दलित-ठाकुर के बाद अब यादव-ब्राह्मण का समीकरण, अखिलेश की सियासत में दिखी दुविधा

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर जातीय ध्रुवीकरण की चपेट में है और इस बार केंद्र में हैं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव। 2017 में सत्ता से बाहर होने के बाद से अखिलेश लगातार नए-नए जातीय प्रयोग कर रहे हैं। कभी ठाकुर बनाम ब्राह्मण, कभी पिछड़े बनाम अगड़े, तो अब यादव बनाम ब्राह्मण। लेकिन इन सब प्रयोगों के बीच उनकी सबसे बड़ी दुविधा यही है कि किस जाति को साधें और किससे दूरी बनाए रखें। 2024 के लोकसभा चुनाव में पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक समीकरण के दम पर सपा ने 37 सीटें जीतकर अपनी स्थिति मजबूत की, लेकिन अब अखिलेश उसी पीडीए को लेकर विरोधाभास में घिरते दिख रहे हैं। सपा के पोस्टर में PDA का ‘A’ कभी अल्पसंख्यक होता है तो कभी अगड़ा यानी ब्राह्मण या ठाकुर। यही दुविधा उनकी राजनीतिक रणनीति की सबसे कमजोर कड़ी बनती जा रही है।

इटावा में कथावाचक के साथ हुई बदसलूकी की घटना को अखिलेश ने पूरी ताकत से उठाया और उसे यादव अस्मिता से जोड़ दिया। कथावाचकों को पार्टी कार्यालय बुलाकर न सिर्फ सम्मानित किया गया, बल्कि उसे भाजपा द्वारा प्रायोजित साजिश बताया गया। अखिलेश का दावा है कि यह सब कुछ सवर्णों के नाम पर पिछड़ों को दबाने की कोशिश है, जिसे सपा बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन यहीं सवाल उठता है कि क्या यह सामाजिक न्याय की लड़ाई है या जातीय ध्रुवीकरण की एक नई स्क्रिप्ट? क्योंकि जब सपा एक वर्ग विशेष के साथ खुलकर खड़ी होती है, तो उसके सामाजिक समरसता के दावे खोखले प्रतीत होते हैं।

बीजेपी ने इसे तत्काल भांपते हुए सपा पर करारा हमला बोला। लखनऊ में सपा प्रमुख के जन्मदिन पर भाजयुमो नेताओं द्वारा लगाए गए पोस्टर में अखिलेश यादव को जातिवादी, माफियाओं का संरक्षक और ब्राह्मण-ठाकुर विरोधी बताया गया। पोस्टर में यह भी आरोप लगाया गया कि समाजवादी पार्टी पिछड़ों को सिर्फ वोट बैंक समझती है और दलितों का उपयोग करती है। सपा कार्यकर्ताओं ने पोस्टर फाड़े लेकिन बीजेपी ने यह संदेश जनता के बीच पहुंचा दिया कि अखिलेश की राजनीति सिर्फ कुछ खास जातियों तक सीमित रह गई है।

समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने कोर वोट बैंक यानी यादव और मुस्लिम मतदाताओं को साथ रखते हुए दलितों, ब्राह्मणों और ठाकुरों को भी जोड़ना चाहती है। लेकिन जब भी कोई विवाद होता है, सपा यादव समाज के साथ खड़ी नजर आती है और सवर्ण समुदाय खुद को उपेक्षित महसूस करता है। यही कारण है कि ठाकुर और ब्राह्मण मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भाजपा के साथ खड़ा होता जा रहा है। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली जीत के पीछे यही सामाजिक ध्रुवीकरण सबसे बड़ा कारण रहा।

अखिलेश यादव बार-बार दावा करते हैं कि उनकी पार्टी जातिवादी नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की समर्थक है। लेकिन जब वह इटावा में कथावाचकों के मुद्दे को सिर्फ यादव अस्मिता का मामला बनाकर उठाते हैं और ब्राह्मणों की पीड़ा को दरकिनार करते हैं, तो संदेश साफ जाता है कि सपा एक पक्षीय राजनीति कर रही है। यही बात भाजपा बार-बार दोहरा रही है और इस नैरेटिव को गांव-गांव तक पहुंचाने की कोशिश कर रही है।

