बसपा की ललकार के बाद सपा मैदान में, दलितों को साधने की होड़ शुरू
उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक को लेकर सपा-बसपा आमने-सामने। मायावती की बड़ी रैली के बाद सपा अलर्ट, 2027 चुनाव से पहले दलितों को साधने की सियासी जंग तेज।


उत्तर प्रदेश की सियासत में इन दिनों एक नया दौर चल रहा है, जहां पुराने खिलाड़ी फिर से मैदान में उतर आए हैं। हाल ही में लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती ने एक बड़ी रैली की, जो नौ साल बाद हुई थी। इस रैली में उन्होंने समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव पर जमकर हमला बोला और उनके पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले को दोगला चरित्र बताया। मायावती ने कहा कि सत्ता में रहते हुए अखिलेश दलितों को भूल जाते हैं, लेकिन सत्ता से बाहर होते ही उन्हें पीडीए याद आ जाता है। उन्होंने कांशीराम स्मारक स्थल की कमाई दबाने का आरोप भी लगाया और योगी सरकार की तारीफ की, क्योंकि उन्होंने स्मारक के रखरखाव पर ध्यान दिया। इस रैली के बाद सपा अलर्ट मोड में आ गई है और पलटवार की तैयारी कर रही है। पार्टी ने दलितों के बीच अपनी पुरानी योजनाओं जैसे समाजवादी पेंशन और आवास स्कीम को गिनाने का प्लान बनाया है। हर जिले में पदाधिकारियों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे जमीन पर उतरकर दलितों को बताएं कि सपा ही उनकी असली हितैषी है। यह सब देखकर लगता है कि 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक को लेकर एक बड़ी जंग छिड़ गई है।
उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की बात करें तो यह कोई नई चीज नहीं है। यहां दलितों की आबादी करीब 22 फीसदी है, जो किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाती है। कांशीराम ने 1984 में बसपा की स्थापना की थी, जिसका मकसद बहुजनों यानी दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करना था। मायावती ने इसे आगे बढ़ाया और 2007 में ऐतिहासिक जीत हासिल की, जब बसपा ने 403 में से 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। उस समय मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपनाया था, जिसमें दलितों के साथ ब्राह्मण और अन्य सवर्णों को भी जोड़ा गया। लेकिन उसके बाद बसपा का ग्राफ गिरता गया। 2012 में सपा की सरकार बनी, 2017 और 2022 में भाजपा ने कब्जा जमाया। 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली, जबकि सपा ने 37 सीटें जीतीं। इसका बड़ा कारण सपा की पीडीए रणनीति थी, जिसमें अखिलेश ने यादव-मुस्लिम आधार को दलितों और पिछड़ों से जोड़ा।
दलित वोट बैंक हमेशा से उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र रहा है। 1990 के दशक में कांशीराम और मायावती ने दलितों को संगठित किया और उन्हें मुख्यधारा में लाया। बसपा की सरकारों में दलितों को आरक्षण, नौकरियां और सम्मान मिला, लेकिन बाद में पार्टी पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोप लगे। वहीं, सपा का इतिहास यादव-केंद्रित रहा है, लेकिन मुलायम सिंह यादव के समय से ही दलितों को साधने की कोशिश होती रही। अखिलेश ने इसे पीडीए के रूप में नया नाम दिया। लेकिन मायावती का आरोप है कि सपा सरकार में दलितों पर अत्याचार हुए और कांशीराम स्मारक की कमाई दबाई गई। दूसरी तरफ, भाजपा भी दलितों को अपनी तरफ खींचने में लगी है। योगी सरकार ने वाल्मीकि जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित किया और दलितों के लिए कई योजनाएं चलाईं। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा का आधार अभी भी सवर्ण और ओबीसी है, जबकि दलित वोट ज्यादातर बसपा या सपा की तरफ जाता है।
