकारों के दाग हैं- इराक, उइगर, यूक्रेन। क्या भारत इनसे नाता तोड़े? नहीं न। तो अफगानिस्तान से दूरी क्यों?
यह दौरा भारत की विदेश नीति का नया अध्याय है। जहां आदर्शों को हितों के साथ जोड़ा जा रहा है। जावेद अख्तर जैसे बुद्धिजीवियों की आलोचना जरूरी है, क्योंकि वे समाज को आईना दिखाते हैं। लेकिन आम आदमी को समझना होगा कि दुनिया काले-सफेद नहीं, ग्रे शेड्स से भरी है। भारत का यह कदम पड़ोसी देशों के साथ संतुलन बनाए रखेगा। पाकिस्तान को सबक सिखाएगा, अफगानिस्तान को विकास का रास्ता दिखाएगा। और हां, देवबंद जैसे संस्थान भी इसमें भूमिका निभा सकते हैं- संवाद से। आखिर, शांति की राह हमेशा आसान नहीं होती, लेकिन जरूरी तो है। जावेद अख्तर का डायलॉग याद रखें- लोहे को लोहा ही काटता है। भारत ठीक यही कर रहा है। उम्मीद है, समय के साथ यह रणनीति फल देगी, और अफगानिस्तान की मिट्टी फिर से हरी-भरी हो जाएगी।
				
					


