बसपा में आंतरिक कलह, मायावती ने सुबह जिम्मेदारी दी, शाम को पार्टी से निकाल दिया

बसपा में सियासी भूचाल! मायावती ने सुबह शमशुद्दीन राईन को तीन मंडलों की जिम्मेदारी दी, लेकिन शाम होते-होते उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। सख्त फैसले से मुस्लिम वोट बैंक और कार्यकर्ताओं में असुरक्षा बढ़ी। राईन की बर्खास्तगी 2027 चुनावों से पहले पार्टी के लिए बड़ा राजनीतिक झटका साबित हो सकती है।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी-कभी एक फोन कॉल पूरी जिंदगी बदल देता है। बसपा की मुखिया मायावती के करीबी मुस्लिम नेता शमशुद्दीन राईन के साथ ठीक यही हुआ। 23 अक्टूबर की सुबह सात बजे मायावती ने खुद फोन करके उन्हें लखनऊ, कानपुर और प्रयागराज जैसे महत्वपूर्ण मंडलों की जिम्मेदारी सौंपी। राईन खुशी से फूले न समाए, सोचा पार्टी की कमान संभालेंगे, 2027 के चुनावों में नई ऊंचाई छुएंगे। लेकिन उसी शाम, मुश्किल से कुछ घंटों बाद, बसपा के प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने एक सख्त पत्र जारी कर उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। आरोप लगे गुटबाजी फैलाने और अनुशासन तोड़ने के। राईन का कहना है कि असल में वजह तो बस एक फोन मिस करना था, जो तबीयत खराब होने की वजह से हो गया। यह घटना बसपा के अंदर सफाई का संकेत तो देती है, लेकिन 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले मुस्लिम वोट बैंक को बड़ा झटका भी लग रही है। यूपी की सियासी दुनिया में यह खबर तेजी से फैल गई है, और हर कोई पूछ रहा है कि क्या मायावती का यह गुस्सा पार्टी को और कमजोर कर देगा?

शमशुद्दीन राईन कोई मामूली नाम नहीं है बसपा में। झांसी जिले के एक छोटे से इलाके से आने वाले राईन का जन्म 7 मई 1978 को हुआ। उनके पिता निजाम राईन फल-सब्जी का छोटा-मोटा धंधा चलाते थे। कुंजड़ा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राईन ओबीसी मुस्लिम हैं, जो पसमांदा मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा हैं। यूपी में मुस्लिमों की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी इसी पसमांदा तबके की है, और राईन इसी की आवाज बनकर उभरे। उनकी राजनीति की शुरुआत दो दशक पहले बसपा के एक साधारण बूथ स्तर के कार्यकर्ता के रूप में हुई। मायावती ने उनमें लगन देखी, भरोसा किया और धीरे-धीरे ऊंचे पदों पर बिठाया। 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद जब नसीमुद्दीन सिद्दीकी और डॉक्टर मसूद जैसे बड़े मुस्लिम चेहरे पार्टी छोड़ गए, तो राईन ने वह खाली जगह भर ली। मायावती के सबसे भरोसेमंद सिपहसालार बनकर वे पश्चिमी यूपी और उत्तराखंड के प्रभारी बने। बुंदेलखंड में तीन बार जिम्मेदारी संभाली, जहां जालौन, उरई जैसे जिलों में उन्होंने सैकड़ों स्थानीय नेताओं को जोड़ा। बसपा की रैलियों में वे अक्सर मायावती के बगल में मंच पर नजर आते, और बहनजी उनकी तारीफ करने से पीछे नहीं हटतीं। एक बार तो मायावती ने कहा था, शमशुद्दीन जैसे सिपाही पार्टी की ताकत हैं।

