बिहार की सियासत में क्षत्रिय का विद्रोह आरके सिंह की बगावत से भाजपा की नींद हराम
Bihar Politics : बिहार के राजनीति की शुरुआत करने वाले नौकरशाह और पूर्व मंत्री आर के सिंह का नाम कभी भगवा आतंकवाद शब्द के इस्तेमाल से जुड़ा था। लेकिन इसके बाद भी बीजेपी ने दरियादिली दिखाई। मगर अब तो आरके सिंह सीधे मोदी से ही मोर्चा लेने वाली शक्ल में दिख रहे हैं।


बिहार की सियासत हमेशा से जातीय समीकरणों का गढ़ रही है। यहां वोट की ताकत जाति की धुरी पर टिकी होती है, और जैसे-जैसे 2025 का विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, ये खेल और तेज हो चला है। इस बीच, पूर्व केंद्रीय ऊर्जा मंत्री राजकुमार सिंह, जिन्हें लोग आरके सिंह के नाम से जानते हैं, ने अपनी ही पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर खुलकर हमला बोला है। आरा में हाल ही में क्षत्रिय समाज के एक कार्यक्रम में उनके तीखे बोल ने सियासी हलकों में हड़कंप मचा दिया। उन्होंने साफ कहा, “वोट उसी दल को दीजिए जो राजपूत समाज को इज्जत और हिस्सेदारी दे। बिहार भाजपा के मंच पर एक भी क्षत्रिय चेहरा नहीं दिखता, और केंद्र की सत्ता में भी हमारा कोई वजन नहीं।” ये बयान सुनकर सभा में बैठे लोग तालियां पीटने लगे, लेकिन दिल्ली और पटना में भाजपा के दफ्तरों में ये शब्द सुई की तरह चुभ रहे होंगे। क्या ये सिर्फ हताशा है, या सुनियोजित रणनीति? सवाल ये भी उठ रहा है कि नौकरशाही के कड़क अफसर रहे आरके सिंह अब जाति की राजनीति क्यों कर रहे हैं? क्या अफसरी के दिनों में भी उनके भीतर जातिवादी सोच थी, जो अब खुलकर सामने आ रही है?
आरके सिंह का ये तेवर कोई अचानक नहीं फूटा। 2024 के लोकसभा चुनाव में आरा से उनकी हार ने उन्हें गहरी चोट पहुंचाई। दो बार सांसद और मोदी कैबिनेट में केंद्रीय मंत्री रहे इस दिग्गज को भाकपा-माले के सुदामा प्रसाद ने करीब 60 हजार वोटों से मात दी। भाजपा की आंतरिक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि हार का सबसे बड़ा कारण सिंह का अपने क्षेत्र से दूरी बनाए रखना था। उनकी उम्मीदवारी घोषित होने के 23 दिन बाद वे आरा पहुंचे, जिसके चलते कार्यकर्ताओं से तालमेल नहीं बन सका। विरोधी दल इस बार ज्यादा संगठित और सक्रिय थे, और सिंह ने उनकी ताकत को कम आंका। लेकिन सिंह इसे पार्टी के भीतर की गुटबाजी और साजिश का नतीजा बताते हैं। उन्होंने कुछ नेताओं पर आरोप लगाया कि उन्होंने भोजपुरी फिल्म स्टार पवन सिंह को पैसे देकर काराकाट से निर्दलीय चुनाव लड़वाया। पवन सिंह, जो खुद राजपूत समाज से हैं, ने कुशवाहा बहुल काराकाट में उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ उतरकर राजपूत वोटों को बांट दिया। इसका नतीजा सिर्फ काराकाट तक सीमित नहीं रहा। आरा, औरंगाबाद, बक्सर और सासाराम जैसी सीटों पर भी एनडीए को करारी हार का सामना करना पड़ा। राजपूत और कुशवाहा समाजों के बीच की ये अनबन पूरे शाहाबाद डिवीजन में भारी पड़ गई।
बिहार में राजपूत समाज की ताकत कोई नई बात नहीं है। 2020 के विधानसभा चुनाव में 28 राजपूत विधायक चुने गए थे, लेकिन 2024 के लोकसभा में सिर्फ 6 सांसद। ये गिरावट समाज में बढ़ते असंतोष को दिखाती है। आरके सिंह ने इसी नाराजगी को हवा दी। आरा के बाबू बाजार में क्षत्रिय कल्याण संगठन के कार्यालय उद्घाटन के मौके पर उन्होंने राजपूत समाज से एकजुट होने की अपील की। “क्या हमें अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनानी चाहिए?” ये सवाल पूछते ही सभा में हंगामा मच गया। सिंह ने साफ किया कि वे व्यक्तिगत रूप से चुनाव नहीं लड़ेंगे, लेकिन समाज की आवाज बुलंद करते रहेंगे। टिकट बंटवारे से तय होगा कि वोट किस दल को जाएगा। सियासी जानकारों को लगता है कि ये बयान जन सुराज जैसे मंच या नई क्षेत्रीय पार्टी की ओर इशारा कर रहे हैं। कुछ लोग कयास लगा रहे हैं कि आरके सिंह 2025 में आरा से विधानसभा चुनाव भी लड़ सकते हैं।
