बिहार में ज़मीन के सहारे सत्ता की जंग नीतीश की स्कीम से बदलेगा चुनावी नक्शा?

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
बिहार की राजनीति में अगर किसी नेता ने लगातार खुद को प्रासंगिक बनाए रखा है तो वह नीतीश कुमार हैं। 2025 का विधानसभा चुनाव जब धीरे-धीरे करीब आ रहा है, तब एक बार फिर नीतीश कुमार ने ऐसा सियासी दांव चला है जिससे उन्होंने पूरे राजनीतिक परिदृश्य को हिला कर रख दिया है। उम्र और गिरते स्वास्थ्य के बावजूद नीतीश की राजनीतिक समझ और मौके पहचानने की कला अब भी शानदार है। शायद यही कारण है कि बीजेपी हो या आरजेडी, हर कोई उन्हें अपने खेमे में बनाए रखना चाहता है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू का जनाधार पहले की तुलना में कम हुआ है। उनके समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा आरजेडी और बीजेपी की तरफ खिसका है। जेडीयू की ताकत लगातार घटती जा रही है, जबकि आरजेडी, बीजेपी और जनसुराज जैसी पार्टियां राजनीतिक रूप से विस्तार कर रही हैं। ऐसे समय में नीतीश कुमार ने एक पुरानी लेकिन असरदार योजना को दोबारा लागू करने का फैसला लिया है भूमि सुधार योजना।
यह योजना सबसे पहले 2007 में नीतीश सरकार द्वारा शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य था भूमिहीन किसानों और बटाईदारों को सरकारी जमीन पर खेती करने का अधिकार देना। लेकिन 2010 के बाद यह योजना नौकरशाही के लालफीताशाही रवैये और फंड की कमी के चलते बंद हो गई। अब 2025 के चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने इस योजना को दोबारा शुरू करके गरीबों, खासकर दलित और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) को साधने की कोशिश की है। इस स्कीम के जरिए बिहार सरकार 5 डिसमिल (लगभग 2,178 वर्ग फीट) तक जमीन ग्रामीण गरीबों को खेती के लिए दे रही है, साथ ही कम ब्याज पर ऋण, बीज, खाद, और सिंचाई सहायता जैसी सुविधाएं भी दे रही है।
बिहार की राजनीति में जमीन का सवाल हमेशा से बड़ा और भावनात्मक रहा है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य की 70% आबादी गांवों में रहती है और इनमें से करीब 60% किसान ऐसे हैं जो खुद की जमीन नहीं रखते। यही वो वर्ग है जो चुनावी नतीजों को तय करता है। नीतीश कुमार की योजना इन्हीं मतदाताओं को लक्षित करती है। खास बात ये है कि बिहार में दलित मतदाता करीब 16% और EBC मतदाता लगभग 30% हैं। यानी कुल मिलाकर 46% से ज्यादा वोटर ऐसे हैं जो इस योजना से सीधे प्रभावित हो सकते हैं।
इस योजना की घोषणा के साथ ही विपक्षी खेमे में हलचल तेज हो गई है। आरजेडी और कांग्रेस ने इसे चुनावी स्टंट करार दिया है। तेजस्वी यादव ने कहा कि अगर नीतीश कुमार को वाकई गरीबों की चिंता होती तो ये योजना दो-तीन साल पहले क्यों नहीं शुरू हुई? आरजेडी प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने इसे “चुनाव पूर्व की रेवड़ी” बताते हुए कहा कि यह सिर्फ एक जुमला है। लेकिन यहां सबसे अहम बात यह है कि इस योजना पर विपक्ष का इतना तीखा हमला खुद इस बात का प्रमाण है कि यह जनता के बीच असर डाल रही है। आरजेडी खुद किसानों और युवाओं पर केंद्रित अभियान चला रही थी, ऐसे में नीतीश कुमार ने जमीन पर सीधी लड़ाई छेड़ दी है, जिसने विपक्ष को बैकफुट पर ला दिया है।