राईन का हाथ सिर्फ संगठन चलाने तक सीमित नहीं था। वे कैडर कैंप लगाने और जमीनी स्तर पर पार्टी को मजबूत बनाने के उस्ताद माने जाते थे। 2019 के लोकसभा चुनावों में उनके जिम्मे वाले मंडलों में बसपा का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा। पश्चिमी यूपी में दलित और मुस्लिम वोटों का समीकरण जोड़ने में उनकी बड़ी भूमिका थी। यहां मुस्लिम वोटरों की संख्या ज्यादा है, और राईन जैसे चेहरे इन वोटों को बसपा की ओर खींचते थे। मायावती ने उन्हें खासतौर पर पसमांदा मुस्लिमों का चेहरा बनाया। पार्टी में दूसरे मुस्लिम नेता जैसे मुनकाद अली या नौशाद अली अशराफ यानी जनरल कैटेगरी से हैं, लेकिन राईन की पहुंच पिछड़े मुस्लिमों तक थी। 2020 में जब मायावती ने पश्चिमी यूपी की कमान सौंपी, तो राईन ने कहा था, बहनजी हर तबके को साथ लेकर चलना चाहती हैं। यह बात बसपा की पुरानी सोशल इंजीनियरिंग को याद दिलाती है, जो 2007 में इतनी कामयाब रही थी। उस साल बसपा ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, वोट शेयर 30 फीसदी के पार पहुंच गया। लेकिन उसके बाद पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता चला गया। 2012 में 80 सीटें बचीं, 2017 में 19 रह गईं, और 2022 में तो सिर्फ एक। मुस्लिम वोटरों का भरोसा टूटा, क्योंकि विपक्ष बसपा पर बीजेपी की बी-टीम होने का इल्जाम लगाता रहा।

23 अक्टूबर का दिन राईन के लिए काला पड़ गया। 16 अक्टूबर की एक बैठक में मंडलों के फेरबदल का फैसला हो चुका था। सुबह मायावती का फोन आया, नई जिम्मेदारी बताई। राईन ने बताया कि वे रात को गाजियाबाद से लखनऊ लौटे थे। सुबह सात बजे बहनजी का फोन आया, लखनऊ-कानपुर मंडल की जिम्मेदारी दी। लेकिन तबीयत ठीक न होने से फोन साइलेंट कर सो गए। दस बजे जागे तो वापस कॉल किया, लेकिन तब तक मायावती नाराज हो चुकी थीं। राईन को लगता है कि यही छोटी सी गलती बड़ी सजा बन गई। मायावती के लिए फोन उठाना अनुशासन का पहला सबक है। विश्वनाथ पाल के पत्र में साफ लिखा है कि राईन गुटबाजी फैला रहे थे, पहले भी चेतावनी दी गई थी लेकिन सुधार नहीं हुआ। बुंदेलखंड में उनके पुराने आरोप फिर ताजा हो गए। राईन ने इन आरोपों को झूठा बताया और कहा, मैं बहनजी को अपना राजनीतिक गुरु मानता हूं। गुस्सा ठंडा होने पर मिलूंगा, सब ठीक हो जाएगा। लेकिन सियासत में ऐसे गुस्से आसानी से ठंडे नहीं होते। राईन के करीबी कहते हैं कि यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया, क्योंकि राईन पार्टी के वफादार सिपाही थे।

यह पूरा वाकया मायावती की सख्त राजनीतिक शैली का नमूना है। बहनजी को किसी तरह की बगावत या गुटबाजी बिल्कुल बर्दाश्त नहीं। बसपा में कई बड़े नेता इसी शैली के शिकार हो चुके हैं। नसीमुद्दीन सिद्दीकी को 2017 में बाहर किया, फिर आनंद सिंह, राम अचल राजभर जैसे नाम। हाल ही में मुनकाद अली और गिरीश चंद जाटव को हाशिए पर धकेल दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि यह सख्ती अनुशासन तो लाती है, लेकिन पार्टी को अंदर से खोखला भी कर देती है। यह आंतरिक सफाई का हिस्सा है, लेकिन मुस्लिम समाज को जोड़ने के प्रयासों पर पानी फेर सकता है। एक जानकार ने कहा, राईन का जाना छोटा सा लगता है, लेकिन इससे बड़े बवाल की आहट सुनाई दे रही है। राईन के जिला स्तर पर सैकड़ों समर्थक अब दुविधा में हैं। एक पुराने बसपा नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, शमशुद्दीन भाई ने पार्टी के लिए दिन-रात एक कर दिया था। यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया लगता है। ऐसे फैसलों से कार्यकर्ताओं में असुरक्षा का माहौल बन रहा है, जो पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं।

