बीजेपी का हृदय-परिवर्तन ‘बटेंगे तो कटेंगे’ से जाति जनगणना तक का सफर

30 अप्रैल, 2025 को, मोदी सरकार ने एक ऐतिहासिक घोषणा की, जो भारतीय राजनीति और समाज पर गहरी छाप छोड़ने वाली है। सरकार ने फैसला किया कि आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित गणना भी की जाएगी, जो 1931 के बाद से पहली बार होगा। हालांकि इससे पहले इस मुद्दे पर सरकार का रुख साफ नहीं था, लेकिन अचानक किए गए इस निर्णय ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में हड़कंप मचा दिया है। इस फैसले का राजनीतिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में जाति आधारित जनगणना पर बहस चलती रही है और विपक्ष इसे लगातार अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करता रहा है। इस फैसले के साथ ही यह सवाल उठता है कि आखिर मोदी सरकार ने इस कदम को क्यों उठाया और इसके पीछे की राजनीतिक, सामाजिक और चुनावी मजबूरियों का क्या कारण हो सकता है।
बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पहले जाति आधारित जनगणना के खिलाफ रही है। 2021 में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक हलफनामे में सरकार ने कहा था कि जाति जनगणना प्रशासनिक रूप से कठिन और अव्यवहारिक है। साथ ही, सरकार ने यह भी कहा था कि इस तरह की जनगणना से सामाजिक विभाजन बढ़ेगा। इससे पहले कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के नेताओं ने जाति आधारित आंकड़े एकत्र करने का विरोध किया था। लेकिन इस बार मोदी सरकार के अचानक इस फैसले से यह साफ है कि कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, जिनके चलते इस फैसले को लेना पड़ा।
विपक्ष, खासकर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (RJD), और अन्य मंडलवादी दल लंबे समय से जाति जनगणना की मांग कर रहे थे। 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में जाति जनगणना का वादा किया था और साथ ही 50% आरक्षण की सीमा को हटाने का भी प्रस्ताव रखा था। राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम बताया और यहाँ तक कि अपनी पार्टी के दबाव के कारण मोदी सरकार को इस निर्णय के लिए मजबूर बताया। लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की राजनीति को प्रमुखता दी और इसके चलते 43 सीटें जीतकर बीजेपी को पीछे छोड़ दिया। बीजेपी इस बदलाव से भली-भांति अवगत थी, और यह फैसला उसी राजनीति के दबाव के तहत लिया गया। यही कारण है कि इस मुद्दे पर पार्टी के नेताओं के भाषणों में भी विरोधाभास नजर आया। एक ओर जहां बीजेपी ने जाति जनगणना के खिलाफ बयान दिए, वहीं दूसरी ओर पार्टी के कुछ नेताओं ने इसका समर्थन भी किया। बिहार में जाति जनगणना की मांग करने वाले सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में भी बीजेपी के स्थानीय नेता शामिल हुए थे।
जाति जनगणना की मांग इसलिए उठी थी क्योंकि भारत में जाति एक जटिल और महत्वपूर्ण सामाजिक वास्तविकता है। देश के कई हिस्सों में जाति आधारित असमानताएँ और भेदभाव आज भी प्रचलित हैं। भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की आबादी लगभग 40-50% तक है, जो विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में एक शक्तिशाली वोट बैंक बन गई है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने यह मुद्दा उठाकर इसे अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाति जनगणना से सरकार को यह पता चलेगा कि विभिन्न समुदायों को कितनी सामाजिक और आर्थिक सहायता की आवश्यकता है।
यह फैसला विशेष रूप से बिहार के लिए महत्वपूर्ण है, जहाँ 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं। बिहार में जाति जनगणना को लेकर गहरी राजनीतिक सक्रियता देखी जा रही है। राज्य के 2023 के जाति सर्वेक्षण में 36% OBC और 27% EBC (अति पिछड़ा वर्ग) की पहचान हुई थी, यानी कुल 63% आबादी पिछड़ों की है। इस सर्वेक्षण के परिणामों ने राज्य में जाति जनगणना की अहमियत को और बढ़ा दिया है। बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) और लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल का आधार पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के बीच है, और इन वर्गों की राजनीति ने इन दोनों दलों को सत्ता में बनाए रखा है। वहीं, बिहार में बीजेपी की स्थिति इतनी मजबूत नहीं है, और पार्टी अभी भी ओबीसी वोटों को लेकर संघर्ष कर रही है। ऐसे में यह फैसला बीजेपी के लिए अपने राजनीतिक आधार को मजबूत करने के एक तरीके के रूप में देखा जा सकता है।
जाति जनगणना का सामाजिक महत्व भी है। भारत में विभिन्न जातियों के बीच असमानताएँ, भेदभाव और अन्याय का लंबा इतिहास रहा है। पिछड़े वर्गों और दलितों के बीच लगातार संघर्ष और उनका उत्पीड़न एक गंभीर सामाजिक मुद्दा बन चुका है। इस कारण, जातियों के बीच अपनी स्थिति को लेकर लगातार चिंताएँ और आंदोलनों की शुरुआत होती रही है। मराठा, जाट और पटेल जैसे अपेक्षाकृत संपन्न और सशक्त समुदायों ने भी ओबीसी आरक्षण की मांग के लिए बड़े आंदोलन किए हैं। इससे यह स्पष्ट है कि जाति आधारित आरक्षण और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर समाज में गहरी असंतोष की भावना है, जिसे सरकार ने अनदेखा नहीं किया।
इसके अलावा, आरएसएस ने भी इस कदम के प्रति अपनी सहमति दी है। 29 अप्रैल, 2025 को प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की मुलाकात के बाद इस फैसले की घोषणा हुई। आरएसएस का मानना है कि जाति जनगणना को वैज्ञानिक और पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिए ताकि इसका परिणाम समग्र रूप से समाज की भलाई के लिए इस्तेमाल किया जा सके। आरएसएस और बीजेपी दोनों इस निर्णय को समाज में समरसता और सामाजिक न्याय की दिशा में एक सकारात्मक कदम मानते हैं। वे इसे एक अवसर के रूप में देखते हैं, जिससे वे अपनी हिंदुत्व की विचारधारा को और मजबूत कर सकते हैं और जाति आधारित राजनीति के बजाय सामाजिक समरसता की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
हालांकि, यह साफ है कि जाति आधारित जनगणना के बाद राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं। विपक्ष इस फैसले को अपनी राजनीतिक ताकत के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा, जबकि बीजेपी और आरएसएस इसे अपनी रणनीतिक पहल के तौर पर पेश करेंगे। बीजेपी की कोशिश होगी कि जाति जनगणना के जरिए वह अपनी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को मजबूत कर सके और अन्य जातियों को साथ लेकर अपना आधार बढ़ा सके।
इस प्रकार, मोदी सरकार का जाति आधारित जनगणना का निर्णय न केवल एक प्रशासनिक कदम है, बल्कि यह भारतीय राजनीति और समाज में एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक हलचल का कारण बनने वाला है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे सरकार और विपक्ष दोनों अपने-अपने राजनीतिक लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करेंगे। इसके परिणामस्वरूप आने वाले दिनों में भारत की राजनीति में जाति आधारित समीकरण और भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं, और यह निर्णय सामाजिक न्याय और समरसता की दिशा में एक अहम मोड़ साबित हो सकता है।