पीडीए रणनीति से घिरी भाजपा, यूपी में दलित‑ओबीसी चेहरा खोजने की दौड़ तेज

अजय कुमार,लखनऊ
वरिष्ठ पत्रकार

लखनऊ की सियासत में इन दिनों सबसे ज्यादा चर्चा जिस मुद्दे की हो रही है, वह है भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति। लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों ने पार्टी को यह एहसास करा दिया कि उत्तर प्रदेश में उसकी पकड़ ढीली पड़ गई है। 2014 और 2019 में भाजपा ने जिस सामाजिक समीकरण के सहारे उत्तर प्रदेश में अपार बहुमत हासिल किया था, 2024 में वही समीकरण टूटता नजर आया। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन ने PDA यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग की रणनीति के सहारे भाजपा के कोर वोट बैंक में सेंध लगाई। गैर‑यादव पिछड़े और गैर‑जाटव दलित, जो 2014 से भाजपा के साथ खड़े थे, इस बार विपक्ष की ओर खिसक गए। आंकड़े बताते हैं कि 2019 में भाजपा को ओबीसी वर्ग में 55 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2024 में घटकर करीब 40 प्रतिशत रह गए, जबकि दलित वोटों में उसका समर्थन 27 प्रतिशत से गिरकर 20 प्रतिशत तक रह गया। सपा‑कांग्रेस गठबंधन ने 80 में से 43 सीटें जीतकर भाजपा को करारा झटका दिया। इन नतीजों ने भाजपा नेतृत्व को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अगर 2027 में सत्ता में वापसी करनी है तो उसे अपनी सामाजिक इंजीनियरिंग को नए सिरे से मजबूत करना होगा। इसी सोच के तहत भाजपा नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति को सिर्फ संगठनात्मक बदलाव नहीं बल्कि 2027 विधानसभा चुनाव की जंग का पहला कदम मान रही है। मौजूदा अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी पहले ही पद छोड़ने की इच्छा जता चुके हैं और पार्टी ने छह नामों की सूची केंद्रीय नेतृत्व को भेज दी है। इन नामों में ब्राह्मण वर्ग से पूर्व उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा और हरीश द्विवेदी, ओबीसी से केंद्रीय मंत्री बी.एल. वर्मा और धर्मपाल सिंह, तथा दलित वर्ग से पूर्व केंद्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया और विधान परिषद सदस्य विद्यासागर सोनकर शामिल हैं। पार्टी के भीतर सबसे अधिक चर्चा बी.एल. वर्मा, रामशंकर कठेरिया और दिनेश शर्मा के नामों की है क्योंकि ये तीनों नेता संगठनात्मक अनुभव, जातीय संतुलन और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ तालमेल की दृष्टि से मजबूत माने जा रहे हैं।

भाजपा के लिए सबसे अहम सवाल है कि वह 2024 में खोए हुए गैर‑यादव पिछड़े और गैर‑जाटव दलित वोटरों को दोबारा कैसे जोड़े। 2014 और 2019 में भाजपा की जीत का सबसे बड़ा कारण यही वर्ग था, जिसने कांग्रेस और सपा‑बसपा से दूरी बनाकर भाजपा का साथ दिया था। लेकिन 2024 में सपा और कांग्रेस की PDA रणनीति ने इस वर्ग को फिर से विपक्ष के पक्ष में कर दिया। यही वजह है कि भाजपा अब ऐसे अध्यक्ष की तलाश में है जो संगठन को संभालने के साथ-साथ इस वोट बैंक को फिर से अपनी ओर खींच सके। बी.एल. वर्मा का नाम इसलिए मजबूत माना जा रहा है क्योंकि वे न केवल केंद्रीय मंत्री हैं बल्कि संघ से जुड़ाव रखने वाले सक्रिय संगठनात्मक नेता भी हैं। उनका पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रभाव है और योगी आदित्यनाथ के साथ उनका संबंध भी संतुलित है। धर्मपाल सिंह भी ओबीसी वर्ग से आते हैं और योगी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। भाजपा का मानना है कि ओबीसी चेहरा चुनकर वह PDA रणनीति को सीधी चुनौती दे सकती है और गैर‑यादव पिछड़े वर्ग में अपनी पैठ फिर से बना सकती है।

