देश में 94 साल तक क्यों रुकी रही जातीय जनगणना, अब मोदी सरकार कैसे हुई तैयार?

मोदी सरकार ने देश की अगली जनगणना में जातिवार गिनती कराने का फैसला किया है. बुधवार को पीएम मोदी की अध्यक्षता में हुए सीसीपीए बैठक में जातिगत जनगणना कराने पर फाइनल मुहर लगी. केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बैठक में लिए गए फैसले की जानकारी देते हुए कहा कि मोदी सरकार अगली जनगणना के साथ जातीय आधार पर भी लोगों की गणना की जाएगी. सरकार के इस कदम से देश में किस जाति के कितने लोग हैं और सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से उनकी स्थिति क्या है, ये जानकारी आजाद भारत में पहली बार सामने आएगी.
आजादी के बाद भले ही पहली बार देश में जातीय आधार पर गणना होने जा रही है, लेकिन उससे पहले जातीय आधार पर जनगणना होती रही है. देश में आखिरी बार जातिगत जनगणना गणना 1931 में कराई गई थी. इसके बाद से हर दस साल पर जनगणना होती थी, लेकिन जाति के आधार पर लोंगों की गिनती नहीं होती थी. इस तरह से देश में 94 सालों तक जातिगत जनगणना रुकी हई थी, देश में कांग्रेस और बीजेपी दोनों की सरकारें आईं, लेकिन जातीय की गणना नहीं हुई. ऐसे में कर्नाटक, बिहार और तेलंगाना में राज्य सरकारों के द्वारा जातिगत सर्वे कराने के बाद मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना के लिए तैयार हुई है?
जनगणना और जातीय जनगणना क्या है?
देश या किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की गणना और उनके बारे में विधिवत रूप से सूचना प्राप्त करना जनगणना कहलाती है. भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना की जाती है. आजादी से पहले साल 1853 में नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविंसेज में अंग्रेजों ने पहली जनगणना कराई थी, लेकिन देशभर में 1872 में जनगणना कराई गई. इसके बाद ही अंग्रेजों ने जातिवार गणना के बारे में विचार-विमर्श किया. तब के जनगणना प्रशासक रहे एच एच रिजले की अगुवाई में फोकस किया गया कि पहले यह तय हो कि किसे किस जाति का माना जाए. रिजले ने वर्ण व्यवस्था और पेशे के आधार पर अलग-अलग जाति समूह बनाए, जिनमें कई जातियों को शामिल कर लिया.
अंग्रेजों ने 1881 भारत में पहली बार जातिगत जनगणना कराई गई. इस तरह 1881 से लेकर 1931 तक भारत में जितनी भी जनगणना हुई है, उसमें लोगों के साथ सभी जातियों की गणना की जाती रही. साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते उसे प्रकाशित नहीं किया गया. इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आजाद हो चुका था. इस तरह देश में आखिरी बार जातिगत जनगणना के आंकड़े 1931 के ही मिलते हैं.
आजादी के बाद 1951 से 2011 तक सात बार और भारत में कुल 15 बार जनगणना की जा चुकी है. जनगणना में अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना की जाती है, लेकिन अन्य दूसरी जातियों की गिनती नहीं होती है. जातिगत जनगणना का अर्थ है भारत की जनसंख्या का जातिवार गणना यानी जनगणना के दौरान जाति आधार पर सभी लोगों की गिनती की जाए. इससे देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते हैं, उनकी शैक्षिणिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी का आंकड़ा जुटाया जाता है. आजादी के बाद से देश में सिर्फ जनगणना कराने की प्रक्रिया रही है, लेकिन जातीय आधार पर लोंगी की गणना नहीं की जाती रही है.
जातिगत जनगणना पर क्यों लगी रोक?
1941 की जनगणना जातीय आधारित हुई थी, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए थे. हालांकि, 1941 की जनगणना में मुस्लिम लीग ने मुस्लिम समुदाय से अपनी-अपनी जाति को लिखवाने के बजाय इस्लाम धर्म लिखवाने पर जोर दिया था. इसी तरह से हिंदू महासभा ने हिंदुओं से जाति के बजाय हिंदू धर्म लिखवाने की बात कही थी. इसके चलते ही मामला अटक गया था और जातिगत जनगणना के आंकड़े देश के सामने नहीं आ सके थे.
1947 में आजादी के साथ ही देश दो हिस्सो में धार्मिक आधार पर बंट चुका था. ऐसे में सामाजिक तौर देश में किसी का बंटवारा न हो सके, इसके लिए अंग्रेजों की जनगणना नीति में बदलाव कर दिया. विधान सभा की बैठक में भी जातिगत जनगणना का सभी ने विरोध किया था. 1950 में संविधान लागू होने के बाद देश में पहली बार 1951 में जनगणना हुई, जिसमें अल्पसंख्यक, एससी-एसटी के लोगों के आंकड़े जुटाए गए. जातियों की गिनती की मांग को कांग्रेस ने उस समय ब्रिटिश सरकार का समाज तोड़ने का षडयंत्र करार देते हुए ठुकरा दिया था.
