सीएम की कुर्सी जनता की नब्ज कैसे लालू ने राजनीति को बना दिया जनसंवाद का मंच?

बिहार की राजनीति में आज भी उनकी जबरदस्त धमक है. चारा घोटाले की सजा के ग्रहण और बीमारी के बीच भी लालू प्रसाद यादव राज्य की राजनीति का प्रभावी चेहरा हैं. केंद्र में गठबंधन सरकारों के दौर में वे कभी किंग मेकर हुआ करते थे. उनकी शैली, संवादों और भाषणों की दूर तलक चर्चा और नकल हुआ करती थी. बेशक अब वे उस प्रभावी स्थिति में नहीं हैं लेकिन बिहार में उनकी उपस्थिति का ताप बरकरार है. राज्य विधानसभा चुनाव की दस्तक तेज है. थोड़े से समय जब राजद और नीतीश कुमार का गठबंधन था, के अलावा लालू परिवार बिहार की सत्ता से लम्बे अरसे से दूर है. वे अपना राजनीतिक उत्तराधिकार पुत्र तेजस्वी यादव को सौंप चुके हैं. लेकिन पर्दे के पीछे रहते हुए भी पार्टी के निर्णायक रणनीतिकार लालू ही हैं. तेजस्वी को राज्य की सबसे महत्वपूर्ण मुख्यमंत्री कुर्सी पर देखने की उनकी चाहत अभी तक पूरी नहीं हो सकी है. लेकिन इस बार वे कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते. अपनी विशिष्ट शैली से लालू यादव ने बिहार में मजबूत जनाधार तैयार किया है. उनकी पार्टी राजद की वो सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है. लालू यादव के जन्मदिन के मौके पर पढ़िए उनके दिलचस्प राजनीतिक सफ़र के किस्से.

सभा छोड़ चले गए थे पुलिस में भर्ती होने
सार्वजनिक जीवन में लालू का प्रवेश छात्र राजनीति के जरिए हुआ. लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का उनका कौशल उसी दौर में विकसित हो गया था. दिलचस्प हाव-भाव और भाषण की मसखरी शैली ने उन्हें जल्दी ही छात्रों में लोकप्रिय बना दिया था. लेकिन राजनीति को लेकर वे तब इतने गम्भीर नहीं थे. पटना विश्वविद्यालय में छात्रों की एक सभा में उनकी तलाश थी लेकिन वे वहां से गायब थे. उन्हें खोजते उस दौर के उनके एक नजदीकी साथी नरेंद्र सिंह को मिलने पर उन्होंने बताया था कि वे पुलिस भर्ती के इम्तहान में शामिल होने चले गए थे.नरेंद्र के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, “क्योंकि अगर आपको पुलिस में नौकरी मिल जाती है तो वे आपको मुफ्त यूनिफॉर्म,बूट और साथ में वेतन भी देते हैं.” लालू उस परीक्षा में फेल हो गए थे. रेस के दौरान चोट भी लग गई थी. नरेंद्र सिंह से उन्होंने कहा था कि नौकरी मिल जाती तो मुझे राजनीति बगैरह नहीं करनी पड़ती.लालू पुलिस की नौकरी पाने में सफल नहीं हो सके थे लेकिन सरकारी नौकरी की उनकी चाहत बरकरार थी.

कुछ पइसा-वइसा, दीजिए अभी तुनतुनिया नहीं बजा है
पुलिस की भर्ती में नाकाम होने के बाद छठवें दशक के आखिरी दौर में लालू एक बार फिर छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए थे. खासतौर से पिछड़े वर्ग के छात्रों का वे अच्छा समर्थन जुटाने लगे थे. संकर्षण ठाकुर की किताब “बंधु बिहारी” में पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नागेश्वर यादव ने लालू के छात्र जीवन को यह कहते हुए याद किया है, “हालांकि हम जानते थे कि उसकी पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी कभी नहीं रही. बल्कि उसकी दिलचस्पी ऐसी गतिविधियों में रहती थी, जिससे कक्षाओं में बाधा पड़े. फिर भी उसमें कोई बात थी, जिसकी वजह से वह अच्छा लगता था. वह हर समय हंसी-मजाक किया करता था. उससे नाराज होना मुश्किल होता था. वह मुस्कराते हुए कक्षा में आता और बहिष्कार की मांग करता और फिर शिक्षक की ओर मुड़कर कहता कुछ पइसा-वइसादीजिए अभी तुनतुनिया नहीं बजा है.” कहने का उसका मतलब होता था कि उसे भूख लगी है और उसका पेट खाली है.

