काशी में अखिलेश का ‘हिंदू कार्ड’ मुस्लिम परस्त छवि से बाहर निकलने की तैयारी?

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की राजनीति में सावन के महीने की शुरुआत इस बार किसी धार्मिक पर्व से अधिक राजनीतिक रणनीति का आभास देती है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव 14 जुलाई को बाबा विश्वनाथ का जलाभिषेक करेंगे। पहली नजर में यह एक साधारण धार्मिक कार्यक्रम लगता है, लेकिन इसकी गहराई में जाएं तो यह उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीतिक हवा की बानगी है। यह केवल आस्था का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अखिलेश यादव की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसके जरिये वे 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले सपा की छवि को फिर से गढ़ने की कोशिश में जुटे हैं। यह यात्रा एक संकेत है कि सपा अब केवल सामाजिक न्याय की राजनीति से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रतीकों से भी अपने को जोड़ रही है।समाजवादी पार्टी की पूरी राजनीति अब तक एम-वाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के इर्द-गिर्द रही है। यही समीकरण मुलायम सिंह यादव को तीन बार मुख्यमंत्री बना सका और अखिलेश को 2012 में पहली बार सत्ता दिला सका। लेकिन 2014 के बाद से देश की राजनीति की धुरी बदल गई। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने हिंदू जातियों को एकजुट करने में कामयाबी पाई और ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे के साथ एक ऐसा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद रच डाला, जिसने जाति की दीवारों को भावनाओं के सहारे तोड़ डाला। इसका सबसे बड़ा नुकसान उन क्षेत्रीय दलों को हुआ, जो जातिगत ध्रुवीकरण पर राजनीति करते थे। सपा इसका सबसे बड़ा उदाहरण बनी।

अखिलेश यादव को अब यह स्पष्ट हो चुका है कि केवल मुस्लिम-यादव वोट बैंक के सहारे भाजपा को चुनौती नहीं दी जा सकती। नतीजतन, उन्होंने पार्टी की छवि को बदलने की कोशिश शुरू की है। काशी में जलाभिषेक उसी क्रम का हिस्सा है। अब वे खुद को न सिर्फ युवाओं और किसानों का नेता बताने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि धार्मिक प्रतीकों से भी जुड़ने लगे हैं, ताकि भाजपा के उस सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़ा जा सके जिसने हिंदू मतदाताओं को एकजुट कर दिया है।काशी की इस यात्रा में सबसे खास बात यह है कि इसमें 50,000 यादव बंधु अखिलेश के साथ मौजूद रहेंगे। यह आयोजन सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि एक राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन है। 1952 से चली आ रही जलाभिषेक परंपरा में पहली बार कोई सपा प्रमुख शामिल हो रहा है। यह अखिलेश का अपनी ही जाति के साथ एक नया सामाजिक अनुबंध बनाने की कोशिश है। जहां एक ओर वे भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर वे यह संकेत देना चाहते हैं कि सपा भी अब ‘धर्म विरोधी’ नहीं है।

यह ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राह है, जो सीधे-सीधे भाजपा की हार्ड हिंदुत्व वाली राजनीति से टकराती नहीं, लेकिन उसे काटने का प्रयास जरूर करती है। यह रणनीति आसान नहीं है। यह दोधारी तलवार है। अगर वे हिंदू प्रतीकों की ओर ज्यादा झुकते हैं तो मुस्लिम मतदाता को असहज कर सकते हैं, और यदि नहीं झुकते तो भाजपा के प्रचार तंत्र में ‘मुस्लिम परस्त’ छवि से पीछा नहीं छुड़ा सकते। अखिलेश अब इसी संतुलन को साधने में लगे हैं।2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फार्मूला आजमाया। इसका उन्हें लाभ भी मिला, लेकिन भाजपा ने तुरंत उस फार्मूले को ‘जातीय तुष्टिकरण’ के रूप में प्रचारित कर काटने की कोशिश की। अब जब सपा 2027 की तैयारी कर रही है, तो उसे एक ऐसा विमर्श खड़ा करना है जो भावनात्मक और सामाजिक दोनों स्तरों पर असरकारी हो। काशी की यात्रा उसी भावनात्मक विमर्श की एक शुरुआत है।

लेकिन क्या केवल प्रतीकों से सियासत की नई जमीन तैयार हो सकती है? भाजपा की सबसे बड़ी ताकत यही रही है कि उसने राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और गंगा जैसे प्रतीकों को केवल धार्मिक नहीं, बल्कि विकास और गौरव के प्रतीक में बदल दिया। अखिलेश इस कॉन्टेस्ट में नए खिलाड़ी हैं। उन्हें यह दिखाना होगा कि वे केवल प्रतीकों तक सीमित नहीं, बल्कि विकास और सुशासन का भी वैकल्पिक एजेंडा रखते हैं। अगर वे केवल जलाभिषेक तक ही सीमित रहेंगे, तो भाजपा इसे तुरंत ‘मौकापरस्ती’ करार दे देगी और हिंदू मतदाता को सपा के इरादों पर शक हो सकता है।दूसरी चुनौती यह है कि भाजपा के पास योगी आदित्यनाथ जैसा नेता है, जो खुद गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर हैं और जिनकी धार्मिक आस्था को चुनौती नहीं दी जा सकती। अखिलेश की आस्था कितनी गहरी है, इस पर मतदाता विश्वास तभी करेगा जब इसके साथ कार्य संस्कृति, ईमानदारी और सुशासन भी जुड़े। वरना भाजपा का नैरेटिव यही रहेगा कि यह सब चुनावी नौटंकी है।

फिर भी, यह मानना होगा कि अखिलेश ने अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाया है। यह जोखिम उन्हें दो लाभ दिला सकता है एक, भाजपा की प्रचार पिच को थोड़ा कमजोर कर सकता है, और दूसरा, समाजवादी पार्टी को ‘सांप्रदायिक राजनीति से ऊपर उठकर व्यापक स्वीकार्यता’ की तरफ ले जा सकता है। यह प्रयोग सफल हुआ तो सपा न सिर्फ अपनी खोई जमीन पा सकती है, बल्कि दलितों, पिछड़ों और उदार हिंदू तबकों में भी भरोसे की वापसी कर सकती है।लेकिन यह यात्रा सिर्फ शुरुआत है। अगर इस जलाभिषेक के बाद भी सपा सड़कों पर, गांवों में, संस्थानों में, नौजवानों के बीच और मुसलमानों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई, तो यह प्रतीकवाद बेअसर साबित होगा। राजनीति केवल मंच और मंदिर से नहीं चलती, उसे ज़मीन पर पसीना बहाकर ही जीता जाता है।

उत्तर प्रदेश के सियासी फलक पर यह पहला मौका है जब सपा ने भाजपा के खिलाफ प्रतीकों की जंग छेड़ी है। अखिलेश का यह दांव साहसी है, पर इसकी परिणति अभी अनिश्चित है। धर्म की राजनीति में संतुलन बनाना सबसे मुश्किल काम होता है। लेकिन अगर उन्होंने यह संतुलन साध लिया, तो वे न सिर्फ भाजपा की पिच पर टिक पाएंगे, बल्कि उसे उसी की शैली में चुनौती भी दे पाएंगे।काशी के बाबा विश्वनाथ के दरबार में सिर झुकाना केवल व्यक्तिगत श्रद्धा नहीं, बल्कि सपा के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने वाला क्षण बन सकता है। यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक निर्णायक मोड़ का संकेत है। अब यह जनता पर निर्भर है कि वह इस परिवर्तन को कितना गहराई से समझती है और कितना स्वीकार करती है।

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