94 साल कास्ट सेंसेस पर लगी रही रोक
जाति जनगणना पर संसद में पहली अनौपचारिक चर्चा 1951 में हुई, जिसमें सभी ने विरोध किया था. इस तरह से 1931 के बाद देश में जातिगत जनगणना नहीं कराई गई. आजादी के बाद जातिगत विभाजन बढ़ने के डर से जातिगत जनगणना पर लगी रोक, अभी तक जारी रही. 1951 से बाद से देश में जितनी भी जनगणना हुई हैं, उसमें अल्पसंख्यक समुदाय के साथ-साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की गिनती की जाती रही हैं. ओबीसी और सामान्य वर्ग को लोगों की गिनती नहीं की जाती थी.
हालांकि, साल 2011 में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने पूरे देश में कास्ट सेंसस के लिए कदम उठाया था, तब सोशियो इकनॉमिक कास्ट सेंसस (SECC) कराया गया, लेकिन केंद्र में सरकार बदल जाने के चलते उसके आंकड़े जारी नहीं हुए थे. अब मोदी सरकार ने अगली जनगणना में जातिवार गिनती कराने का फैसला किया है. इस तरह से देश में किस जाति के कितने लोग देश में हैं, यह जानकारी आजाद भारत में पहली बार सामने आएगी. क्योंकि इस तरह की आखिरी गणना आजादी से पहले 1931 में कराई गई थी.
मोदी सरकार का कैसे बदला स्टैंड?
केंद्र की मोदी सरकार जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में नहीं थी. कांग्रेस के अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने जनगणना के साथ जाति सर्वे कराया, लेकिन केंद्र में सरकार के बदल जाने के चलते आंकड़े जारी नहीं हो सके. मोदी सरकार ने जून 2014 में लोकसभा को बताया था कि SECC का काम पूरा होने में और 3 महीने लगेंगे. 2018 में मोदी सरकार ने लोकसभा को बताया कि ‘कास्ट डेटा की प्रोसेसिंग में कुछ गलतियों का पता चला है.’
साल 2021 में मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया और कहा कि एससी, एसटी के सिवा बाकी लोगों के बीच कास्ट सेंसस कराना प्रशासनिक रूप से बेहद मुश्किल और जटिल है. इसके बाद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में 20 जुलाई 2021 को जवाब देते हुए कहा था कि फिलहाल केंद्र सरकार की अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गणना कराने के लिए तैयार नहीं है. बीजेपी जातिगत जनगणना की मांग को नकारती रही है और उसे देश को जातियों में बांटने की साजिश करार देती रही है, लेकिन विपक्षी दलों के प्रेशर पॉलिटिक्स और मौजूदा सियासी माहौल को देखते हुए संघ और बीजेपी को अपना स्टैंड बदलना पड़ा. इस तरह से सरकार तैयार हुई.
विपक्षी दलों ने बनाया सियासी माहौल
कांग्रेस सत्ता से बाहर होने के बाद और अपनी खिसकते जनाधार को जोड़ने के लिए जातिगत जनगणना को सियासी मुद्दा बनाना शुरू किया. यूपीए सरकार के दौरान कराए गए कास्ट सेंसेस के आंकड़े को सार्वजानिक करने की मांग उठानी शुरू की. कांग्रेस से लेकर सपा, बसपा, आरजेडी, डीएमके और भाकपा(माले) तक जातीय जनगणना का समर्थन कर दिया. कुछ समय बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे अपने राजनीतिक अभियान का बड़ा मुद्दा बना दिया. राहुल गांधी इस मुद्दे को लेकर मोदी सरकार और बीजेपी को दलित-ओबीसी विरोधी कठघरे में खड़े करते नजर आते. ऐसे में सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी जातिगत जनगणना को लेकर मुखर नजर आने लगे.
संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार जनगणना का मामला केंद्र सरकार का है, लेकिन बिहार से लेकर कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने अपने-अपने राज्य में जातिगत जनगणना कराकर उसके आंकड़े सार्वजनिक कर दिए. राज्य सरकारें संवैधानिक रूप से ये जातिगत जनगणना नहीं करा सकते थे, लिहाजा इन्होंने इसे कास्ट सर्वे का नाम दिया. बिहार की नीतीश सरकार ने 2023 में जातिगत सर्वे कराया. इसी तरह तेलंगाना में भी कांग्रेस सरकार ने 2023 में सामाजिक,आर्थिक एवं जातिगत सर्वे कराया. ऐसे ही कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार ने 2015 में कास्ट सर्वे कराया था.
कांग्रेस ने अपने शासित राज्य कर्नाटक और तेलंगाना में जातिगत जनगणना कराकर मोदी सरकार पर दबाव बनाने का काम किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मौजूदा स्थिति को देखते हुए जातिवार जनगणना कराने पर अपनी सहमति के संकेत दिए थे. इसके बाद से ही माने जाने लगा था कि देर-सबेर मोदी सरकार रजामंद हो जाएगी. बिहार के सियासी मिजाज को भांपते हुए मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने के मुद्दे को कैबिनेट से मंजूरी दे दी. इस तरह से 1931 के बाद देश में पहली बार राष्ट्रीय जनगणना के साथ लोगों की जातिवार गिनती होगी, लेकिन कब तक होगी. इसकी तारीख तय नहीं है.