दरअसल, समाजवादी पार्टी एक असमंजस में है। पार्टी को समझ नहीं आ रहा कि वह किस जाति को प्राथमिकता दे और किसे पीछे रखे। यदि ब्राह्मणों के पक्ष में खड़े होते हैं तो यादव नाराज हो जाते हैं, और यदि यादवों के साथ खड़े होते हैं तो ब्राह्मण और ठाकुर दूर हो जाते हैं। यही वजह है कि अखिलेश की पीडीए रणनीति, जो उन्हें 2024 में लाभ पहुंचा गई, अब उलटी पड़ने लगी है। बीजेपी इस रणनीतिक उलझन को भली-भांति समझ चुकी है और अखिलेश को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।

इतिहास गवाह है कि उत्तर प्रदेश में जो भी पार्टी जातीय संतुलन साधने में सफल रही है, वही सत्ता में पहुंची है। भाजपा ने गैर-यादव पिछड़ों, गैर-जाटव दलितों और सवर्णों का ऐसा गठबंधन तैयार किया है जो चुनाव-दर-चुनाव और मजबूत होता जा रहा है। सपा इसके जवाब में यादव-मुस्लिम-दलित गठबंधन तैयार करना चाहती है, लेकिन उसमें ब्राह्मणों और ठाकुरों के लिए कोई स्पष्ट जगह नहीं बन पा रही। यदि पीडीए में ‘A’ का मतलब अगड़ा है, तो पार्टी को खुलकर ब्राह्मणों के पक्ष में खड़ा होना होगा। लेकिन इसके लिए उसे अपने कोर यादव वोट को नाराज करने का खतरा उठाना पड़ेगा।

इटावा का विवाद भले ही एक स्थानीय मामला हो, लेकिन उसने 2027 के विधानसभा चुनाव की दिशा तय करने की भूमिका निभा दी है। यह केवल कथावाचकों के अपमान का मुद्दा नहीं, बल्कि यह सवाल है कि यूपी की राजनीति सामाजिक न्याय के नाम पर एक और जातीय ध्रुवीकरण की ओर बढ़ेगी या एक नया संतुलन स्थापित करेगी। अखिलेश यादव का यह प्रयोग यदि सही दिशा में नहीं गया तो यह पीडीए फॉर्मूला 2027 में भारी पड़ सकता है। वहीं, भाजपा इसे सवर्ण समाज के आत्मसम्मान और कानून व्यवस्था से जोड़कर पेश कर रही है।

यही कारण है कि बीजेपी इस विवाद को सिर्फ सपा बनाम ब्राह्मण नहीं, बल्कि कानून बनाम अराजकता और सम्मान बनाम तुष्टिकरण के फ्रेम में बदलना चाहती है। भाजपा जानती है कि जाति के नाम पर अपमानित महसूस करने वाला कोई भी समुदाय लंबे समय तक चुप नहीं रहता और चुनाव में उसका जवाब जरूर देता है। यही समीकरण 2017 में देखा गया जब सवर्ण और गैर-यादव पिछड़ों ने भाजपा को सत्ता की सीढ़ी चढ़ाई। यही गणित 2022 में दोहराया गया और अब 2027 की पिच पर भी भाजपा उसी पुराने, लेकिन असरदार फार्मूले के सहारे उतरने को तैयार है।

अखिलेश यादव के सामने अब समय कम और चुनौती बड़ी है। उन्हें तय करना होगा कि वह पीडीए को सचमुच एक समावेशी सामाजिक गठबंधन बनाना चाहते हैं या केवल कोर वोट बैंक की राजनीति करना चाहते हैं। ब्राह्मणों और ठाकुरों को केवल पोस्टर में जगह देने से काम नहीं चलेगा, उन्हें राजनीतिक संरक्षण और प्रतिनिधित्व भी देना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो सपा का विस्तार सिमट सकता है और भाजपा को एक और अवसर मिल जाएगा नरेटिव सेट करने का।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह लड़ाई केवल सीटों की नहीं, बल्कि पहचान की है। यह तय करेगा कि सामाजिक न्याय के नाम पर खड़ी होने वाली ताकतें सभी वर्गों को जोड़ने में सफल होती हैं या नहीं। फिलहाल तो तस्वीर यही कहती है कि अखिलेश यादव की पीडीए रणनीति में जितना दम है, उससे ज्यादा उसमें भ्रम है और यही भ्रम 2027 की सबसे बड़ी राजनीतिक लड़ाई में निर्णायक साबित हो सकता है।

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