बिहार की शराबबंदी समाज सुधार या राजनीतिक बंदोबस्त?
बिहार में 2016 से लागू शराबबंदी नीति अब समाज सुधार से ज़्यादा सियासत का मुद्दा बन गई है। नौ साल बाद भी अवैध कारोबार, गिरफ्तारियाँ और राजस्व नुकसान जारी हैं। महिलाओं का समर्थन इसे टिकाए हुए है, जबकि गरीब तबके इसकी कीमत चुका रहे हैं। यह नीति सुशासन और सियासी मजबूरी के बीच झूल रही है।


बिहार में 2016 में लागू की गई शराबबंदी नीति अब नौ साल पूरे कर चुकी है। जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार मद्य निषेध एवं उत्पाद अधिनियम 2016 लागू किया था, तब इसे महिलाओं की सुरक्षा, सामाजिक सुधार और “सुशासन” की मिसाल बताया गया था। सरकार ने दावा किया कि इस नीति से घरेलू हिंसा घटेगी, परिवार बचेगा और समाज नशामुक्त होगा। लेकिन 2025 में जब इस कानून की समीक्षा होती है, तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या शराबबंदी वाकई सुधार का प्रतीक बनी या एक राजनीतिक ढाल मात्र?शराबबंदी नीति का सबसे बड़ा राजनीतिक और सामाजिक आधार महिलाएं रही हैं। नीतीश कुमार ने “आधी आबादी” को सीधे इस मुद्दे से जोड़ा। महिलाओं के अनुभव इस नीति से गहराई से जुड़े हैं। कई सर्वे बताते हैं कि शराबबंदी के बाद घरेलू हिंसा के मामलों में कमी आई है। 2024 की लैंसेट रिपोर्ट में कहा गया कि बिहार में घरेलू हिंसा के मामले अब 21 लाख महिलाओं में लगभग शून्य स्तर तक पहुँच गए हैं, जबकि 1990 के दशक में यह 40 प्रतिशत तक थे।
गांवों में रहने वाली महिलाएं खासकर जीविका दीदियाँ आज भी इसे नीतीश सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हैं। उनके मुताबिक, पहले पुरुष मजदूरी का बड़ा हिस्सा शराब में उड़ाते थे; अब घर में थोड़ा चैन है, बच्चों की पढ़ाई पर खर्च बढ़ा है। यही वह भावनात्मक जुड़ाव है, जिसने महिलाओं को नीतीश का स्थायी वोट बैंक बना दिया।राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यही समर्थन NDA की रीढ़ बन गया है। यही कारण है कि किसी भी दल में यह साहस नहीं दिखता कि वे चुनावी मंच से शराबबंदी को पूरी तरह खत्म करने की बात कहें। विपक्ष समीक्षा की मांग तो करता है, लेकिन रद्द करने की नहीं। RJD, कांग्रेस और वाम दलों ने भी अपने घोषणापत्र में केवल “नीति की समीक्षा” का वादा किया है। जाहिर है, कोई भी दल महिलाओं को अपने खिलाफ करने का जोखिम नहीं लेना चाहता।
लेकिन आंकड़े कुछ और कहानी कहते हैं। शराबबंदी ने जितना नैतिक सुधार लाने का दावा किया था, उतनी गहराई में विफलताएं भी दी हैं। 2016 से 2025 के बीच 12.79 लाख लोग गिरफ्तार किए गए जिनमें लगभग 85 प्रतिशत SC, EBC और OBC वर्ग से हैं। इन गिरफ्तारियों ने गरीबों और श्रमिक वर्ग के जीवन को बर्बाद कर दिया। बहुत से मामलों में आरोप मामूली थे, पर अदालतों में मामले वर्षों तक लटके रहे। बिहार पुलिस और न्यायपालिका, दोनों पर इन मामलों का भारी बोझ पड़ा।दूसरी तरफ, शराबबंदी ने अवैध शराब के कारोबार को नया जीवन दे दिया। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में अवैध शराब का सालाना कारोबार अब ₹20,000 करोड़ से अधिक का हो चुका है। माफिया, पुलिस और स्थानीय प्रशासन का गठजोड़ खुला राज़ बन गया है। सारण, सीवान, गोपालगंज और भागलपुर जैसे जिलों में जहरीली शराब से 190 से अधिक लोगों की मौतें दर्ज की गई हैं जिनमें 2022 का सारण कांड सबसे बड़ा था, जिसमें अकेले 70 से अधिक लोग मारे गए।राज्य को इस नीति के चलते ₹30,000 करोड़ से अधिक राजस्व का नुकसान हुआ है। यह वही पैसा है जो विकास योजनाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे पर खर्च हो सकता था। लेकिन सरकार इस घाटे को सामाजिक सुधार के नाम पर जायज ठहराती रही है नीतीश कुमार जानते हैं कि शराबबंदी उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है। महिलाओं का भरोसा बनाए रखने के लिए वे किसी भी आलोचना के बावजूद इस नीति को छूने नहीं देते। बीजेपी, जो NDA की दूसरी बड़ी साझेदार है, खुद शराबबंदी को लेकर असहज है। पार्टी के कई नेता अंदरखाने इसे विफल नीति बताते हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर चुप रहते हैं। गृहमंत्री अमित शाह से जब इस विषय पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने साफ कहा बिहार में शराबबंदी जारी रहेगी।