मायावती की हालिया रैली को देखें तो यह साफ है कि बसपा अपनी पुरानी ताकत वापस लाने की कोशिश में है। रैली में उन्होंने भाजपा की तारीफ की और सपा-कांग्रेस पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार ने कांशीराम स्मारक का रखरखाव अच्छा किया, जबकि सपा ने पैसा दबाया। यह बयान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मायावती पहले भाजपा के साथ गठबंधन कर चुकी हैं। 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद भी उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाया था। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या मायावती भाजपा के करीब जा रही हैं? या यह सिर्फ सपा को कमजोर करने की रणनीति है? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती को डर है कि उनका दलित वोट बैंक सपा की तरफ शिफ्ट हो रहा है। 2024 लोकसभा चुनाव में जाटव वोटरों ने बसपा को छोड़ दिया और सपा-कांग्रेस को सपोर्ट किया। इसलिए मायावती ने नई सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला पेश किया, जिसमें मुसलमानों पर चुप्पी साधी गई और दलितों पर फोकस किया गया।
सपा की तरफ से पलटवार भी तेज हो गया है। अखिलेश यादव ने मायावती के बयान पर शायराना अंदाज में जवाब दिया- क्योंकि उनकी अंदरूनी सांठगांठ है जारी, इसीलिए वो हैं जुल्म करने वालों के आभारी। सपा प्रवक्ता उदयवीर सिंह ने कहा कि बसपा अब दलित मुद्दों को नहीं उठाती और भाजपा की तारीफ करती है। पार्टी अब दलित बस्तियों में जाकर अपनी उपलब्धियां गिनाएगी, जैसे आरक्षण की रक्षा और संविधान की सुरक्षा। सपा का मानना है कि 2027 में दलित वोट उनके लिए जरूरी है, क्योंकि जहां दलित वोट जाता है, सरकार उसी की बनती है। लेकिन सपा को भी चुनौतियां हैं। 2019 में सपा-बसपा गठबंधन टूटा था, जब मायावती ने आरोप लगाया कि अखिलेश ने उनका फोन उठाना बंद कर दिया। अखिलेश ने पलटवार में कहा कि उन्होंने खुद फोन किया था। यह पुरानी कड़वाहट अब फिर उभर रही है।
इस जंग का असर 2027 के चुनाव पर पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण हमेशा निर्णायक होते हैं। सपा का पीडीए फॉर्मूला कामयाब रहा है, लेकिन अगर बसपा मजबूत हुई तो दलित वोट बंट सकता है, जिसका फायदा भाजपा को मिलेगा। भाजपा पहले से ही दलितों को साध रही है, जैसे वाल्मीकि जयंती पर छुट्टी देकर। लेकिन दलितों के बीच असली मुद्दे हैं- बेरोजगारी, अत्याचार और आरक्षण। जो पार्टी इन पर ठोस काम करेगी, वही जीतेगी। मायावती की रैली से साफ है कि बसपा हार नहीं मान रही। वह 2007 वाली सोशल इंजीनियरिंग दोहराना चाहती हैं। वहीं, सपा जमीन पर उतरकर दलितों को जोड़ने की कोशिश कर रही है।
बहरहाल, यह सब दलितों के हित से जुड़ा है। राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक की बात करती हैं, लेकिन दलित समाज को चाहिए सम्मान, शिक्षा और रोजगार। अगर पार्टियां सिर्फ चुनावी रणनीति बनाती रहीं, तो दलित वोटर खुद फैसला करेंगे। उत्तर प्रदेश की सियासत में यह दौर रोचक है, जहां पुराने चेहरे नई लड़ाई लड़ रहे हैं। देखना होगा कि 2027 में कौन जीतता है- बसपा की पुरानी ताकत या सपा की नई रणनीति। लेकिन एक बात साफ है, दलित वोट अब किसी एक पार्टी का गुलाम नहीं रहा। वह जागरूक हो चुका है और अपना हक मांग रहा है।
				
					