पशु चिकित्सा महाविद्यालय में बन गए क्लर्क
बेशक लालू पुलिस की नौकरी पाने में सफल नहीं हो सके थे लेकिन सरकारी नौकरी की उनकी चाहत बरकरार थी. इस बीच 1967,68 और 69 में तीन बार पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महामंत्री निर्वाचित हो चुके थे. लेकिन 1970 में अध्यक्ष पद का चुनाव वे कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार से हार गए थे. इस हार ने उन्हें निराश कर दिया. एक बार फिर उन्होंने नौकरी हासिल करने की कोशिश शुरू कर दी. इस बार वे सफल रहे. उन्हें पटना के पशु चिकित्सालय महाविद्यालय में क्लर्क की नौकरी मिल गई. लेकिन जल्दी ही उन्होंने फिर वापसी की. बाद में राजनीति में उनके प्रबल विरोधी बने सुशील मोदी ने 1973 में उन्हें छात्र संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया. लालू ने नौकरी छोड़ दी. लॉ कॉलेज में प्रवेश लिया. अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए. सुशील मोदी महामंत्री चुने गए थे. आगे लालू राजनीति में ऐसे रमे की उन्होंने राजनीति के नए मुहावरे गढ़े.

हमेशा नाटकीय, खास मौकों पर लापता
जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में लालू का उनसे जुड़ाव हुआ. बिहार छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष चुने गए. संकर्षण ठाकुर ने लिखा, ” हालांकि लालू यादव ने युद्ध में एक जहाज का कार्यभार ग्रहण किया था लेकिन उन्होंने कभी अधिक कप्तानी नहीं की. उन्हें कभी रणनीति तैयार करने या उसके कार्यान्वयन की योजना बनाने में दिलचस्पी नहीं थी. वे जहाज के आगे घिरते तूफान का सर्वेक्षण करते थे, जबकि दूसरे लोग जहाज का संचालन करते थे.”

साथी नरेंद्र सिंह के अनुसार के अनुसार उनका झुकाव हमेशा नाटकीयता की ओर था. वे सड़क और स्टेज के आदमी थे. छात्र आंदोलनों की अगुवाई के कई मौकों पर निर्णायक मौकों पर उनके लापता होने के कई रोचक किस्से हैं. इमरजेंसी में परिवार के एक विवाद को सुलझाने के फेर में वे खुद ही थाने पहुंच गए थे. पुलिस को उनकी तलाश थी. वे जेल पहुंचा दिए गए. रिहाई के बाद 1977 की जनता लहर में छपरा से वे लोकसभा के लिए चुने गए. जल्दी लोकसभा भंग हुई. लालू ने बिहार वापसी की. 1980 में लोकदल के टिकट पर सोनपुर से विधायक बने. 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हुई रिक्ति ने लालू को पिछड़े वर्गों के नेतृत्व का बड़ा मौका दिया. संकर्षण ठाकुर के मुताबिक सार्वजनिक तौर पर लालू खुद को कर्पूरी का शिष्य बताते थे लेकिन निजी बातचीत में उन्हें ” कपटी ठाकुर” कहते थे.15 साल के लालू और उनके परिवार के राज को आज भी जंगल राज के तौर पर याद किया जाता है.

मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए खूब जोड़-तोड़
विश्वनाथ प्रताप सिंह के उत्थान और जनता दल के गठन ने लालू यादव के नए रास्ते खोले. वे मंच पर विश्वनाथ का गुणगान करते और उनके धुर विरोधी चंद्रशेखर को साधे रखने के लिए उनके यहां भी हाजिरी दर्ज करने का मौका नहीं छोड़ते थे. 1989 के लोकसभा चुनाव के मौके पर लालू बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. लोकसभा के चुनाव के चार माह बाद बिहार विधानसभा का चुनाव होना था. उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर थी. लेकिन जनता दल में अपनी स्थिति को लेकर वे आश्वस्त नहीं थे. विपक्ष के नेता का पदत्याग करके वे नवम्बर 1989 में छपरा से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए.