यह बयान राजनीतिक रूप से समझदारी भरा था, क्योंकि बीजेपी भी जानती है कि महिलाओं का वोट नाराज़ हुआ तो सारा गणित बिगड़ सकता है।हालाँकि, NDA के भीतर दरारें भी दिखती हैं। HAM के नेता जीतन राम मांझी इसे गरीबों पर अन्याय बताते हैं, जबकि लोक जनशक्ति पार्टी ने भी इस नीति को “विफल सामाजिक प्रयोग” कहा है। मगर राजनीति के समीकरण ऐसे हैं कि कोई भी दल इसे खुलकर मुद्दा नहीं बनाना चाहता।विपक्ष के पास भी इस मुद्दे को उछालने का साहस नहीं दिखता। तेजस्वी यादव ने सार्वजनिक रूप से केवल “समीक्षा” की बात की है। वह ताड़ी पर लगे प्रतिबंध को हटाने का वादा करते हैं, लेकिन शराबबंदी को खत्म करने की बात नहीं करते। कांग्रेस और वाम दल भी इसी रेखा पर हैं।सिर्फ प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी ने खुलकर शराबबंदी को “फेल नीति” बताया है। उनका दावा है कि अगर उनकी सरकार बनी, तो “10 मिनट के भीतर शराबबंदी खत्म करने का आदेश जारी करेंगे।” उन्होंने यह भी कहा कि शराबबंदी हटने से राज्य को ₹28,000 करोड़ सालाना राजस्व मिलेगा, जिससे बिहार विश्व बैंक से ₹5-6 लाख करोड़ का कर्ज लेकर विकास कर सकता है।लेकिन जनसुराज की लोकप्रियता अभी इतनी नहीं है कि यह बहस जनस्तर पर बड़ी हो सके। जनता में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में इस मुद्दे को लेकर गुस्सा तो है, पर आंदोलन नहीं। पुरुष वर्ग नाराज है, पर महिलाएं संतुष्ट हैं यही संतुलन नीतीश सरकार को अब तक बचाए हुए है।इस नीति ने बिहार के सामाजिक ढांचे में एक नया वर्ग-विभाजन पैदा कर दिया है। गरीब और पिछड़े तबके के पुरुष इस नीति के सबसे बड़े शिकार बने हैं न केवल गिरफ्तारियों में, बल्कि रोज़गार और सम्मान में भी। वहीं, महिलाएं इसे राहत के रूप में देखती हैं।इससे एक सामाजिक द्वंद्व पैदा हुआ है एक ओर नैतिक सुधार का दावा, दूसरी ओर आर्थिक और सामाजिक हानि की सच्चाई।गांवों में शराबबंदी के बाद “अवैध शराब” ने घरों के भीतर जगह बना ली है। खुले में नहीं, पर चोरी-छिपे चल रहे व्यापार ने अपराध का एक नया नेटवर्क खड़ा कर दिया है। और जब तक पुलिस-प्रशासन इस गठजोड़ में शामिल रहेगा, तब तक कोई भी नीति कागज़ से आगे नहीं बढ़ सकेगी।
अब यह स्पष्ट है कि शराबबंदी अपने घोषित उद्देश्यों से भटक चुकी है। सवाल यह नहीं कि नीति सही थी या गलत बल्कि यह है कि इसे लागू करने का तरीका त्रुटिपूर्ण था। बिहार को अब दो में से एक रास्ता चुनना होगा या तो इस नीति की ईमानदार समीक्षा कर इसे व्यवहारिक रूप दिया जाए जिसमें सीमित मात्रा में लाइसेंस प्रणाली, शिक्षा और पुनर्वास पर फोकस हो;या फिर इसे राजनीतिक बंदोबस्त मानकर हटाया जाए।नीतीश कुमार के लिए यह नीति उनकी “सुशासन” पहचान का प्रतीक है, इसलिए उससे पीछे हटना मुश्किल है। लेकिन अगर राज्य आर्थिक रूप से पिछड़ता रहा और अवैध कारोबार बढ़ता गया, तो वही नीति आने वाले समय में राजनीतिक बोझ भी बन सकती है।शराबबंदी बिहार की राजनीति में नैतिकता और व्यवहारिकता की टकराहट बन चुकी है। एक तरफ महिलाएं हैं जो इसे घर की शांति और सुरक्षा से जोड़ती हैं; दूसरी तरफ गरीब और श्रमिक वर्ग है जो इसे अपने जीवन की त्रासदी मानता है। राजनीतिक दलों के लिए यह दोधारी तलवार है समर्थन छोड़ना भी मुश्किल, और असल सुधार करना भी।नौ साल बाद भी बिहार इस सवाल से जूझ रहा है क्या शराबबंदी सचमुच सुधार है, या सत्ता की रणनीति का साधन?जब तक इसका उत्तर नीति के बजाय नीयत में नहीं खोजा जाएगा, तब तक बिहार का समाज ‘नशामुक्त’ नहीं, बल्कि ‘नीतिमुक्त’ ही बना रहेगा।
				
					


