बसपा की रैली से पहले अखिलेश का दांव, आज़म के सहारे मुस्लिम वोट बैंक साधने की कोशिश

उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा मोड़। 23 महीने जेल में रहने के बाद आज़म खान की रिहाई ने सपा में हलचल मचा दी। नाराज़ तेवर और पार्टी की चुप्पी ने सवाल खड़े किए। अब अखिलेश यादव रामपुर जाकर मुस्लिम वोट बैंक मजबूत करने की रणनीति में जुटे हैं, जो 2027 के चुनाव की दिशा तय करेगी।

अजय कुमार, वरिष्ठ            पत्रकार

उत्तर प्रदेश की राजनीति इन दिनों एक बड़े मोड़ से गुजर रही है। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और मुस्लिम राजनीति के सबसे अहम चेहरों में गिने जाने वाले आज़म खान की सीतापुर जेल से रिहाई ने पूरे सियासी परिदृश्य को हिला दिया है। 23 महीने तक जेल की सलाखों के पीछे रहने के बाद जब आज़म खान बाहर निकले तो उनके समर्थकों ने उम्मीद जताई थी कि पार्टी नेतृत्व उन्हें गले लगाकर स्वागत करेगा, लेकिन हुआ इसके उलट। लखनऊ से महज़ 88 किलोमीटर दूर सीतापुर जेल में उनकी रिहाई के वक्त सपा का कोई बड़ा नेता मौजूद नहीं था। इस बात का मलाल खुद आज़म खान ने मीडिया के सामने जाहिर किया। उन्होंने कहा कि अगर वे बड़े नेता होते तो कोई बड़ा नेता रिसीव करने आता, छोटे नेता के लिए कोई नहीं आता। इस बयान ने साफ कर दिया कि आज़म पार्टी से नाराज़ हैं और यही नाराज़गी सपा के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है।

इसी नाराज़गी को शांत करने के लिए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तुरंत रणनीति बनाई और आठ अक्टूबर को रामपुर जाकर आज़म खान से मिलने का कार्यक्रम तय किया। अखिलेश यादव लखनऊ से अमौसी एयरपोर्ट से बरेली पहुंचेंगे और वहां से सड़क मार्ग से रामपुर जाएंगे। आज़म खान के घर पर करीब एक घंटे की मुलाकात के बाद वे वापस लखनऊ लौट आएंगे। पहली नज़र में यह मुलाकात व्यक्तिगत रिश्तों को मज़बूत करने का प्रयास लगती है, लेकिन जानकारों का कहना है कि इसके पीछे गहरी राजनीतिक सोच छिपी हुई है।

आज़म खान की नाराज़गी कोई अचानक नहीं है। 2022 विधानसभा चुनाव और उसके बाद हुए उपचुनावों में जिस तरह से पार्टी ने उनके सुझावों को दरकिनार किया, उससे वे आहत थे। रामपुर सीट पर उनकी मर्ज़ी के खिलाफ प्रत्याशी उतारा गया और उनके कई करीबी नेताओं को टिकट नहीं मिला। जेल से बाहर आने के बाद आज़म ने यह दर्द भी ज़ाहिर किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जब मैं अपने ही आदमी को टिकट नहीं दिला पाया तो किसी और का टिकट कैसे कटवा सकता था। उनकी यह टिप्पणी सपा नेतृत्व पर सीधा सवाल खड़ा करती है कि क्या पार्टी ने अपने पुराने सिपहसालार को मुश्किल समय में अकेला छोड़ दिया।

आज़म खान की रिहाई के बाद जब मीडिया ने उनसे अखिलेश यादव के बारे में पूछा तो शुरू में उन्होंने चुप्पी साध ली। लेकिन अगले ही दिन उनके तेवर बदल गए। उन्होंने कहा कि अखिलेश यादव बड़े नेता हैं, नेताजी की औलाद हैं और हम उनसे उतनी ही मोहब्बत करते हैं जितनी नेताजी से करते थे। यही नरम रुख अखिलेश के लिए संकेत था कि अब वे पहल करें। सूत्रों के मुताबिक, एक महिला विधायक की कोशिश से अखिलेश और आज़म के बीच फोन पर लंबी बातचीत भी हुई और तभी रामपुर दौरे का कार्यक्रम पक्का हुआ।