दलित विकल्प भी भाजपा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने आज तक किसी दलित नेता को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया है। अगर इस बार रामशंकर कठेरिया या विद्यासागर सोनकर को यह जिम्मेदारी मिलती है, तो यह दलित समाज में पार्टी के लिए बड़ा राजनीतिक संदेश होगा। रामशंकर कठेरिया जाटव समुदाय से आते हैं, उनकी संगठनात्मक पकड़ मजबूत है और वे केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। भाजपा मानती है कि बसपा की लगातार कमजोर होती पकड़ और मायावती की निष्क्रिय राजनीति का फायदा उठाकर वह दलित समाज में अपनी पैठ बढ़ा सकती है। खासकर गैर‑जाटव दलित, जो बसपा से दूरी बना रहे हैं, उन्हें भाजपा अपनी ओर खींच सकती है। इस फैसले से भाजपा न केवल अपने लिए एक नया आधार तैयार करेगी बल्कि सपा और बसपा दोनों के वोट बैंक में सेंध लगाने में सफल हो सकती है।

ब्राह्मण चेहरा चुनने की संभावना पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, लेकिन यह संभावना अपेक्षाकृत कम है। दिनेश शर्मा जैसे नेताओं का संगठनात्मक अनुभव और योगी आदित्यनाथ के साथ तालमेल उन्हें एक मजबूत उम्मीदवार बनाता है। भाजपा यह भी जानती है कि ब्राह्मण वोटर उसका पारंपरिक समर्थन आधार हैं और यह वर्ग आमतौर पर भाजपा के साथ ही रहता है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ब्राह्मण असंतोष की खबरें आईं, लेकिन भाजपा मानती है कि 2027 की जंग में असली चुनौती PDA रणनीति से निपटने की होगी, न कि सवर्ण वोटों को साधने की। इसलिए पार्टी का झुकाव दलित या ओबीसी चेहरे की ओर ज्यादा दिख रहा है।

इस फैसले में देरी का एक कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव भी है। भाजपा के नियमों के अनुसार जब तक प्रमुख राज्यों में अध्यक्ष नहीं चुने जाते, राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सकता। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में नया अध्यक्ष पार्टी की राष्ट्रीय रणनीति को भी प्रभावित करेगा। यही वजह है कि भाजपा और संघ इस पर बेहद सावधानी से विचार कर रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बढ़ती राजनीतिक ताकत को देखते हुए पार्टी ऐसा चेहरा चुनना चाहती है जो मुख्यमंत्री के साथ तालमेल बैठाकर संगठन को मजबूत कर सके और गुटबाजी की गुंजाइश न छोड़े। यही कारण है कि बी.एल. वर्मा जैसे नाम सबसे आगे बताए जा रहे हैं क्योंकि उनका संबंध संघ और मुख्यमंत्री दोनों से संतुलित है।

भाजपा जानती है कि 2027 विधानसभा चुनाव से पहले पंचायत चुनाव होंगे और ये चुनाव राज्य की राजनीति की दिशा तय करेंगे। ऐसे में प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव केवल एक पदाधिकारी तय करना नहीं बल्कि आने वाले वर्षों की राजनीति का नक्शा तैयार करना है। अगर पार्टी ओबीसी अध्यक्ष बनाती है तो यह PDA को सीधी चुनौती होगी और गैर‑यादव पिछड़ों को फिर से जोड़ने की कोशिश होगी। अगर दलित अध्यक्ष बनता है तो यह बसपा और सपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का संकेत होगा। और अगर ब्राह्मण चेहरा चुना जाता है तो यह पारंपरिक सवर्ण वोटरों को संतुष्ट करने की रणनीति का हिस्सा होगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह नियुक्ति भाजपा के लिए 2027 की लड़ाई का सेनापति तय करेगी। 2014 और 2019 में जिस सोशल इंजीनियरिंग ने भाजपा को अपार सफलता दिलाई थी, वही मॉडल अगर नए रूप में दोहराया गया तो पार्टी वापसी कर सकती है, लेकिन अगर 2024 की तरह जातीय समीकरण उसके खिलाफ रहे तो सत्ता में लौटना मुश्किल हो सकता है। यही वजह है कि भाजपा और संघ इस फैसले को बेहद सोच‑समझकर लेने की तैयारी में हैं और आने वाले कुछ हफ्तों में यह नाम सामने आते ही 2027 की राजनीति की दिशा भी काफी हद तक तय हो जाएगी।

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