कांग्रेस का ‘राहे-मोहब्बत’ मिशन शुरू दौसा में गहलोत-पायलट की मुलाकात ने बदला माहौल

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
राजस्थान की राजनीति में वह तस्वीर जो कभी कल्पना से परे मानी जाती थी, अब धीरे-धीरे हकीकत का रूप लेती दिख रही है। एक समय एक-दूसरे के खिलाफ सियासी मोर्चा खोले खड़े अशोक गहलोत और सचिन पायलट अब एक मंच पर, एक तस्वीर में और एक स्वर में कांग्रेस की एकजुटता का संदेश देते नजर आ रहे हैं। इस बदलाव की झलक दौसा में उस वक्त देखने को मिली, जब पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट की 25वीं पुण्यतिथि पर आयोजित सर्वधर्म सभा में गहलोत और पायलट साथ दिखे। गर्मजोशी से गले मिलते, एक-दूसरे का हाथ थामते और सार्वजनिक रूप से स्नेह व सहयोग के भाव प्रदर्शित करते दोनों नेताओं ने न केवल राजस्थान कांग्रेस को नई ऊर्जा दी, बल्कि भाजपा के रणनीतिकारों के माथे पर भी बल ला दिए।

राजस्थान की सियासत में गहलोत और पायलट की खींचतान किसी रहस्य से कम नहीं रही। 2018 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के साथ ही दोनों नेताओं के बीच सत्ता और सम्मान की लड़ाई शुरू हो गई थी। गहलोत तीसरी बार मुख्यमंत्री बने और पायलट को उपमुख्यमंत्री पद देकर शांत करने की कोशिश की गई। लेकिन पायलट न संतुष्ट हुए, न शांत। 2020 में उन्होंने बगावती तेवर अपनाते हुए 20 विधायकों के साथ दिल्ली-हरियाणा की सीमाओं पर डेरा डाल दिया। गहलोत सरकार गिरते-गिरते बची और कांग्रेस नेतृत्व को बीच में आकर सुलह करानी पड़ी। इसके बाद दोनों नेताओं के बीच तल्खियां खुलकर सामने आने लगीं। मंचों पर दूरी, बयानों में तंज और कार्यकर्ताओं में भ्रम कांग्रेस की पूरी राजनीतिक संरचना इन मतभेदों की कीमत चुकाती रही।

2023 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जब कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर से जूझ रही थी, तब पायलट ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी ही सरकार के खिलाफ यात्रा निकाल दी। गहलोत ने पलटवार करते हुए पायलट पर भाजपा से साठगांठ तक के आरोप लगा डाले। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस बुरी तरह हार गई और भाजपा सत्ता में लौट आई। कांग्रेस की हार के बाद दोनों गुटों में बयानबाजी और तेज हो गई थी। लगने लगा था कि अब इन दोनों नेताओं के बीच सियासी मेल असंभव है।मगर अब, महज़ कुछ महीनों बाद, तस्वीर पूरी तरह पलट चुकी है। राजेश पायलट की पुण्यतिथि के बहाने गहलोत और पायलट जिस तरह साथ आए, वह महज एक श्रद्धांजलि सभा नहीं, बल्कि एक बड़ी सियासी पटकथा का संकेत था। पायलट ने खुद गहलोत से मुलाकात कर उन्हें कार्यक्रम में आमंत्रित किया और गहलोत ने भी पूरे सम्मान और आत्मीयता के साथ न केवल निमंत्रण स्वीकार किया, बल्कि कार्यक्रम में शामिल होकर स्पष्ट संदेश दे दिया कि पुराने गिले-शिकवे अब दरकिनार हो चुके हैं। कार्यक्रम में दोनों नेताओं की शारीरिक भाषा से लेकर संवाद और सहयोग का भाव इस बदलाव को पूरी तरह रेखांकित करता है।

