एक दिसंबर से संसद का शीतकालीन सत्र, महंगाई-बेरोजगारी पर विपक्ष रहेगा हमलावर
संसद का शीतकालीन सत्र 1 दिसंबर से शुरू होगा, जिसमें विपक्ष महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं, जाति जनगणना और सुरक्षा मुद्दों पर सरकार को घेरने की तैयारी में है। आगामी चुनावों से पहले यह सत्र राजनीतिक रूप से अहम माना जा रहा है, जहां सियासी टकराव अपने चरम पर रहने की संभावना है।


एक दिसंबर 2025 से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है और सियासी वातावरण धीरे-धीरे तपने लगा है। यह सत्र ऐसे समय में हो रहा है जब केंद्र की नीतियों को लेकर विपक्ष पहले से ही हमलावर मूड में है। लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में सरकार बनाम विपक्ष का आमना-सामना कई प्रमुख मुद्दों पर देखने को मिल सकता है। बीते महीनों में हुए कुछ निर्णयों, आर्थिक नीतियों, किसानों की मांगों और राज्यों में घटित राजनीतिक घटनाओं ने संसद में तीखी बहस के संकेत दे दिए हैं। सत्र का एजेंडा भले ही सरकार तय करती है, पर माहौल विपक्ष के आक्रामक तेवरों से ही बनता है। बिहार चुनाव के नतीजे और पश्चिम बंगाल में ममता सरकार द्वारा एसआईआर का विरोध भी सत्र को प्रभावित कर सकते हैं।विपक्ष के निशाने पर सबसे पहला और बड़ा मुद्दा महंगाई का रहेगा। त्योहारी सीजन के बाद खाद्य पदार्थों की कीमतों में एक बार फिर उछाल देखने को मिला है। दाल, तेल, सब्जियों और दूध के दामों ने आम जनता की जेब पर असर डाला है। विपक्ष इसे जनता के जीवन से जुड़ा विषय बनाकर पेश करेगा और सरकार से सवाल करेगा कि महंगाई पर नियंत्रण के इतने वादों के बावजूद कीमतें क्यों नहीं थम रही हैं। खासकर रसोई गैस और दैनिक उपभोग की वस्तुओं की कीमतें विपक्ष को सरकार को घेरने का खुला मौका देंगी। दूसरा बड़ा मुद्दा बेरोजगारी का होगा। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर नई नौकरियों की घोषणा के बावजूद युवाओं में बेचैनी कम नहीं हुई है। विपक्ष यह साबित करने की कोशिश करेगा कि रोजगार सृजन के सरकारी दावे केवल आंकड़ों तक सीमित हैं। इस विषय पर विपक्ष का फोकस युवाओं को साधने पर रहेगा, खासकर उन राज्यों में जहां आने वाले महीनों में चुनाव होने हैं। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और टीएमसी जैसी पार्टियां इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाने की तैयारी में हैं। विपक्ष चाहता है कि संसद के अंदर युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं की चर्चा इतनी तीखी हो कि बाहर जनता में उसकी गूंज बने।
कृषि और किसानों से जुड़ा मामला भी सत्र में खूब गूंज सकता है। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में फिर से किसान संगठनों का दबाव बढ़ रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी, फसलों के दामों की स्थिरता और कृषि कानूनों से जुड़े पुराने विवाद विपक्ष के हथियार बन सकते हैं। भले ही सरकार ने कुछ नीतिगत घोषणाएं की हैं, लेकिन विपक्ष सवाल उठाएगा कि किसानों की आय दोगुनी करने का वादा अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ। राष्ट्रव्यापी किसान संगठनों की योजनाबद्ध रणनीति संसद सत्र के दौरान सड़क से सदन तक समानांतर आंदोलन का रूप ले सकती है।सुरक्षा और सीमा से जुड़े मुद्दे भी विपक्ष के निशाने पर रहने वाले हैं। बीते महीनों में जम्मू-कश्मीर, मणिपुर और लद्दाख क्षेत्र में घटनाओं ने सरकार की आंतरिक सुरक्षा नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं। विपक्ष इस प्रश्न को उठाएगा कि शांति और विकास के वादों के बावजूद इन संवेदनशील क्षेत्रों में अस्थिरता क्यों बनी हुई है। इसके अलावा, सीमा विवाद और रक्षा सौदों की पारदर्शिता जैसे विषयों पर भी विपक्ष सरकार को घेर सकता है। रक्षा बजट और आधुनिक तकनीक की उपलब्धता पर विस्तृत चर्चा की मांग विपक्ष के एजेंडे में शामिल है।