बसपा के लिए यह निष्कासन दो तरफा चोट है। पहली तो मुस्लिम वोट बैंक को। यूपी में बसपा का मुस्लिम समर्थन पहले से ही कमजोर है। 2007 की जीत के बाद 2017 में सिर्फ 19 सीटें बचीं, 2022 में तो महज एक। मुस्लिम वोटरों पर बीजेपी की बी-टीम का लेबल चिपक गया, जिससे दूरी बढ़ी। राईन जैसे चेहरे इस दूरी को कम करने वाले थे, खासकर पश्चिमी यूपी में जहां दलित-मुस्लिम का गठजोड़ हमेशा हिट साबित हुआ है। उनकी बर्खास्तगी से 2027 के चुनावों में मुश्किलें और बढ़ेंगी। बसपा अब जाटव समाज पर ही टिकी है, लेकिन गैर-जाटव दलित भी दूर हो रहे हैं। पसमांदा मुस्लिमों की 80 फीसदी आबादी को राईन जोड़ते थे, अब वह कमी खलेगी। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि यह फैसला मुस्लिम भरोसे को और कमजोर कर सकता है, क्योंकि बसपा पहले ही विपक्षी दलों के बीच फंस चुकी है।

दूसरी चोट आंतरिक कलह की। फोन न उठाना तो बस बहाना है, असल में गुटबाजी की पुरानी समस्या फिर उभरी। मायावती की यह शैली पार्टी को 14 साल से सत्ता से दूर रखे हुए है। हाल के फेरबदल में तीन गुटबाज नेताओं को सबक सिखाया गया, लेकिन कार्यकर्ताओं में डर का माहौल बन रहा है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बसपा का भविष्य खतरे में है। 2022 के बाद से सवाल उठ रहे हैं कि क्या पार्टी बचेगी भी? राईन का जाना इस सवाल को और तेज कर देता है। बसपा का वोट शेयर 2022 में 12 फीसदी के आसपास सिमट गया, और मुस्लिम वोटों की कमी ने इसे और नीचे धकेला। 2027 में अगर सोशल इंजीनियरिंग का जादू नहीं चला, तो बसपा को अस्तित्व का संकट झेलना पड़ सकता है।

फिर भी, मायावती की सख्ती का एक अच्छा पहलू भी है। यह सबको बता देती है कि पार्टी में कोई बड़ा-छोटा नहीं, सिर्फ नियम। प्रदेश अध्यक्ष ने कहा, यह कदम पार्टी को मजबूत बनाएगा। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या 2027 में मायावती फिर वही जादू चला पाएंगी? क्या दलित-मुस्लिम का पुराना समीकरण जोड़ा जा सकेगा? राईन जैसे वफादार नेता की कमी पार्टी को भारी पड़ सकती है। ऐसे लोग बार-बार नहीं मिलते। मायावती ने हमेशा कहा है कि बसपा बहुजन समाज की पार्टी है, लेकिन आंतरिक कलह इसे कमजोर कर रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर मायावती गुटबाजी पर लगाम नहीं लगाईं, तो 2027 में चुनौतियां और बढ़ेंगी।

अब शमशुद्दीन राईन क्या करेंगे? वे कहते हैं, मैं बसपा का सिपाही हूं, बहनजी से बात करके लौट आऊंगा। लेकिन राजनीति में फोन की यह तल्खी लंबे समय तक याद रहती है। यूपी की सियासत में यह नया ट्विस्ट बसपा को नई राह दिखा सकता है, या गहरे संकट में धकेल सकता है। वक्त ही बताएगा। अभी राईन के समर्थक चुपचाप इंतजार कर रहे हैं, और मायावती अपनी राह पर चल रही हैं। यह कहानी यूपी की राजनीति की पुरानी किताब का एक ताजा पन्ना है, जहां भरोसा टूटना आसान है, लेकिन जोड़ना कठिन। बसपा के कार्यकर्ता सोच रहे हैं कि क्या यह सफाई पार्टी को नई जान देगी, या और बिखेर देगी। फिलहाल, सियासी हलचल थमने का नाम नहीं ले रही।

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