लालू की विरासत पर दो वारिस आमने-सामने, बिहार की राजनीति में मचा भूचाल

लालू यादव के दोनों बेटे तेजस्वी और तेज प्रताप अब राजनीतिक अखाड़े में आमने-सामने हैं। सत्ता, सम्मान और अस्तित्व की इस जंग ने आरजेडी की जड़ों को हिला दिया है। परिवार की दरार अब संगठन तक पहुँच चुकी है, जिससे बिहार की राजनीति में नई हलचल शुरू हो गई है।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की राजनीति एक बार फिर परिवारवाद की बहस में उलझ गई है। कभी सामाजिक न्याय और पिछड़ों की आवाज़ कहे जाने वाले लालू प्रसाद यादव के परिवार में अब सत्ता और वर्चस्व की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है। राजनीति में परिवारवाद कोई नई बात नहीं, लेकिन जब यह आपसी रिश्तों को निगलने लगे और पार्टी की जड़ें हिला दे, तब यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक मोड़ बन जाता है। लालू परिवार की मौजूदा स्थिति इसी खतरे की घंटी बजा रही है।लालू यादव ने अपने राजनीतिक जीवन में हमेशा ‘संगठन से बड़ा परिवार’ की परंपरा निभाई। मगर आज तस्वीर उलटी हो चुकी है अब परिवार संगठन से बड़ा दिखने लगा है। उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव पार्टी के मुखिया और संगठन का चेहरा हैं, जबकि बड़े बेटे तेज प्रताप यादव अपनी उपेक्षा से नाराज़ और विद्रोही तेवर में हैं। जो कभी साथ-साथ मंच साझा करते थे, अब चुनावी मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नज़र आ रहे हैं।

तेजस्वी यादव ने पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने का दावा किया है। उन्होंने युवा नेतृत्व और आधुनिक सोच की झलक दिखाई, लेकिन यही बदलाव उनके बड़े भाई तेज प्रताप को रास नहीं आया। तेज प्रताप, जो खुद को कृष्ण और तेजस्वी को अर्जुन कहकर भाईचारे का प्रतीक बताया करते थे, अब उसी अर्जुन से राजनीतिक युद्ध में भिड़े हुए हैं। कभी परिवार की एकता को ताकत माना जाता था, आज वही एकता आरजेडी की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है।लालू यादव फिलहाल बीमार हैं, लेकिन राजनीति की बिसात उनके घर में ही बिछी है। राबड़ी देवी मां हैं, मगर राजनीति ने उन्हें दो बेटों के बीच बांट दिया है। सार्वजनिक मंचों पर वह दोनों को आशीर्वाद देती हैं, लेकिन उनकी आवाज़ में झलकता दर्द यह बता देता है कि मां के दिल में बिखरते परिवार की चिंता गहरी है। बहन मीसा भारती भी सुलह की कोशिश में लगी हैं, पर बात बन नहीं पा रही। यह जंग अब इतनी गहराई तक उतर चुकी है कि बीच-बचाव की गुंजाइश कम होती जा रही है।

तेजस्वी के समर्थक मानते हैं कि वे लालू यादव की असली राजनीतिक विरासत हैं। उन्होंने सत्ता में रहते हुए विकास, शिक्षा और युवाओं की बात की, जिससे नई पीढ़ी में लोकप्रियता बढ़ी। वहीं तेज प्रताप खुद को परंपरा और धार्मिक भावनाओं का प्रतिनिधि बताते हैं। वे कहते हैं कि राजनीति में सिद्धांत और संस्कार दोनों ज़रूरी हैं। इसी सोच के फर्क ने दोनों भाइयों के बीच दूरी बढ़ा दी है।राजनीति में मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन लालू परिवार में यह मतभेद अब निजी कटुता में बदल चुका है। कई मौकों पर दोनों भाइयों ने एक-दूसरे को नज़रअंदाज़ किया। सार्वजनिक कार्यक्रमों में साथ होते हुए भी बातचीत तक नहीं होती। यह ठंडा सन्नाटा बहुत कुछ कह जाता है। पार्टी कार्यकर्ताओं में भी असमंजस है कि किसे ‘असली नेता’ माना जाए तेजस्वी जो संगठन चला रहे हैं या तेज प्रताप जो परंपरा का झंडा थामे हुए हैं।

