बीजेपी का जातिगत जनगणना पर दांव, बिहार चुनाव में सियासी रंग बदलने की पूरी संभावना

बिहार में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और ऐसे समय में केंद्र सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराने का निर्णय एक बड़ा राजनीतिक दांव साबित हो सकता है। यह फैसला न केवल बिहार की राजनीति में बल्कि पूरे देश में सामाजिक न्याय की राजनीति को नई दिशा दे सकता है। लंबे समय से विपक्षी दल खासकर बिहार की राजनीति में सक्रिय दल जातिगत जनगणना की मांग कर रहे थे, लेकिन केंद्र सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए थी। अब अचानक इस मुद्दे पर केंद्र की सक्रियता कई सवाल खड़े कर रही है। यह फैसला सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को साधने का प्रयास माना जा रहा है, जो बिहार जैसे राज्य में बड़ी संख्या में मौजूद हैं और किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। बिहार सरकार पहले ही राज्य स्तरीय जातिगत सर्वेक्षण करा चुकी है और उसके नतीजों में यह सामने आया कि पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी और ईबीसी की जनसंख्या 63 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में जब केंद्र खुद यह सर्वे करने को तैयार हुआ है, तो इससे पूरे देश में ओबीसी राजनीति को नई हवा मिलनी तय है।
इस फैसले का सबसे बड़ा असर चुनावी राजनीति पर पड़ेगा। खासकर बिहार में जहां जाति ही सबसे बड़ा आधार मानी जाती है। भाजपा को यह महसूस हुआ है कि विपक्षी दल खासकर आरजेडी और कांग्रेस सामाजिक न्याय के एजेंडे को हथियार बनाकर वोटरों को साधने में लगे हैं। विपक्ष लगातार यह आरोप लगा रहा था कि भाजपा सरकार ओबीसी विरोधी है और वह जातिगत जनगणना नहीं कराना चाहती। अब जब भाजपा ने खुद इसकी घोषणा कर दी है, तो विपक्ष के आरोपों की धार कमजोर हो गई है। अब भाजपा यह दावा कर सकती है कि उसने ही पिछड़ों के हक में बड़ा फैसला लिया है। यही वजह है कि जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस सभी इस मुद्दे पर अपनी-अपनी जीत बता रहे हैं। जेडीयू के संजय झा ने कहा कि यह फैसला देश के लिए ऐतिहासिक है और इससे सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बेहतर नीतियां बनेंगी। वहीं आरजेडी का कहना है कि यह निर्णय उनके लंबे संघर्ष का नतीजा है।
यह फैसला सिर्फ चुनावी फायदे के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना को समझने और नीतियों को बेहतर बनाने के लिहाज से भी अहम है। लंबे समय से देश में जाति आधारित आंकड़ों का अभाव रहा है। पिछली बार 1931 में ब्रिटिश सरकार ने जातिगत जनगणना कराई थी। उसके बाद से अब तक सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही आधिकारिक तौर पर उपलब्ध हैं। ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग के आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं, जबकि आरक्षण की सबसे बड़ी हिस्सेदारी इसी वर्ग को मिली हुई है। ऐसे में जब सरकार खुद ओबीसी वर्ग की सटीक आबादी का आकलन करेगी, तो इससे नीतिगत फैसलों में पारदर्शिता आएगी। साथ ही यह सवाल भी उठेगा कि क्या 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण पर्याप्त है या इसमें बदलाव की जरूरत है।
इसी के साथ रोहिणी आयोग की रिपोर्ट भी फिर से चर्चा में आ गई है। इस आयोग ने ओबीसी आरक्षण को उपवर्गों में बांटने की सिफारिश की थी, ताकि आरक्षण का लाभ सिर्फ मजबूत जातियों को ही नहीं, बल्कि वंचित जातियों को भी मिल सके। रिपोर्ट में यह कहा गया कि कुछ जातियां ही ओबीसी आरक्षण का बड़ा हिस्सा ले जाती हैं और कई अत्यंत पिछड़ी जातियां पीछे रह जाती हैं। अब जब केंद्र सरकार जातिगत जनगणना कराने जा रही है, तो यह रिपोर्ट भी जल्द लागू करने की मांग तेज हो सकती है। अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो इससे सामाजिक न्याय की मांगों को बल मिलेगा और भाजपा खुद को पिछड़ों की हितैषी पार्टी के तौर पर पेश कर सकेगी।