यह मुलाकात सिर्फ रिश्तों को सुधारने के लिए नहीं बल्कि सपा की मुस्लिम राजनीति को बचाने के लिए भी ज़रूरी है। उत्तर प्रदेश में मुसलमान आबादी का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी का पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है। आज़म खान की पकड़ खास तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बेहद मजबूत है। अगर वे खामोशी से भी सपा से दूरी बना लेते तो इसका सीधा असर वोटों पर पड़ता। ऐसे समय में जब बहुजन समाज पार्टी 9 अक्टूबर को लखनऊ में कांशीराम की पुण्यतिथि पर विशाल रैली कर रही है और मिशन-2027 का शंखनाद करने वाली है, अखिलेश की यह पहल और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। दरअसल अखिलेश यादव यह संदेश देना चाहते हैं कि सपा का मुस्लिम चेहरा आज भी पार्टी के साथ खड़ा है और मायावती या भाजपा इस क्षेत्र में सेंध नहीं लगा पाएंगे।

जेल से रिहा होने के बाद जब पत्रकारों ने आज़म खान से पूछा कि क्या वे बसपा में शामिल होंगे तो उन्होंने कहा कि हमारे पास चरित्र नाम की चीज़ है। इसका मतलब यह नहीं कि हमारे पास कोई पद या ओहदा हो। लोग हमें प्यार करें, इज़्ज़त दें और यह साबित हो कि हम बिकाऊ माल नहीं हैं, यही काफी है। इस बयान ने लगभग साफ कर दिया कि वे सपा छोड़ने वाले नहीं हैं। मगर राजनीति में संभावनाओं के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। यही वजह है कि अखिलेश यादव कोई रिस्क नहीं लेना चाहते और इसीलिए खुद रामपुर जाकर मुलाकात कर रहे हैं।

आज़म खान पर दर्ज मुकदमों को लेकर भाजपा लगातार हमलावर रही है। सरकारी ज़मीन पर कब्ज़े से लेकर शैक्षिक संस्थानों में अनियमितताओं तक, उन पर 104 से अधिक मामले दर्ज हैं। भाजपा का कहना है कि यह कानून का शासन है और किसी को भी कानून से ऊपर नहीं माना जा सकता। वहीं सपा इसे राजनीतिक प्रतिशोध करार देती रही है। अखिलेश यादव कई बार कह चुके हैं कि अगर उनकी सरकार बनी तो आज़म पर दर्ज फर्जी मुकदमों की जांच होगी और निर्दोष साबित होने वालों को राहत दी जाएगी।

रामपुर का राजनीतिक महत्व इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा है। आज़म खान को यहां का बेताज बादशाह माना जाता है। चाहे विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा, उनके इशारे पर यहां की राजनीति चलती रही है। यही वजह है कि सपा नेतृत्व जानता है कि अगर आज़म नाराज़ हुए तो पार्टी को न सिर्फ रामपुर बल्कि पूरे पश्चिमी यूपी में भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है। अखिलेश की यह मुलाकात उस नुकसान को रोकने की कोशिश है।

सवाल यह भी है कि क्या यह मुलाकात महज़ प्रतीकात्मक होगी या इसके बाद पार्टी संगठन में आज़म खान को कोई नई भूमिका दी जाएगी। जानकार मानते हैं कि अगर मुलाकात सकारात्मक रही तो उन्हें पार्टी की मुस्लिम राजनीति का चेहरा बनाकर दोबारा सक्रिय किया जा सकता है। यह न सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक को मजबूती देगा बल्कि पार्टी के भीतर चल रहे असंतोष को भी कम करेगा। हालांकि अगर यह मुलाकात सिर्फ दिखावे तक सीमित रही तो नाराज़गी फिर से सिर उठा सकती है।

मायावती की रैली को देखते हुए अखिलेश का यह कदम बेहद रणनीतिक है। बसपा मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए लंबे समय से प्रयास कर रही है। ऐसे में सपा को यह खतरा था कि अगर आज़म की नाराज़गी बढ़ी तो इसका सीधा फायदा बसपा को मिलेगा। लेकिन अखिलेश की पहल ने यह संकेत दे दिया है कि वे अपने पुराने साथियों को किसी कीमत पर छोड़ने के मूड में नहीं हैं।

कुल मिलाकर, अखिलेश यादव का रामपुर दौरा सिर्फ एक औपचारिक मुलाकात नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति का अहम मोड़ है। यह मुलाकात यह तय करेगी कि समाजवादी पार्टी अपने सबसे पुराने और भरोसेमंद मुस्लिम नेता के साथ रिश्तों को कैसे संभालती है। आज़म खान की नाराज़गी को दूर करना सपा के लिए 2027 की लड़ाई से पहले सबसे बड़ी प्राथमिकता बन चुका है। अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि आठ अक्टूबर को होने वाली यह मुलाकात क्या नए राजनीतिक समीकरण गढ़ेगी या सिर्फ रिश्तों की मरम्मत तक सीमित रहेगी।

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