यह योजना केवल गरीबों को जमीन देने की बात नहीं करती, बल्कि यह नीतीश की सुशासन की छवि को फिर से जीवित करने की कोशिश भी है। एक समय था जब ‘सुशासन बाबू’ के नाम से उनकी साख राष्ट्रीय स्तर तक बनी हुई थी। लेकिन पिछले पांच वर्षों में उनकी लोकप्रियता और असर में गिरावट आई है। खासकर जबसे वह बार-बार पाला बदलते रहे, तबसे उनकी राजनीतिक ईमानदारी पर भी सवाल उठे। लेकिन अब अगर वे इस योजना को तेजी और पारदर्शिता से लागू करवा सके, तो फिर से गरीबों के मसीहा के रूप में खुद को स्थापित कर सकते हैं।
सरकारी आंकड़ों की बात करें तो अब तक इस योजना के तहत 93,000 भूमिहीन परिवारों को जमीन दी जा चुकी है, और 36,000 नए मामलों का सर्वे किया जा रहा है। नीतीश सरकार ने लगभग 9,888 अमीन और कानूनगो की नियुक्ति की है ताकि इस योजना को ब्लॉक स्तर पर सटीक तरीके से लागू किया जा सके। खुद मुख्यमंत्री लगातार जिलों में समीक्षा बैठकें कर रहे हैं और अधिकारियों पर समयबद्ध क्रियान्वयन का दबाव है। यह दिखाता है कि सरकार इस योजना को महज कागज़ी एलान नहीं, बल्कि जमीन पर उतारने की गंभीर कोशिश कर रही है।
यह योजना नीतीश को एनडीए गठबंधन के भीतर भी एक नई ताकत दे सकती है। बिहार में बीजेपी और जेडीयू के बीच सीट बंटवारे को लेकर तनाव की खबरें हैं। बीजेपी लगातार अपना जनाधार बढ़ा रही है और 2025 में बड़ा दावा पेश कर सकती है। ऐसे में नीतीश के पास यह योजना एक मजबूत तर्क बन सकती है कि उनके पास अब भी एक ठोस सामाजिक आधार है। वहीं चिराग पासवान और जीतनराम मांझी जैसे नेता जो दलित वोट बैंक पर नज़र गड़ाए हुए हैं, उनके लिए भी यह योजना एक चुनौती बन सकती है। यदि नीतीश का यह प्लान काम कर गया, तो वह दलित और EBC मतदाताओं को वापस अपने खेमे में ला सकते हैं।
2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को सिर्फ 43 सीटें मिली थीं, जबकि आरजेडी 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। यदि जेडीयू को 2025 में वापसी करनी है, तो कम से कम 20-30 अतिरिक्त सीटें हासिल करनी होंगी। ये सीटें मुख्य रूप से पूर्वी बिहार, सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल के इलाकों से ही आ सकती हैं, जहां भूमिहीन और गरीब किसानों की संख्या सबसे अधिक है। अगर यह योजना वहां तक पहुंच गई, तो यह जेडीयू को मजबूत कर सकती है।
बिहार की राजनीति सिर्फ नारों और घोषणाओं से नहीं चलती, यहां जमीन पर पकड़ ही असली ताकत है। यही वजह है कि नीतीश कुमार ने चुनाव से पहले गरीबों को जमीन देने का फैसला लिया है। यह न सिर्फ आर्थिक सहायता है बल्कि सामाजिक पहचान का भी सवाल है। जब किसी गरीब को पहली बार अपनी जमीन मिलती है, तो वह सिर्फ किसान नहीं बनता, वह खुद को सशक्त और महत्वपूर्ण नागरिक भी महसूस करता है। यही भावनात्मक जुड़ाव चुनावी समर्थन में तब्दील हो सकता है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या नीतीश कुमार इस योजना को केवल एक चुनावी स्टंट नहीं, बल्कि एक स्थायी सामाजिक बदलाव के रूप में प्रस्तुत कर पाते हैं या नहीं। अगर हां, तो यह योजना 2025 में जेडीयू के लिए एक गेमचेंजर साबित हो सकती है। और अगर यह योजना भी पिछली योजनाओं की तरह कागजों में ही रह गई, तो यह नीतीश के लिए अंतिम राजनीतिक प्रयास साबित हो सकता है।एक बात तो तय है कि बिहार की चुनावी ज़मीन अब सिर्फ जातीय समीकरणों की नहीं रह गई है, अब यहां ‘जमीन’ पर ही सियासत की असली लड़ाई लड़ी जा रही है। और नीतीश कुमार ने अपनी सबसे बड़ी चाल चल दी है। अब गेंद जनता के पाले में है।