मुस्लिम हुए उपेक्षित, बिहार में सियासी तराजू झुक गया!
बिहार चुनाव से पहले महागठबंधन का बड़ा दांव! तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री चेहरा और मुकेश सहनी बने उपमुख्यमंत्री उम्मीदवार। मुस्लिम समुदाय में नाराज़गी बढ़ी, प्रतिनिधित्व पर सियासी सवाल तेज। क्या जातीय संतुलन की यह रणनीति कामयाब होगी या महागठबंधन को होगा नुकसान?


बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय और धार्मिक समीकरणों का खेल रही है। हर चुनाव में यही समीकरण तय करते हैं कि सत्ता की कुर्सी किसके हाथ जाएगी। 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले महागठबंधन ने बड़ा राजनीतिक दांव खेला है। तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा और विकासशील इंसान पार्टी के मुखिया मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया गया। यह फैसला पटना में हुआ और राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी। लेकिन इसके साथ ही बिहार की लगभग 18 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को सत्ता में प्रतिनिधित्व न देने का सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। यह सिर्फ भावनात्मक सवाल नहीं है बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील है। लगभग 1.8 करोड़ मुस्लिम मतदाता बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका रखते हैं और 2020 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों जैसे सीमांचल, मगध और मिथिलांचल में महागठबंधन की जीत में मुस्लिम वोटों का बड़ा योगदान रहा। फिर भी इस बार जब मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री बनाया गया, जो मल्लाह समुदाय से आते हैं और जिनकी आबादी राज्य में लगभग 2-3 प्रतिशत है, मुस्लिम समाज में असंतोष देखा जा रहा है। लोगों का सवाल है कि जब 2-3 प्रतिशत आबादी को सत्ता में प्रतिनिधित्व मिला, तो 18 प्रतिशत आबादी को क्यों नहीं।
महागठबंधन के इस फैसले के पीछे गहरी राजनीतिक रणनीति छिपी है। पहला कारण है ईबीसी और ओबीसी वर्ग के वोटों को जोड़ना। 2020 के चुनाव में यादव-मुस्लिम गठजोड़ मजबूत रहा, लेकिन ईबीसी और अन्य पिछड़े वर्गों में गठबंधन का असर कमजोर दिखाई दिया। बीजेपी-जेडीयू ने ईबीसी वोटों में सेंध लगाकर बढ़त बनाई और चुनाव का समीकरण बदल दिया। इस बार महागठबंधन उसी गलती को दोहराना नहीं चाहता। मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री बनाना ईबीसी और पिछड़े वर्गों के समर्थन को मजबूत करने की रणनीति का हिस्सा है। मल्लाह समुदाय का प्रभाव लगभग 40 सीटों तक माना जाता है और इसे साधने का संकेत महागठबंधन ने सहनी को उपमुख्यमंत्री बनाकर दिया। जातीय संतुलन का यह प्रयास राजनीतिक दृष्टि से समझदारी भरा है, लेकिन इसका सीधा असर मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर पड़ा है।
दूसरा कारण है चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बचना। अगर मुस्लिम नेता को उपमुख्यमंत्री बनाया जाता, तो विपक्ष इसे “मुस्लिम तुष्टिकरण” का मुद्दा बना सकता था और चुनाव पूरी तरह हिंदू-मुस्लिम बहस में बदल सकता था। बिहार के पिछले चुनावों के अनुभव बताते हैं कि ऐसे मोर्चे विपक्ष को अप्रत्याशित लाभ दे सकते हैं। इसलिए महागठबंधन ने चुनाव की लड़ाई को ‘अगड़ा बनाम पिछड़ा’ के मुद्दे तक सीमित रखने का फैसला किया। इसका उद्देश्य केवल सीटें जीतना नहीं, बल्कि चुनाव की कथा और नैरेटिव को नियंत्रित करना भी था। इस रणनीति के जरिए महागठबंधन ने खुद को संभावित सांप्रदायिक विभाजन से बचाने की कोशिश की है।
तीसरा कारण है गठबंधन के भीतर संतुलन। वीआईपी पार्टी ने इस चुनाव में 15-20 सीटों की मांग की थी और मुकेश सहनी का भरोसेमंद समर्थन महागठबंधन के लिए महत्वपूर्ण था। उनकी उपस्थिति से यह संकेत गया कि गठबंधन टूटने का जोखिम नहीं है और ईबीसी-ओबीसी हिस्सेदारी के जरिए वोटों का समेकन संभव है। वहीं मुस्लिम नेतृत्व में कोई ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं था जिसे पूरी तरह से सभी गठबंधन दल स्वीकार करते। राजद के वरिष्ठ मुस्लिम नेता मौजूद हैं, लेकिन कांग्रेस और अन्य दलों के अपने दावे हैं। ऐसे में किसी एक को शीर्ष पद देना आंतरिक असंतुलन पैदा कर सकता था। इसलिए मुस्लिम नेताओं को फिलहाल उच्च पद पर नहीं रखा गया।
