बिहार में एनडीए का चुनावी ‘त्रिशूल’ जाति, राष्ट्र और हिंदुत्व से घिरा विपक्ष

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
बिहार की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। अक्टूबर-नवंबर 2025 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले ही राज्य में सियासी तापमान तेजी से बढ़ गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए एक बार फिर सत्ता में वापसी की तैयारी में है, और इसके लिए उसने राजनीति की लगभग हर परत को बारीकी से साधना शुरू कर दिया है। दूसरी ओर तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की जोड़ी इंडिया गठबंधन के बैनर तले बिहार की सत्ता में वापसी का सपना संजोए हुए है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह जोड़ी एनडीए की मजबूत रणनीति, गढ़े गए राष्ट्रवादी माहौल, सामाजिक समीकरण और हिंदुत्व के एजेंडे को तोड़ पाएगी?एनडीए इस बार चुनावी रणभूमि में पूरी तैयारी और ठोस रणनीति के साथ उतरा है। सबसे बड़ा हथियार बना है हाल ही में पाकिस्तान में हुए “ऑपरेशन सिंदूर” का प्रभाव। पहलगाम हमले के जवाब में भारतीय सेना द्वारा की गई इस कार्रवाई को प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल भारत की सैन्य क्षमता का प्रतीक बताया, बल्कि इसे एक भावनात्मक मुद्दा भी बना दिया है। बिहार की रैलियों में मोदी ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब उनकी सरकार ही दे सकती है, और उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर की तुलना एयर स्ट्राइक व सर्जिकल स्ट्राइक से करते हुए इसे “भारत की ललकार” बताया। इस घटनाक्रम ने बीजेपी को राष्ट्रवाद के मजबूत नैरेटिव को गढ़ने का सुनहरा अवसर दे दिया है, जिसका लाभ बिहार जैसे राज्य में, जहां पाकिस्तान विरोधी भावनाएं पहले से ही गहरी हैं, मिलना तय है।
लेकिन एनडीए की रणनीति सिर्फ भावनाओं पर नहीं टिकी है। मोदी और नीतीश की जोड़ी इसे ‘विकास और स्थिरता’ के मॉडल के रूप में पेश कर रही है। प्रधानमंत्री मोदी लगातार बिहार का दौरा कर रहे हैं और उन्होंने कई योजनाओं की घोषणाएं करके यह संदेश देने की कोशिश की है कि केंद्र सरकार राज्य के विकास को लेकर गंभीर है। इसी क्रम में नीतीश कुमार को एक बार फिर सीएम चेहरा घोषित किया गया है, जिससे राजनीतिक स्थिरता और अनुभव को भी वोटरों के बीच बेचा जा सके। विकास के नाम पर सड़कों का निर्माण, रोजगार योजनाएं, स्किल इंडिया जैसे प्रोजेक्ट्स, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, और डिजिटल बिहार जैसे एजेंडे को गिना कर बीजेपी-जेडीयू गठबंधन एक बार फिर “डबल इंजन सरकार” की छवि को मजबूत करने में जुटा है।बिहार चुनाव में हमेशा से जातीय समीकरण एक निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। इस बार एनडीए ने जातियों के संतुलन को सबसे चतुराई से साधा है। बीजेपी जहां अपने पारंपरिक सवर्ण और मध्यवर्गीय वोट बैंक को बनाए रखने में सफल रही है, वहीं उसने ओबीसी और दलित वर्गों में भी गहरी पैठ बनाई है। जेडीयू का कुर्मी और अतिपिछड़ा वोट, जीतनराम मांझी की हम पार्टी का महादलित वोट, चिराग पासवान का दुसाध समुदाय और उपेंद्र कुशवाहा का कोइरी समाज इन सबको मिलाकर एनडीए ने करीब 65 फीसदी वोटबैंक को साधने की योजना बना ली है। यह जातीय गठबंधन इतना विविध और मजबूत है कि विपक्ष के लिए इसे भेद पाना फिलहाल मुश्किल दिख रहा है।