हालांकि यह फैसला भाजपा के लिए पूरी तरह से आसान नहीं है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जातियों की वर्गीकृत स्थिति अलग-अलग है। जैसे बिहार में वैश्य जाति को ओबीसी में गिना जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसी जाति की कई उपजातियां सामान्य वर्ग में आती हैं। ऐसे में अगर एक समान नीति बनाई जाती है, तो कुछ जातियां नाराज भी हो सकती हैं। इसके अलावा, जब सभी जातियों की सटीक संख्या सामने आएगी, तो कई अन्य वर्ग भी आरक्षण की मांग करने लगेंगे। इससे सामाजिक तनाव और जातिगत टकराव बढ़ने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
वहीं दक्षिण भारत की राजनीति पहले ही जातिगत गणनाओं पर आधारित रही है। तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों में पिछड़ों को लेकर लंबे समय से आंदोलन होते रहे हैं और राजनीतिक दलों ने उसी के अनुसार नीतियां बनाईं हैं। उत्तर भारत में इस तरह की गहराई से जातिगत आंकड़े नहीं जुटाए गए। अब अगर यह सर्वे पूरे देश में होता है, तो दक्षिण और उत्तर की सामाजिक-राजनीतिक सोच में भी सामंजस्य बैठाने की जरूरत पड़ेगी। साथ ही यह मुद्दा अदालतों तक भी जा सकता है, जहां आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की गई है। अगर नई जनगणना में यह साबित हो जाता है कि पिछड़ों की आबादी 60 या 70 प्रतिशत से ज्यादा है, तो फिर आरक्षण की सीमा पर बहस तेज होगी।
इस फैसले से यह साफ होता है कि भाजपा अब चुनावी राजनीति में विपक्ष को उसके ही एजेंडे से घेरना चाहती है। जब कांग्रेस, आरजेडी, सपा जैसे दल सामाजिक न्याय, जातिगत अधिकार और पिछड़ों की हिस्सेदारी की बात करते हैं, तो भाजपा अब उनके तर्कों को कमजोर कर सकती है। जातिगत जनगणना के फैसले से भाजपा यह दिखाना चाहती है कि वह सभी वर्गों की चिंता करती है, न कि सिर्फ एक विशेष तबके की। इससे उसे आगामी बिहार चुनाव में ओबीसी वोटों को अपने पक्ष में करने में मदद मिल सकती है। खासकर ईबीसी यानी अति पिछड़ा वर्ग, जो हमेशा से सत्ता से वंचित रहा है, भाजपा का नया आधार बन सकता है। इसी के साथ भाजपा अपने राष्ट्रवादी और विकासवादी एजेंडे को भी बनाए रखना चाहती है, ताकि सवर्णों और शहरी मतदाताओं को भी नाराज न करे।
बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से प्रमुख भूमिका निभाती आई है। लालू प्रसाद यादव ने “समाजिक न्याय” के नारे पर सरकारें बनाई थीं। नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी दी। अब भाजपा भी यही रास्ता अपनाती दिख रही है। जातिगत जनगणना उसी दिशा में एक बड़ा कदम है, जो न केवल राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है बल्कि सामाजिक रूप से भी प्रभावशाली है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में जब यह जनगणना शुरू होगी, तब उसमें क्या-क्या बातें सामने आती हैं और वे किस तरह राजनीतिक माहौल को प्रभावित करती हैं।
आख़िरकार, यह फैसला विपक्ष के लिए चुनौती भी है और अवसर भी। यदि विपक्ष सही रणनीति अपनाता है तो वह भाजपा पर दबाव बना सकता है कि सिर्फ गिनती से काम नहीं चलेगा, हक़ भी देना होगा। लेकिन अगर विपक्ष इस मुद्दे को भुना नहीं पाया, तो भाजपा इसका पूरा श्रेय लेकर सामाजिक न्याय की राजनीति में खुद को स्थापित कर सकती है। ऐसे में बिहार चुनाव का परिणाम न केवल एक राज्य की सरकार तय करेगा, बल्कि यह भी बताएगा कि केंद्र की यह रणनीति कामयाब रही या नहीं। यह आने वाले वर्षों में देश की राजनीति की दिशा भी तय कर सकता है।