बिहार चुनाव 2025: सत्ता की चाबी अति पिछड़ा वर्ग के हाथ, घोषणाओं की बारिश में कौन जीतेगा भरोसा

बिहार चुनाव 2025 में अति पिछड़ा वर्ग बना सत्ता का असली निर्णायक। एनडीए और महागठबंधन दोनों ने घोषणाओं की झड़ी लगाई, लेकिन मतदाता अब भरोसे और विकास का हिसाब मांग रहा है। जातीय समीकरणों के बीच यह चुनाव तय करेगा कि बिहार की सत्ता किसके हाथ जाएगी बदलाव के या भरोसे के।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की सियासत फिर एक ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है, जहां जातीय गणित और विकास के वादे आमने-सामने हैं। चुनाव की तारीखें भले अभी अंतिम रूप से घोषित न हुई हों, लेकिन मैदान पहले से गरम है। इस बार सबसे ज़्यादा चर्चा में है अति पिछड़ा वर्ग (EBC)  वह समाज जो अब न सिर्फ संख्या में बड़ा है बल्कि सत्ता का असली निर्णायक भी बन गया है। बिहार में हाल ही में हुए जातिगत सर्वे के मुताबिक, अति पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब 36 प्रतिशत है और इसमें 112 जातियां शामिल हैं। यह वह वर्ग है, जिसने कभी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था, लेकिन अब वही समूह तय करेगा कि 2025 में बिहार की सत्ता पर कौन बैठेगा।नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए ने जब अपना ‘संकल्प पत्र’ जारी किया, तो उसमें सबसे पहले जिस वर्ग का ज़िक्र हुआ, वह था अति पिछड़ा वर्ग। घोषणापत्र में वादा किया गया कि आने वाले पांच सालों में बिहार में एक करोड़ सरकारी नौकरी और रोजगार के अवसर सृजित किए जाएंगे। साथ ही, अति पिछड़ा वर्ग के परिवारों को 10 लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी जाएगी, जिससे वे स्वरोजगार या छोटे व्यवसाय शुरू कर सकें। एनडीए ने यह भी घोषणा की कि सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक विशेष समिति बनाई जाएगी, जो इस वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन कर सरकार को ठोस सिफारिशें देगी।

एनडीए का यह दांव दो दिशाओं में काम करता है एक तरफ आर्थिक सहयोग का भरोसा, दूसरी ओर प्रतिनिधित्व का संकेत। इसके साथ ही एनडीए ने किसानों को साधने के लिए ‘कर्पूरी ठाकुर सम्मान निधि’ की घोषणा की है, जिसके तहत राज्य सरकार अतिरिक्त तीन हजार रुपये देगी। केंद्र पहले से छह हजार रुपये देता है, यानी कुल नौ हजार रुपये किसानों के खाते में जाएंगे। इस योजना का नाम अति पिछड़ा समाज के जननायक कर्पूरी ठाकुर के नाम पर रखकर एनडीए ने साफ संदेश दिया है कि वह इस वर्ग के प्रतीकों को सम्मान देने की कोशिश कर रहा है।वहीं दूसरी तरफ महागठबंधन ने अपने अलग ‘अति पिछड़ा घोषणा पत्र’ से सीधे इस वर्ग की भावनाओं को छूने का प्रयास किया है। उन्होंने वादा किया है कि अति पिछड़ा, एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग के भूमिहीन परिवारों को गांव में 5 डेसिमल और शहर में 3 डेसिमल भूमि दी जाएगी। पंचायत और नगर निकायों में अति पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने की बात कही गई है। इसके अलावा सरकारी ठेकों में 50 प्रतिशत आरक्षण और मेहनतकश जातियों को 5 लाख रुपये की ब्याजमुक्त राशि देने का वादा किया गया है ताकि वे अपने पारंपरिक कामकाज को आधुनिक उपकरणों के साथ आगे बढ़ा सकें।

