भाई–भाई की जंग बिहार में राजनीति बनी महाभारत का मैदान
बिहार की राजनीति में लालू परिवार की कलह महाभारत का रूप ले चुकी है। तेज प्रताप यादव और तेजस्वी यादव अब आमने-सामने हैं। कभी कृष्ण-अर्जुन की जोड़ी रही यह भाईचारा अब सियासी जंग में बदल गया है, जिससे आरजेडी के वोट बैंक और बिहार के चुनावी समीकरण पर गहरा असर पड़ सकता है।


बिहार की सियासत इस वक्त किसी महाभारत से कम नहीं दिख रही। कभी जो दो भाई साथ चलते थे, अब वही एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले खड़े हैं। आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव और छोटे बेटे तेजस्वी यादव के बीच अब राजनीतिक तलवारें खिंच चुकी हैं। कभी खुद को कृष्ण और तेजस्वी को अर्जुन बताने वाले तेज प्रताप आज उसी अर्जुन से रणभूमि में भिड़े हुए हैं। सवाल यह उठता है कि यह जंग सिर्फ दो भाइयों की है या बिहार की राजनीति का पूरा समीकरण बदलने वाली है?कुछ महीनों पहले तक तेज प्रताप यादव पार्टी के भीतर सक्रिय थे। लेकिन सोशल मीडिया पर उनकी एक निजी तस्वीर वायरल होने के बाद लालू यादव ने कठोर कदम उठाया। उन्होंने तेज प्रताप को न सिर्फ आरजेडी से बल्कि परिवार से भी छह साल के लिए निष्कासित कर दिया। यह फैसला लालू परिवार में पहली बार हुआ जब किसी बेटे को राजनीतिक और पारिवारिक दोनों मंचों से बाहर कर दिया गया।तेज प्रताप के निष्कासन के बाद सियासी गलियारों में खलबली मच गई। विपक्षी दलों ने इसे आरजेडी में दरार के रूप में देखा, जबकि पार्टी प्रवक्ताओं ने इसे “अनुशासनहीनता के खिलाफ कदम” बताया। तेज प्रताप ने भी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि उनके खिलाफ षड्यंत्र रचा गया है। उन्होंने कहा, मैं मर जाऊंगा, लेकिन दोबारा आरजेडी में नहीं जाऊंगा।
तेज प्रताप कभी खुले मंचों से कहते थे कि वह तेजस्वी के सारथी हैं और उन्हें मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते हैं। वह खुद को कृष्ण और तेजस्वी को अर्जुन कहा करते थे। लेकिन वक्त के साथ यह “कृष्ण–अर्जुन” की जोड़ी अब “कृष्ण बनाम अर्जुन” में बदल गई है।तेज प्रताप को उम्मीद थी कि लालू परिवार उन्हें महुआ सीट से उम्मीदवार बनाएगा, लेकिन आरजेडी ने मौजूदा विधायक मुकेश रौशन पर भरोसा जताया। यहीं से दोनों भाइयों के बीच खाई और गहरी हो गई। तेज प्रताप ने इसे अपने अपमान के रूप में देखा और कहा कि अब वह अपनी नई पार्टी “जन शक्ति जनता दल” के बैनर तले चुनाव लड़ेंगे।लालू परिवार की चुप्पी और तेजस्वी की रणनीतिक दूरी के बीच तेज प्रताप अब अकेले पड़ चुके हैं। न पिता का साथ है, न मां राबड़ी देवी का साया, और न ही भाई तेजस्वी का समर्थन। पहले वे कहते थे, तेजस्वी मेरा छोटा भाई है, मैं उसका आशीर्वाद लूंगा। लेकिन अब वही तेजस्वी उनके निशाने पर हैं। तेज प्रताप ने यहां तक कह दिया, आरजेडी अब मेरे लिए किसी बीजेपी या जेडीयू से कम नहीं।उन्होंने न सिर्फ महुआ से अपनी दावेदारी ठोकी बल्कि राघोपुर सीटजहां से तेजस्वी खुद चुनाव लड़ते हैं पर भी प्रत्याशी उतार दिया। यह कदम सीधा-सीधा चुनौती है कि अगर तुम मेरे खिलाफ उम्मीदवार उतारोगे, तो मैं भी तुम्हारे खिलाफ मैदान में उतरूंगा।
बिहार की राजनीति में अब दो सबसे चर्चित विधानसभा क्षेत्र हैंमहुआ और राघोपुर। महुआ में तेज प्रताप अपनी साख बचाने की जंग लड़ रहे हैं, वहीं राघोपुर में तेजस्वी की प्रतिष्ठा दांव पर है। तेज प्रताप ने राघोपुर से आरजेडी के पूर्व महासचिव प्रेम कुमार यादव को उम्मीदवार बनाया है। जवाबी वार के रूप में यह कदम आरजेडी को अंदर तक हिला गया।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर तेज प्रताप का प्रभाव कुछ हद तक भी वोट काटता है, तो आरजेडी को नुकसान निश्चित है। बिहार में यादव और मुस्लिम वोट बैंक की एकता पर आरजेडी की पकड़ मजबूत मानी जाती है, लेकिन अगर यह वोट बैंक बिखरता है तो महागठबंधन की राह कठिन हो सकती है।तेजस्वी और तेज प्रताप दोनों अपने पिता लालू प्रसाद की विरासत के उत्तराधिकारी माने जाते थे। लेकिन अब विरासत की यह लड़ाई भावनाओं से आगे बढ़कर सियासी अस्तित्व की लड़ाई बन गई है। तेज प्रताप खुले मंचों पर कहते हैं, “तेजस्वी यादव की पहचान लालू प्रसाद यादव की वजह से है, अपने दम पर नहीं।” यह बयान तेजस्वी समर्थकों के लिए सीधा हमला था।