बिहार के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम मतदाता कई सीटों पर निर्णायक होते हैं। सीमांचल क्षेत्र में लगभग 20-25 सीटें हैं, जिनमें मुस्लिम आबादी 25-60 प्रतिशत के बीच है। मगध और मिथिलांचल के कुछ जिलों में मुस्लिम आबादी 15-30 प्रतिशत है। इन क्षेत्रों में अगर मुस्लिम वोट में दरार आई तो यह सीधे सीटों पर असर डाल सकता है। 2020 में राजद ने सीमांचल में लगभग 17-18 सीटें जीतीं और मुस्लिम समर्थन इसमें निर्णायक रहा। इस बार अगर AIMIM या स्थानीय मुस्लिम नेता सक्रिय हुए, तो महागठबंधन को नुकसान उठाना पड़ सकता है।
इस फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय में नाराजगी देखने को मिल रही है। कई मुस्लिम नेताओं और स्थानीय संगठनों ने इसे “वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल” का आरोप दिया है। सोशल मीडिया पर लोग इस फैसले के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं और हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। सीमांचल, किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया जैसे मुस्लिम बहुल इलाके सीधे प्रभावित हो सकते हैं। अगर मुस्लिम वोटों में थोड़ी भी दरार आई, तो यह गठबंधन के लिए गंभीर चुनौती बन सकती है। फिर भी एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम मतदाताओं का चुनाव में बीजेपी को हराने को प्राथमिकता देता है। इसलिए अल्पकाल में नुकसान सीमित रह सकता है, लेकिन दीर्घकाल में यह भरोसा कमजोर पड़ सकता है।
राजनीतिक रूप से यह रणनीति दोनों पहलुओं वाली है। एक ओर ईबीसी और पिछड़े वर्गों के वोट महागठबंधन की ओर आकर्षित होंगे। मुकेश सहनी का उपमुख्यमंत्री चेहरा इस वर्ग के लिए संकेत है कि उनकी हिस्सेदारी महागठबंधन में अहम है। दूसरी ओर, मुस्लिम प्रतिनिधित्व की कमी महागठबंधन की समावेशी छवि को कमजोर कर सकती है। 2020 के चुनाव में राजद के 75 विधायकों में 17 मुस्लिम थे। शीर्ष स्तर पर मुस्लिम अनुपस्थिति से विपक्षी दल हमला कर सकते हैं और इसे राजनीतिक मुद्दा बना सकते हैं।
महागठबंधन को अब चुनाव के दौरान और बाद में मुस्लिम नाराजगी को संतुलित करना होगा। मंत्रिमंडल और टिकट वितरण में मुस्लिम नेताओं को हिस्सेदारी देने से इस नुकसान को कम किया जा सकता है। अगर यह नहीं हुआ, तो सीमांचल और मगध के मुस्लिम बहुल इलाके विपक्ष के लिए आसान लक्ष्य बन सकते हैं। हालांकि, कई मुस्लिम मतदाता अभी भी बीजेपी के खिलाफ हैं और एंटी-बीजेपी भावना के तहत महागठबंधन के साथ रह सकते हैं।
पिछड़े वर्गों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि बिहार में कुल आबादी का लगभग 35-40 प्रतिशत ईबीसी और 27-28 प्रतिशत ओबीसी है। यादवों का आंकड़ा 12-13 प्रतिशत है और मल्लाह तथा निषाद वर्ग का लगभग 3-4 प्रतिशत। इस गणित को साधते हुए महागठबंधन ने उपमुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में ईबीसी प्रतिनिधित्व को चुना। इसका उद्देश्य सीमांचल और उत्तर बिहार के कई पिछड़े वर्गों को जोड़ना था, ताकि पिछड़े वर्गों के बिखरे वोट महागठबंधन के पक्ष में आए। इसके साथ ही मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भरता भी बनी रहे, यह चुनौती महागठबंधन के सामने है।
इस पूरी स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि महागठबंधन ने जातीय और सामाजिक समीकरणों को साधते हुए चुनावी रणनीति बनाई है, लेकिन धार्मिक दृष्टि से यह जोखिम भरा है। तेजस्वी यादव की राजनीति अब सिर्फ यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर नहीं, बल्कि व्यापक पिछड़ा वर्ग और ईबीसी वोटों के समर्थन पर आधारित दिखती है। इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक स्थिर रहे। अगर नाराजगी बढ़ी और प्रतिनिधित्व नहीं मिला, तो यह रणनीति राजनीतिक जोखिम बन सकती है। बिहार की सियासत में 18 प्रतिशत आबादी को नजरअंदाज करना किसी भी दल के लिए आसान नहीं है। वोट बैंक और वास्तविक प्रतिनिधित्व के बीच संतुलन ही तय करेगा कि पटना की कुर्सी किसके हाथ जाएगी।
बिहार की सियासत में जातीय गणित, पिछड़े वर्गों का दबाव और मुस्लिम प्रतिनिधित्व के मुद्दे का मिश्रण स्पष्ट है। महागठबंधन का यह निर्णय जातीय संतुलन, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बचाव और आंतरिक गठबंधन को बनाए रखने का प्रयास है। अगर चुनाव से पहले या बाद में मुस्लिम नेताओं को उचित प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी मिलती है, तो नुकसान सीमित रह सकता है। लेकिन अगर यह नहीं हुआ, तो सीमांचल और मगध में मत खिसकाव और विपक्ष को फायदा संभव है। यह दिखाता है कि बिहार की राजनीति में सिर्फ जातीय गणित ही नहीं, बल्कि सामाजिक और धार्मिक संतुलन भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यही संतुलन तय करेगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की रणनीति सफल होगी या यह राजनीतिक जोखिम साबित होगी।
				
					