शीतकालीन सत्र का एक और संभावित विवादास्पद मुद्दा जनगणना और जाति आधारित सर्वेक्षण से जुड़ा हो सकता है। कई राज्यों ने जातीय सर्वेक्षणों के आंकड़े जारी किए हैं, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय और आरक्षण नीति को लेकर बहस तेज हुई है। बिहार, ओडिशा और कर्नाटक जैसे राज्यों में हुए सर्वेक्षणों ने सामाजिक समीकरण की नई परतें खोली हैं। विपक्ष केंद्र से यह सवाल करेगा कि अगर राज्य स्तर पर जाति आधारित सर्वेक्षण संभव हैं, तो राष्ट्रीय स्तर पर इसे लेकर केंद्र अब तक चुप क्यों है। यह मुद्दा सामाजिक न्याय की राजनीति को नई दिशा दे सकता है और संसद में लंबी बहस को जन्म दे सकता है।मणिपुर हिंसा और अल्पसंख्यक समुदायों से जुड़े मानवाधिकार के सवाल भी विपक्षी एजेंडे में शामिल रहेंगे। विपक्ष सरकार से यह पूछने की कोशिश करेगा कि क्या इन मामलों में प्रशासन की निष्पक्षता और त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित की गई है या नहीं। मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को विपक्ष बहस में शामिल कर सकता है, जिससे सरकार पर नैतिक दबाव बने।अर्थव्यवस्था से जुड़ी नीतियों पर जैसे जीएसटी संग्रह, औद्योगिक विकास और छोटे व्यापारियों की कठिनाइयों पर भी विपक्ष का हमला होगा। विपक्ष यह तर्क देगा कि विकास का लाभ केवल बड़े कॉर्पोरेट घरानों तक सीमित है, जबकि छोटे व्यवसाय दबाव में हैं। वित्तीय घाटा और रुपये की गिरावट को लेकर भी प्रश्न उठ सकते हैं। खासकर पेट्रोल और डीजल पर कर, विदेशी निवेश और पब्लिक सेक्टर डिसइन्वेस्टमेंट की नीतियों को विपक्ष जमकर मुद्दा बनाएगा।
मीडिया स्वतंत्रता, संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता और चुनाव आयोग की निष्पक्षता जैसे सवाल भी इस बार गूंज सकते हैं। विपक्ष यह आरोप लगा सकता है कि संवैधानिक संस्थाएँ केंद्र के प्रभाव में काम कर रही हैं। इससे लोकतंत्र की सेहत पर बहस छिड़ सकती है। सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) में संशोधन और मीडिया नियमन से जुड़ी हालिया चर्चाएं भी इस बहस का हिस्सा बनेंगी। जनहित के कानूनों और सामाजिक योजनाओं पर बहस में विपक्ष यह दिखाने की कोशिश करेगा कि सरकारी घोषणाओं और जमीनी हकीकत में फर्क है। आयुष्मान भारत, उज्ज्वला योजना, पीएम किसान समृद्धि योजना जैसी योजनाएँ हर सत्र में चर्चा का विषय रहती हैं और इस बार भी विपक्ष इनके कार्यान्वयन पर सवाल उठाएगा। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में इन योजनाओं की पहुंच और गुणवत्ता को लेकर विपक्ष सरकार की जवाबदेही तय करने की कोशिश करेगा। इन सारे मुद्दों के बीच विपक्ष की एक और रणनीति होगी कि सरकार को जवाब देने पर मजबूर किया जाए। प्रश्नकाल और शून्यकाल का अधिकतम उपयोग इसी दिशा में होगा। हालांकि सरकार भी इस सत्र को अपने विधायी एजेंडे के हिसाब से आगे बढ़ाना चाहेगी, जिसमें आर्थिक सुधारों से जुड़े कुछ नए विधेयक शामिल हो सकते हैं। लेकिन संसद का वास्तविक माहौल विपक्ष के शोर-शराबे और सदन के अंदर विपक्ष और सत्ता पक्ष की राजनीतिक अदाओं से ही तय होगा।इस सत्र का राजनीतिक महत्व इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि अगले वर्ष कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में यह सत्र केवल नीति निर्माण का नहीं, बल्कि आगामी चुनावी नैरेटिव तय करने का अखाड़ा भी बन जाएगा। विपक्ष जहां जनता के सवालों को मुखर करना चाहता है, वहीं सरकार अपने कामकाज का रिपोर्ट कार्ड पेश कर जनता को भरोसे में लेने की कोशिश करेगा।