भीड़ में पीछे रह गए अशोक गहलोत को जब सचिन पायलट ने हाथ पकड़कर आगे लाया, तो यह सिर्फ एक शिष्टाचार नहीं था, यह वह दृश्य था जिसने मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया। प्रदर्शनी में दोनों नेता साथ-साथ राजेश पायलट के जीवन की झलकियां देख रहे थे एक आगे तो दूसरा पीछे। यह दृश्य प्रतीक बन गया कांग्रेस की उस नयी कोशिश का, जिसमें अनुभव और ऊर्जा, परिपक्वता और जोश, परंपरा और नवाचार एक साथ मिल रहे हैं।गहलोत ने मंच से अपने भाषण में कहा कि “हम तो कभी अलग थे ही नहीं, यह तो मीडिया है जो खबरें बनाता है।” जबकि सचिन पायलट ने भी संयमित स्वर में कहा कि “अब अतीत को पीछे छोड़कर भविष्य की ओर देखना चाहिए।” उन्होंने राहुल गांधी के उस वादे की भी याद दिलाई कि कांग्रेस में 50% पद युवा नेताओं को दिए जाएंगे। यह वक्तव्य केवल सैद्धांतिक बयान नहीं था, बल्कि यह संकेत था कि पायलट अब कांग्रेस नेतृत्व से अपने हक की शांतिपूर्ण मांग कर रहे हैं और संघर्ष के बजाय संवाद का रास्ता अपना रहे हैं।

इस मेलजोल का असर सिर्फ एक मंच तक सीमित नहीं रहा। कार्यक्रम में राजस्थान कांग्रेस के लगभग सभी बड़े चेहरे मौजूद थे। 66 में से 47 विधायक, 9 सांसद, दर्जनों पूर्व मंत्री और संगठन के शीर्ष नेता एक मंच पर दिखे। कांग्रेस ने इस सभा को एकजुटता और शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बना लिया। सियासी विश्लेषकों के मुताबिक, यह दृश्य न केवल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को नया हौसला देगा, बल्कि भाजपा को भी एक रणनीतिक चुनौती पेश करेगा।अब बड़ा सवाल यही है क्या यह मेलजोल स्थायी रहेगा या यह सिर्फ एक मौके के लिए रचा गया सियासी नाटक है? कई लोग मानते हैं कि यह ‘सियासी सीजफायर’ है, जिसमें दोनों नेता अगले लोकसभा चुनाव तक अपने मतभेदों को स्थगित करने पर सहमत हुए हैं। मगर कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि पार्टी नेतृत्व अब सचिन पायलट को राज्य स्तर पर बड़ी भूमिका देने की तैयारी कर रहा है, जिससे युवा चेहरा आगे लाकर भाजपा के खिलाफ नई रणनीति बनाई जा सके।यह भी दिलचस्प है कि पायलट ने मंच से राजस्थान को 2029 की राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ते हुए कहा कि अगर हम राजस्थान जीतते हैं तो देश में भाजपा को हराना मुमकिन है। यह बयान बताता है कि अब राजस्थान कांग्रेस सिर्फ प्रदेश की सत्ता की ओर नहीं देख रही, बल्कि वह खुद को राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक बनाने की दिशा में सोच रही है।

भाजपा के लिए यह घटनाक्रम निस्संदेह चिंता का कारण है। 2023 में उसकी जीत का बड़ा कारण कांग्रेस की आंतरिक कलह थी। लेकिन अब अगर कांग्रेस गहलोत और पायलट के नेतृत्व में संगठित होती है, तो 2028 के विधानसभा चुनाव में मुकाबला काफी कड़ा हो सकता है। भाजपा को अब अपने राजनीतिक नैरेटिव में बदलाव करना होगा, क्योंकि कांग्रेस ने अपनी कमजोरी को ताकत में बदलने का संकेत दे दिया है।फिलहाल कांग्रेस के इस सियासी मेल ने एक स्पष्ट संदेश दिया है अगर मतभेदों को दरकिनार कर साझा नेतृत्व के तहत एकजुटता दिखाई जाए, तो पार्टी की साख भी लौट सकती है और सत्ता भी। अब देखने वाली बात यह होगी कि यह नजदीकियां सिर्फ मंच तक सीमित रहती हैं या आने वाले महीनों में सचमुच कांग्रेस का सांगठनिक पुनर्गठन और रणनीतिक नवीनीकरण होता है। क्योंकि अगर ऐसा हुआ, तो राजस्थान की राजनीति में कांग्रेस फिर से अपनी खोई हुई ताकत वापस पा सकती है और भाजपा के लिए यह किसी झटके से कम नहीं होगा।

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