इसी जातीय गणित के जवाब में तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की जोड़ी जातिगत जनगणना को बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी। लेकिन जब केंद्र सरकार ने खुद 2027 की जनगणना में जातिगत आंकड़ों को शामिल करने की घोषणा कर दी, तो विपक्ष का सबसे धारदार मुद्दा कमजोर पड़ गया। इसके अलावा, नीतीश कुमार पहले ही राज्य में जातिगत सर्वे करवा चुके हैं, जिससे यह दिखाया जा सके कि एनडीए भी सामाजिक न्याय के मुद्दों को समझता है। ऐसे में विपक्ष के लिए यह दावा करना कि सिर्फ वे ही सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं, अब आसान नहीं रह गया है।एनडीए की यह रणनीति विपक्ष को सिर्फ विकास और जातीय समीकरण में ही नहीं, बल्कि हिंदुत्व के मुद्दे पर भी पीछे धकेल रही है। बीजेपी ने बिहार में धार्मिक आधार पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए खुलकर हिंदुत्व की राजनीति को धार दी है। केंद्रीय मंत्री गिरीराज सिंह जैसे नेताओं को सक्रिय किया गया है, जिन्होंने “सनातन यात्रा” के जरिए हिंदुओं को एकजुट करने की मुहिम चलाई है। साथ ही गृह मंत्री अमित शाह ने बिहार में माता सीता के भव्य मंदिर निर्माण की घोषणा करके भावनात्मक जुड़ाव को और बढ़ावा दिया है। यह रणनीति उस राज्य में अपनाई जा रही है जहां मुस्लिम आबादी करीब 17 प्रतिशत है और महागठबंधन की ताकत का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम-यादव समीकरण से आता है। लेकिन अगर बीजेपी हिंदू वोटों का एकजुटीकरण करने में सफल हो जाती है, तो विपक्ष के पारंपरिक समीकरण धराशायी हो सकते हैं।
एनडीए की एक और चाल जिसकी चर्चा कम हो रही है, लेकिन उसका प्रभाव गहरा हो सकता है, वह है प्रवासी बिहारियों को सक्रिय करना। बीजेपी की योजना है कि वह अन्य राज्यों और देशों में रहने वाले करीब तीन करोड़ बिहारी प्रवासियों से संपर्क साधे और उन्हें चुनाव के समय राज्य लौटने के लिए प्रेरित करे। इसके लिए डिजिटल अभियान से लेकर संपर्क समितियों तक का गठन किया जा रहा है, जिससे बड़े पैमाने पर बाहर रहने वाले मतदाता भी एनडीए के पक्ष में वोट डाल सकें। यह रणनीति चुपचाप लेकिन प्रभावशाली तरीके से एनडीए के मतों में इजाफा कर सकती है।इस सबके बीच विपक्ष की हालत थोड़ी कमजोर दिख रही है। तेजस्वी यादव राज्य की यात्रा कर रहे हैं, रैलियां कर रहे हैं, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं, लेकिन उनकी बातों को वह गति नहीं मिल रही जो उन्हें मिलनी चाहिए। राहुल गांधी की पदयात्राएं और सामाजिक न्याय की बात फिलहाल बिहार में ठोस वोटों में तब्दील होती नहीं दिख रही। साथ ही महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर चल रही अंदरूनी खींचतान भी एनडीए के मुकाबले उसे कमजोर बना रही है। कांग्रेस, आरजेडी और वामपंथी दलों के बीच तालमेल की कमी साफ दिख रही है, जिससे मतदाता का भरोसा डगमगा सकता है।
फिलहाल स्थिति यह है कि मोदी और नीतीश की जोड़ी ने राजनीति की हर दिशा में बढ़त ले ली है चाहे वह भावनाओं का मोर्चा हो, जातीय संतुलन हो, विकास की कहानी हो या हिंदुत्व की धारा। इन सबके आगे विपक्ष के पास न तो कोई नया चेहरा है, न नई भाषा, और न ही कोई चमत्कारी रणनीति। तेजस्वी और राहुल की जोड़ी को न सिर्फ जनता को लुभाना है, बल्कि एनडीए की मजबूत छवि को भी तोड़ना है और यह आसान काम नहीं है। बिहार चुनाव 2025 दरअसल उस विचारधारा की परीक्षा है जिसमें एक ओर केंद्रित सत्ता, राष्ट्रवाद और धार्मिक भावनाएं हैं और दूसरी ओर सामाजिक न्याय, समावेशिता और जनसंघर्ष की परंपरा। इस बार मतदाता न केवल सरकार चुनेंगे, बल्कि वे यह भी तय करेंगे कि बिहार आगे किस दिशा में जाएगा संगठित विकास की ओर या सामाजिक बदलाव की ओर। लेकिन अब तक की सियासी बिसात देखें, तो बाज़ी फिलहाल एनडीए के पाले में दिखाई दे रही है।