1990 में बिहार में जनता दल की सरकार बनते देख लालू यादव फिर बिहार वापस हो लिए. अब उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी की दावेदारी थी. लेकिन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की पसंद राम सुंदर दास थे. लालू पिछड़े वर्ग के विधायकों के बीच तगड़ी पकड़ बना चुके थे और दावेदारी से पीछे हटने को तैयार नहीं थे. उन्होंने चंद्रशेखर की शरण ली. दुखती रग राजा के नाम पर उकसाया. पटना के रण में अब हरिजन रामसुंदर दास, पिछड़े लालू के साथ चंद्रशेखर के उम्मीदवार सवर्ण रघुनाथ झा भी मैदान में थे. वोटों के बंटवारे ने मामूली अंतर से लालू को जीत दिला मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचा दिया.

सब बदलते खुद बदल गए
10 मार्च 1990 को लालू यादव ने पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ की ली थी. शपथ ग्रहण के लिए उन्होंने पटना के उस गांधी मैदान को चुना था, जहां 16 साल पहले जयप्रकाश नारायण के नाम पर उमड़ी भीड़ को संबोधित कर वे आह्लादित हुए थे. अब वे नायक थे. भीड़ उनके नाम पर पागल थी. उसे ऐसा मुख्यमंत्री मिला था जो पटना के पशु चिकित्सालय महाविद्यालय में अपने चपरासी भाई के क्वार्टर में रहने वाला था.

वो मुख्यमंत्री जो बिहार के भ्रष्टाचार, गरीबी, पिछड़ेपन और गैरबराबरी को दूर करने के लिए कमर कसे हुए था. जो सड़े गले-ढांचे को ध्वस्त करने को आमादा था. जो बेलगाम नौकरशाही को जूते की नोक पर रखता है और जो उनसे कहता है कि हम चीफ मिनिस्टर हैं. सब समझते हैं. जैसा कहते हैं वैसा करो. लालू की बोली-बानी, पहनावा, हेयर स्टाइल सब पर लोग फिदा थे. लगता था कि वे सब कुछ बदलकर रख देंगे. लेकिन आगे कुछ बदला हो या न बदला हो लेकिन लालू जरूर बदलते गए. जून 1990 में चिकित्सा महाविद्यालय के चपरासी क्वार्टर से वे मुख्यमंत्री की कोठी में पहुंच गए.

अब तेजस्वी की ताजपोशी की चाहत
उनके भाषण अभी भी चुटीले और लच्छेदार थे. भीड़ खींचने की क्षमता बरकरार थी. वे सजातीय यादवों और मुसलमानों का एक साझा मजबूत वोट बैंक तैयार कर चुके थे. लेकिन अब वे आरोपों के घेरे में थे. बिहार और पिछड़ चुका था. विकास से लेकर तक कानून व्यवस्था के मोर्चे तक सब बदहाल था. चारा घोटाले से बच निकलने का उनका हर जतन नाकाम रहा. इस घोटाले ने 1997 में उन्हें जेल पहुंचा दिया. बेशक पत्नी राबड़ी देवी के जरिए 2005 तक उन्होंने बिहार की सत्ता बरकरार रखी लेकिन उनकी छवि को भारी आघात पहुंचा.

15 साल के उनके और परिवार के राज को आज भी जंगल राज के तौर पर याद किया जाता है. चारा घोटाले में वे जेल आते-जाते रहे. कुछ मामलों में सजा भी हो गई. फिलहाल जमानत पर हैं. बीमार हैं. बेटी रोहिणी आचार्य ने उन्हें किडनी दी. परिवार के कई सदस्यों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं. लेकिन अपना राजनीतिक उत्तराधिकार वे तेजस्वी के हक में तय कर चुके हैं. समय-असमय परिवार को असहज स्थिति में डालने वाले बड़े बेटे तेज प्रताप यादव को फिलहाल उन्होंने पार्टी के साथ परिवार से भी बेदखल कर दिया है. लालू की राजनीतिक पारी पूरी हो चुकी है. अपने सामने वे तेजस्वी की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी के लिए बेकरार हैं. अपने उतार के दौर में भी वे बिहार की बड़ी राजनीतिक ताकत हैं.

Related Articles

Back to top button