पवन सिंह का नाम आरा की सियासत में बार-बार उछल रहा है। भोजपुरी सिनेमा के पावर स्टार ने 2024 में भाजपा से बगावत कर काराकाट से निर्दलीय चुनाव लड़ा। पहले भाजपा ने उन्हें पश्चिम बंगाल के आसनसोल से टिकट दिया, लेकिन विवाद के बाद उसे रद्द कर दिया गया। फिर दूसरी सीट का वादा किया गया, जो पूरा नहीं हुआ। नाराज पवन सिंह ने काराकाट में उतरकर राजपूत वोटों को लामबंद कर दिया। आरके सिंह ने इसे पार्टी की गलती बताया। “पवन मुझसे मिले थे, उन्होंने सारी बात बताई। उनके साथ अन्याय हुआ। उन्हें भाजपा में वापस लाना चाहिए।” अगस्त 2025 में दिल्ली में दोनों की मुलाकात हुई, जिसकी तस्वीरें पवन ने इंस्टाग्राम पर डालीं। “एक नई सोच के साथ एक नई मुलाकात,” ये कैप्शन सियासी हलकों में चर्चा का विषय बन गया। अगर आरके सिंह और पवन सिंह एक मंच पर आए, तो शाहाबाद में राजपूत वोट बैंक भाजपा के लिए मुसीबत बन सकता है। पवन का फैन बेस युवाओं और राजपूत समाज में गहरा है, और उनकी जोड़ी एनडीए के समीकरण बिगाड़ सकती है।
आरके सिंह का सियासी सफर नौकरशाही से लेकर सत्ता के शिखर तक का रोचक अध्याय है। सुपौल जिले के रहने वाले, 1975 बैच के आईएएस अधिकारी, पटना के डीएम से लेकर केंद्रीय गृह सचिव तक रहे। 2013 में रिटायरमेंट के बाद वे भाजपा में शामिल हुए। 2014 में सुपौल से टिकट की कोशिश की, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने उनका विरोध किया। वजह थी गृह सचिव रहते हुए ‘भगवा आतंकवाद’ वाला विवाद। मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की जांच में सिंह ने कहा था कि 10 संदिग्धों के आरएसएस से लिंक के सबूत हैं। तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी इस शब्द का इस्तेमाल किया था। आरएसएस ने इसे बर्दाश्त नहीं किया, और सुपौल का टिकट कट गया। इसके बाद आरा में राजपूत समीकरण साधकर 2014 और 2019 में जीत हासिल की। पहली जीत पर ही केंद्रीय मंत्री बने। लेकिन 2024 की हार के बाद अब वे उसी भाजपा पर भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के आरोप लगा रहे हैं।
प्रशांत किशोर के जन सुराज ने इस आग में घी डालने का काम किया। दरभंगा की एक सभा में किशोर ने सम्राट चौधरी, दिलीप जायसवाल और अशोक चौधरी पर भ्रष्टाचार, हत्या और कोविड काल में गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगाए। आरके सिंह ने इसका समर्थन करते हुए कहा, “अगर ये लोग पाक-साफ हैं, तो जनता के सामने सफाई दें, वरना इस्तीफा दें।” उन्होंने मंगल पांडेय पर भी निशाना साधा, “उनकी पत्नी के खाते में करोड़ों रुपये कहां से आए?” ये बयान भाजपा के भीतर हलचल मचा रहे हैं। सिंह खुद को पार्टी का अनुशासित सिपाही बताते हैं, बैठकें अटेंड करते हैं, लेकिन उनके बयान बगावत का रंग लिए हुए हैं। ये विरोधाभास उनकी रणनीति का हिस्सा लगता है। शायद वे दबाव बनाकर संसदीय सियासत में अपनी जगह पक्की करना चाहते हैं।
बिहार में राजपूत नाराजगी कोई नई बात नहीं। बीते कुछ सालों में समाज का असंतोष बढ़ा है। राजीव प्रताप रूडी ने भी कुँवर सिंह पुण्यतिथि पर इशारों में कहा था कि कुछ लोग राजपूतों की राह में रोड़े अटका रहे हैं। बिहार में ब्राह्मणों की आबादी (3.65%) राजपूतों (3.45%) से ज्यादा है, लेकिन राजनीतिक हिस्सेदारी में कमी। सभी दल राजपूत वोटरों को साधने में जुटे हैं। अगर आरके सिंह महागठबंधन की ओर मुड़ते हैं या नई पार्टी बनाते हैं, तो एनडीए को शाहाबाद में भारी नुकसान हो सकता है। फरवरी 2025 में सिंह ने गद्दारों को चेतावनी दी थी, “उन्हें छोड़ेंगे नहीं, चुनाव में सजा भुगतेंगे।” अब वे चार नेताओं के नाम गिनाते हैं, जो उनकी हार के लिए जिम्मेदार हैं। अगर टिकट मिला, तो वे खुलकर प्रचार करेंगे।
सवाल ये उठता है कि क्या आरके सिंह की ये बगावत निजी हताशा है, या सियासी शतरंज की चाल? नौकरशाही में कड़क माने जाने वाले सिंह ने हमेशा सख्त रुख अपनाया। अफसरी में जातिवादी न होने का दावा करते हैं, लेकिन अब खुलकर जाति की राजनीति कर रहे हैं। सत्ता के सुख से अलग होते ही भाजपा खराब नजर आने लगी। जिस पार्टी ने उन्हें पहली जीत पर मंत्री बनाया, उसी पर अब तीखे हमले। शायद ये समायोजन की जद्दोजहद है। बिहार की सियासत में जाति का खेल कभी पुराना नहीं पड़ता। आरके सिंह जैसे योद्धा आते रहेंगे, जो वोट की धुरी को हिला दें। 2025 का चुनाव अब सिर्फ सीटों का नहीं, सम्मान का सवाल बन चुका है। अगर राजपूत समाज जाग गया, तो भाजपा को आईना देखना पड़ेगा। वरना, आरा का ये तूफान पूरे बिहार को लपेट लेगा।



