गंभीर खतरे की घंटी है प्लास्टिक एवं माइक्रोप्लास्टिक

ललित गर्ग

चिंता की बात यह भी है कि विकासशील देशों में सरकारें रोटी, कपड़ा व मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के जुगाड़ में लगे रहने और गरीबी की समस्या से जूझते हुए, स्वास्थ्य के उन उच्च गुणवत्ता मानकों को वरीयता नहीं दे पाती, जो अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप हों। शोधकर्ताओं ने केरल में दस प्रमुख ब्रांडों के बोतलबंद पानी को अध्ययन का विषय बनाया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्लास्टिक की बोतल के पानी का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रतिवर्ष 153 हजार प्लास्टिक कण प्रवेश कर जाते हैं। निश्चय ही यह चिंता का विषय है। हालांकि, सर्वेक्षण के लिये केरल को ही चुनना और बोतलबंद पानी बेचने वाली भारतीय कंपनियों को चुनने को लेकर कई सवाल पैदा हो सकते हैं। पिछली सदी में जब प्लास्टिक के विभिन्न रूपों का अविष्कार हुआ, तो उसे विज्ञान और मानव सभ्यता की बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया था, अब जब हम न तो इसका विकल्प तलाश पा रहे हैं और न इसका उपयोग ही रोक पा रहे हैं, तो क्यों न इसे विज्ञान और मानव सभ्यता की सबसे बड़ी असफलता एवं त्रासदी मान लिया जाए?

वैज्ञानिकों ने पाया है कि प्लास्टिक हम सबके शरीर में किसी-न-किसी के रूप में पहुंच रहा है। कैसे पहुंच रहा है, इसे जानने के लिए हमें पिछले दिनों अमेरिका के कोलोराडो में हुए एक अध्ययन के नतीजों को समझना होगा। अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे ने यहां बारिश के पानी के नमूने जमा किए। ये नमूने सीधे आसमान से गिरे पानी के थे, बारिश की वजह से सड़कों या खेतों में बह रहे पानी के नहीं। जब इस पानी का विश्लेषण हुआ, तो पता चला कि लगभग 90 फीसदी नमूनों में प्लास्टिक के बारीक कण या रेशे थे, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इन्हें आंखों से नहीं देख पाते। देखने में आ रहा है कि कथित आधुनिक समाज एवं विकास का प्रारूप अपने को कालजयी मानने की गफलत पाले हुए है और उसकी भारी कीमत माइक्रोप्लास्टिक के कहर के रूप में चुका रहा है। लगातार पांव पसार रही माइक्रोप्लास्टिक की तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर मोदी सरकार ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाये जा सकते? 

पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुके जल और वायु प्रदूषण से बचने के लिए विश्वभर में नए-नए उपाय किए जा रहे हैं। जबकि प्लास्टिक प्रदूषण की उससे भी ज्यादा खतरनाक एवं जानलेवा स्थिति है, यह एक ऐसी समस्या बनकर उभर रही है, जिससे निपटना अब भी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। कुछ समय पहले एक खबर ऐसी भी आई थी कि एक चिड़ियाघर के दरियाई घोड़े का निधन हुआ, तो उसका पोस्टमार्टम करना पड़ा, जिसमें उसके पेट से भारी मात्रा में प्लास्टिक की थैलियां मिलीं, जो शायद उसने भोजन के साथ ही निगल ली थीं। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि प्लास्टिक सिर्फ हमारे आस-पास रहने वाले अबोध जानवरों के पेट में ही पहंुच रहा है, तो आप गलत हैं।

अध्ययन में पता चला था कि लगभग सभी ब्रांडेड बोतल बंद पानी में भी प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण मौजूद हैं। कनाडाई वैज्ञानिकों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक कणों पर किए गए विश्लेषण में चौंकाने वाले नतीजे मिले हैं। विश्लेषण में पता चला है कि एक वयस्क पुरुष प्रतिवर्ष लगभग 52000 माइक्रोप्लास्टिक कण केवल पानी और भोजन के साथ निगल रहा है। इसमें अगर वायु प्रदूषण को भी मिला दें तो हर साल करीब 1,21,000 माइक्रोप्लास्टिक कण खाने-पानी और सांस के जरिए एक वयस्क पुरुष के शरीर में जा रहे हैं। दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बोतलबंद पानी बेचने का बड़ा प्रतिस्पर्धी कारोबार है। आम आदमी के मन में सवाल उठ सकते हैं कि कहीं भारतीय बोतलबंद पेय बाजार को तो निशाने पर नहीं लिया जा रहा है। दुनिया के बड़े कारोबारी देश भारत के बड़े उपभोक्ता बाजार पर ललचाई दृष्टि रखते हैं। इसके बावजूद मुद्दा गंभीर है और हमारी सरकारों को अपने स्तर पर गंभीर जांच-पड़ताल करनी चाहिए। 

अमेजन एवं फिलीपकार्ट जैसे आनलाइन व्यवसायी प्रतिदिन 7 हजार किलो प्लास्टिक पैकेजिंग बैग का उपयोग करते हैं। सरकारों के पास किसी भी नियम या अभियान को अमल में लाने के लिये सारे संसाधन उपलब्ध हैं, इन कम्पनियों को भी प्लास्टिकमुक्त भारत के घेरे में लेने के लिये कठोर कदम उठाने चाहिए। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश में सिंगल यूज प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध के बावजूद ये खुलेआम बिक क्यों रहा है? दुकानदारों व उपभोक्ताओं को तो इसके उपयोग पर दंडित करने का प्रावधान है, लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पादित करने वाले उद्योगों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन प्लास्टिक के दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आंख मूंद लेते हैं। यह संकट हमारी जिम्मेदार नागरिक के रूप में भूमिका की जरूरत भी बताता है। 

– ललित गर्ग

लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

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