अगर सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो अति पिछड़ा वर्ग कभी “साइलेंट वोटर” माना जाता था, लेकिन अब यही वर्ग “किंगमेकर” की भूमिका में है। बिहार की राजनीति में यही वो वोट बैंक है जो किसी भी चुनाव का संतुलन बदल सकता है। आंकड़े बताते हैं कि अति पिछड़ा वर्ग में मल्लाह, नाई, कुम्हार, लोहार, कहार, राजभर, धानुक, नोनिया, सहनी, मांझी, तुरहा और रैकवार जैसी जातियाँ शामिल हैं, जो लगभग हर जिले में फैली हुई हैं। इन जातियों की स्थानीय प्रभावशाली स्थिति ही तय करती है कि किस पार्टी को किस सीट पर बढ़त मिलेगी।नीतीश कुमार की सियासत की सबसे बड़ी ताकत यही वर्ग रहा है। जब 2005 में उन्होंने सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने पंचायत चुनावों में अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देकर राजनीति की दिशा बदल दी थी। यही वजह थी कि 20 सालों तक उन्होंने सत्ता पर पकड़ बनाए रखी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में स्थिति बदली है। विकास और रोजगार की कमी, शिक्षा और अवसरों की असमानता ने इस वर्ग में असंतोष पैदा किया है। युवा मतदाता अब सवाल पूछ रहा है  “क्या हमारी जाति का नाम घोषणापत्र में होना ही काफी है या हमें असली हिस्सेदारी भी मिलेगी?”यह असंतोष ही महागठबंधन के लिए अवसर बन गया है। तेजस्वी यादव लगातार “नई पीढ़ी का नेतृत्व” और “समान अवसर” की बात कर रहे हैं। उनका फोकस यह है कि अति पिछड़ा वर्ग को अब सिर्फ राजनीतिक प्रतीक न रहकर वास्तविक सत्ता-साझेदारी मिले। इसी रणनीति के तहत उन्होंने अपने गठबंधन में अति पिछड़ा समाज से आने वाले नेताओं को अहम जिम्मेदारियाँ दी हैं।

अगर पिछले चुनावों के आंकड़े देखें तो दोनों गठबंधनों के बीच अंतर बेहद मामूली था। 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को कुल 37.3 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि महागठबंधन को 37 प्रतिशत। यानी जीत और हार के बीच सिर्फ 0.3 प्रतिशत का फर्क था। ऐसे में 36 प्रतिशत की हिस्सेदारी वाला अति पिछड़ा वर्ग किसी भी दल का पलड़ा पलट सकता है। बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ है, जिसमें करीब 4.7 करोड़ लोग अति पिछड़ा वर्ग से आते हैं  यह संख्या किसी भी राजनीतिक समीकरण के लिए निर्णायक है।अब बात करें आर्थिक व्यवहार्यता की  तो घोषणापत्र में किए गए वादों को लागू करना आसान नहीं है। बिहार का सालाना बजट करीब 2.7 लाख करोड़ रुपये का है, जिसमें 60 प्रतिशत हिस्सा पहले से वेतन, पेंशन और चल रही योजनाओं पर खर्च होता है। ऐसे में एक करोड़ नौकरियां देना या लाखों परिवारों को 10 लाख रुपये की सहायता देना राजकोष पर भारी बोझ डालेगा। इसलिए मतदाता अब सिर्फ सुनने के मूड में नहीं, वे पूछ रहे हैं कि इन वादों के लिए पैसा कहां से आएगा, योजना कैसे लागू होगी, और पारदर्शिता की गारंटी क्या होगी।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार का अति पिछड़ा मतदाता अब पहले जैसा नहीं रहा। वह अब जातीय पहचान से आगे बढ़कर विकास, शिक्षा, रोजगार और सम्मान की राजनीति चाहता है। यही कारण है कि इस बार का चुनाव सिर्फ जातिगत समीकरण नहीं, बल्कि विश्वास की लड़ाई भी है। एक तरफ एनडीए स्थिरता और विकास के नाम पर वोट मांग रहा है, तो दूसरी तरफ महागठबंधन सामाजिक न्याय और नई शुरुआत का संदेश दे रहा है।2025 का यह चुनाव बिहार के इतिहास में इसलिए भी अहम रहेगा क्योंकि इस बार मुद्दे सिर्फ वादों तक सीमित नहीं हैं। जनता अब रिपोर्ट कार्ड मांग रही है  किसने कितना वादा किया, किसने कितना निभाया। अति पिछड़ा वर्ग, जो कभी सियासत के किनारे खड़ा दिखता था, अब केंद्र में है। यही वर्ग तय करेगा कि अगली सरकार रोज़गार और अवसरों की राजनीति करेगी या फिर पुराने समीकरणों के सहारे सत्ता में लौटेगी।बिहार की गलियों में अब यह समझ साफ है  पोस्टर और नारे तो बहुत हैं, लेकिन कुर्सी उस दल को मिलेगी जो अति पिछड़ा समाज को सिर्फ “वोट बैंक” नहीं, बल्कि “विकास का भागीदार” बनाएगा। चुनावी वादों के इस मौसम में असली सवाल यही है कि बिहार के मतदाता इस बार भरोसा किस पर करते हैं  कागज़ के वादों पर या ज़मीन के काम पर। सत्ता की चाबी अब उन्हीं हाथों में है, जो लंबे समय तक बंद दरवाज़ों के बाहर खड़े रहे थे। 2025 में वही हाथ तय करेंगे कि बिहार की दिशा क्या होगी  बदलाव की या भरोसे की।

Related Articles

Back to top button