दूसरी ओर, तेजस्वी ने अब तक इस पूरे विवाद पर सार्वजनिक तौर पर ज़्यादा प्रतिक्रिया नहीं दी है। उनका रुख शांतिपूर्ण दिखता है, लेकिन भीतर ही भीतर पार्टी संगठन में वह अपने पक्ष को मजबूत करने में लगे हैं।तेज प्रताप यादव की नई पार्टी जन शक्ति जनता दल बिहार की राजनीति में नया नाम है। लेकिन सच्चाई यह है कि पार्टी का संगठन अभी शुरुआती दौर में है। तेज प्रताप के पास न तो कोई बड़ा जनाधार है, न संसाधन, और न ही अनुभवी टीम। बावजूद इसके, उनकी मौजूदगी एक “डैमेज फैक्टर” बन चुकी है।राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि तेज प्रताप भले ही बड़ी सीट न जीत पाएं, लेकिन वह आरजेडी के वोट प्रतिशत को प्रभावित कर सकते हैं। खासकर उन यादव बहुल इलाकों में, जहां लालू परिवार के प्रति भावनात्मक जुड़ाव गहरा है।इस पूरे विवाद में लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी दोनों ने अब तक कोई बयान नहीं दिया है। सूत्र बताते हैं कि लालू यादव चाहते हैं कि मामला शांत हो जाए, लेकिन तेज प्रताप अब पीछे हटने को तैयार नहीं। उन्होंने कहा है, मैं अब अपने दम पर राजनीति करूंगा। चाहे जान चली जाए, पर किसी के सामने झुकूंगा नहीं।यह बयान एक ओर आत्मसम्मान की लड़ाई बताता है, वहीं दूसरी ओर पारिवारिक रिश्तों की कड़वाहट भी उजागर करता है।
भाई-भाई की यह जंग अब सिर्फ पारिवारिक नहीं रही। इसका असर पूरे बिहार की राजनीति पर पड़ने वाला है। आरजेडी जहां अपनी एकता बनाए रखने में जुटी है, वहीं एनडीए और अन्य विपक्षी दल इस दरार को अपने फायदे में बदलने की रणनीति बना रहे हैं। महुआ में तेज प्रताप के खिलाफ आरजेडी और बीजेपी दोनों ने अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं, जिससे वहां मुकाबला त्रिकोणीय बन गया है। वहीं राघोपुर में तेजस्वी के खिलाफ तेज प्रताप का प्रत्याशी उतरना आरजेडी के लिए सिरदर्द बन गया है।राजनीतिक पंडितों का कहना है कि अगर तेज प्रताप को महुआ में 10 से 15 प्रतिशत वोट भी मिल गए, तो आरजेडी की जीत मुश्किल हो सकती है। वहीं राघोपुर में भी यह फैक्टर निर्णायक साबित हो सकता है।
जनता में इस पूरे घटनाक्रम को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं हैं। एक वर्ग का कहना है कि यह परिवार की अंदरूनी कलह है और जनता के मुद्दों से इसका कोई लेना-देना नहीं। दूसरा वर्ग मानता है कि लालू परिवार की इस जंग से बिहार की राजनीति का असली चेहरा सामने आ गया है, जहां रिश्ते से ज्यादा सत्ता की कुर्सी अहम है। गांवों और कस्बों में अब यह चर्चा आम है लालू जी के बेटे खुद ही आपस में लड़ रहे हैं, तो जनता की भलाई कौन करेगा? यह सवाल तेजस्वी और तेज प्रताप दोनों के लिए चुनौती है।तेज प्रताप और तेजस्वी यादव की जंग अब बिहार की राजनीति का सबसे चर्चित अध्याय बन चुकी है। एक ओर भावनाओं और आत्मसम्मान की लड़ाई है, दूसरी ओर सत्ता और संगठन की मजबूती।लालू यादव के लिए यह स्थिति किसी दुःस्वप्न से कम नहीं, क्योंकि जिस राजनीतिक विरासत को उन्होंने दशकों की मेहनत से खड़ा किया, वही अब दो हिस्सों में बंटती दिखाई दे रही है।चुनाव नज़दीक हैं, और बिहार की धरती एक बार फिर तय करेगी कि जनता रिश्तों के नाम पर वोट देगी या नेतृत्व की स्थिरता पर। लेकिन इतना तय है कि इस बार की लड़ाई सिर्फ सीटों की नहीं, बल्कि परिवार, भावनाओं और विरासत की सियासी परीक्षा भी है।
				
					