बिहार की राजनीति में लालू परिवार का प्रभाव दशकों से बना हुआ है। यादव समाज का बड़ा हिस्सा अब भी इस परिवार के साथ जुड़ा है, लेकिन जब परिवार के भीतर ही दरार दिखने लगे, तो समर्थकों का भरोसा डगमगाना तय है। एक तरफ संगठनात्मक मजबूती की बात होती है, दूसरी तरफ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा सामने आ जाती है। तेजस्वी की राजनीति युवा, शिक्षा और रोजगार की बात करती है, जबकि तेज प्रताप भावनाओं और पहचान की राजनीति को आगे बढ़ाते हैं। यही टकराव आरजेडी के लिए आने वाले दिनों में सबसे बड़ी चुनौती बन सकता है।परिवारवाद की राजनीति भारत में नई नहीं है। कांग्रेस से लेकर कई क्षेत्रीय दलों तक, सत्ता के केंद्र में परिवार की पकड़ रही है। लेकिन लालू परिवार की स्थिति इसलिए अलग है क्योंकि यहां संघर्ष केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई बन गया है। तेज प्रताप को लगता है कि उन्हें परिवार और पार्टी, दोनों जगह नज़रअंदाज़ किया गया। वहीं तेजस्वी का मानना है कि वे संगठन के प्रति समर्पित हैं और यही पार्टी को आगे ले जा सकते हैं। यह द्वंद्व अब केवल दो भाइयों का नहीं, बल्कि आरजेडी की आत्मा को झकझोर देने वाला है।

लालू यादव का राजनीतिक करिश्मा इस बात पर टिका था कि वे अपने परिवार को एकजुट रखते हुए सामाजिक समीकरणों को साध लेते थे। लेकिन अब उनकी सबसे बड़ी पूंजी परिवार ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गया है। जब जनता यह देखती है कि जो परिवार खुद एकजुट नहीं, वह समाज को कैसे जोड़ पाएगा, तो विश्वास टूटने लगता है। यही आरजेडी के लिए सबसे बड़ा खतरा है।तेजस्वी के पास संगठन, संसाधन और जनता में पकड़ है, पर तेज प्रताप के पास भावनात्मक सहानुभूति का आधार है। दोनों के बीच की जंग अगर लंबी चली, तो इसका असर सिर्फ विधानसभा चुनावों पर नहीं, बल्कि यादव राजनीति के भविष्य पर भी पड़ेगा। कभी जो वोट बैंक अटूट माना जाता था, अब उसमें भी बिखराव की आहट सुनाई दे रही है।राजनीति में परिवारवाद तब तक काम करता है, जब तक परिवार एकजुट रहे। जैसे ही घर की दीवारें दरकने लगती हैं, वह राजनीति को भी निगल जाती है। लालू यादव के परिवार में वही दौर शुरू हो चुका है। जो विरासत उन्होंने दशकों में बनाई, वह अब उनके अपने ही बच्चों की प्रतिस्पर्धा में फँस गई है।बिहार की जनता हमेशा से भावनात्मक राजनीति की गवाह रही है। लेकिन आज यह भावनाएँ परिवार के भीतर ही सीमित होती जा रही हैं। जनता चाहती है कि जो नेता सामाजिक न्याय की बात करता है, वह अपने घर में भी न्याय करे। यही वह कसौटी है, जिस पर लालू परिवार की राजनीति इस वक्त खड़ी है।

आने वाले चुनाव केवल सत्ता का नहीं, बल्कि परिवार की एकता और पार्टी के अस्तित्व का भी इम्तिहान होंगे। अगर लालू परिवार अपने मतभेद सुलझाने में नाकाम रहा, तो यह आरजेडी की जड़ों को हिला देगा। लोकतंत्र में परिवारवाद की जगह केवल उतनी ही होनी चाहिए, जितनी जनता उसे मंज़ूरी दे। जनता अगर यह तय कर ले कि अब वह परिवार की नहीं, नेतृत्व की राजनीति चाहती है, तो यह बदलाव केवल बिहार ही नहीं, देशभर की राजनीति को नई दिशा देगा।लालू यादव की राजनीति ने एक दौर में बिहार की तस्वीर बदली थी। अब वही परिवार तय करेगा कि उनकी विरासत बची रहेगी या इतिहास का हिस्सा बन जाएगी। अगर दोनों भाई अपनी महत्वाकांक्षा से ऊपर उठकर एकता का रास्ता नहीं चुनते, तो न सिर्फ पार्टी बल्कि वह राजनीति भी कमजोर होगी, जो कभी समाज के सबसे निचले तबके के लिए उम्मीद की किरण बनी थी।परिवारवाद की राजनीति का यह अध्याय बिहार की जनता के सामने एक चेतावनी की तरह है  कि लोकतंत्र में असली ताकत परिवार में नहीं, बल्कि जनता के फैसले में होती है। और शायद अब वक्त आ गया है कि बिहार की सियासत इस सच को पहचान ले।

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