बसपा का नया मिशन, दलित-मुस्लिम एकता से अखिलेश को घेरने की रणनीति
मायावती ने यूपी की राजनीति में नया दांव खेला है। बसपा अब दलित-मुस्लिम एकता के पुराने फॉर्मूले को फिर से जीवित कर रही है। लखनऊ रैली और मुस्लिम भाईचारा बैठक के जरिए मायावती ने 2027 के चुनावी मिशन की शुरुआत कर दी है। सपा और अखिलेश के लिए यह नई चुनौती मानी जा रही है।


उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती फिर से मैदान में उतर आई हैं। कांशीराम की पुण्यतिथि पर लखनऊ की महारैली से शुरू हुई यह हलचल अब मुस्लिम भाईचारा संगठन की बैठक तक पहुंच चुकी है। अक्टूबर 2025 का यह महीना बसपा के लिए नया अध्याय लिखने वाला लग रहा है। जहां एक तरफ कांशीराम साहब की याद में 9 अक्टूबर को लखनऊ के राम मनोहर लोहिया पार्क में लाखों कार्यकर्ताओं ने नीले झंडे लहराए, वहीं 29 अक्टूबर को पार्टी मुख्यालय पर हुई बैठक ने साफ संकेत दिया कि मायावती 2027 के विधानसभा चुनाव में पुराने डीएम फॉर्मूले को जिंदा करने के पूरे मूड में हैं। दलित-मुस्लिम गठजोड़, जो कभी बसपा की ताकत था, उसे फिर से साधने की यह कोशिश न सिर्फ समाजवादी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है, बल्कि पूरी यूपी की सियासत को नया रंग दे सकती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मायावती का यह दांव कामयाब होगा, या फिर यह सिर्फ एक कोशिश भर साबित होगा?
बात को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। बसपा का जन्म ही बहुजन समाज को एकजुट करने के मकसद से हुआ था। कांशीराम साहब ने 1984 में पार्टी की नींव रखी, लेकिन असली कमाल तब हुआ जब 1990 के दशक में दलितों के साथ मुस्लिम वोटबैंक को जोड़ा गया। 2007 के विधानसभा चुनाव इसका चरम थे। बसपा ने 206 सीटें जीतीं और मायावती चौथी बार मुख्यमंत्री बनीं। उस वक्त पश्चिमी यूपी के मुस्लिम इलाकों में बसपा का दबदबा था। सहारनपुर से लेकर मेरठ तक, मुसलमानों ने देखा कि बसपा सरकार ने मदरसों को मान्यता दी, मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षण की बात उठाई और गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों को घर दिए। लेकिन 2012 के चुनाव से ग्राफ गिरने लगा। 2014 लोकसभा में बसपा को महज 3 सीटें मिलीं, 2017 विधानसभा में 19 और 2022 में तो सिर्फ एक। मुस्लिम वोट सपा की ओर खिसक गया। अखिलेश यादव की PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) राजनीति ने इसे पक्का कर दिया। 2024 लोकसभा में सपा-कांग्रेस गठबंधन को 43 सीटें मिलीं, जिसमें मुस्लिम वोट का बड़ा हाथ था।
अब मायावती इस खिसकते वोटबैंक को वापस खींचने की जुगाड़ में लगी हैं। कांशीराम पुण्यतिथि रैली में उन्होंने साफ कहा कि बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी और 2007 जैसी जीत दोहराएगी। रैली में पांच लाख से ज्यादा लोग जुटे, जो लंबे समय बाद बसपा की ताकत का एहसास करा गया। मायावती ने कार्यकर्ताओं को ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का मंत्र दिया और सोशल इंजीनियरिंग पर जोर डाला। लेकिन असली खेल तो मुस्लिम भाईचारा कमेटी की बैठक में शुरू हुआ। लखनऊ के मॉल एवेन्यू स्थित बसपा दफ्तर में 450 मुस्लिम नेताओं को बुलाया गया। बैठक में पहली दो पंक्तियां सिर्फ मुस्लिम नेताओं के लिए रिजर्व थीं, जबकि पुराने दलित नेता तीसरी लाइन में बैठे। यह संकेत साफ था मुस्लिमों को प्राथमिकता। मायावती ने हर मंडल में दो-दो सदस्यीय मुस्लिम भाईचारा कमेटी गठित करने का ऐलान किया। इन्हें निर्देश दिया कि तीन महीने में बूथ स्तर तक संगठन खड़ा करें।
बैठक का सबसे रोचक हिस्सा था ‘पीला लिफाफा’। हर नेता को एक पीली फाइल थमाई गई, जिसमें बसपा की चार सरकारों (1995, 1997, 2002, 2007) में मुस्लिमों के लिए किए 100 प्रमुख कामों की लिस्ट थी। इसमें मदरसों को सरकारी मान्यता, वक्फ बोर्ड को मजबूत करना, मुस्लिम महिलाओं के लिए योजनाएं और अल्पसंख्यक आरक्षण की मांग शामिल थी। मायावती ने कहा, पहली और दूसरी बसपा सरकारें मुस्लिम वोट की वजह से बनीं और टूटीं। अब तीसरी बार हम सत्ता में आएंगे। उन्होंने मुस्लिम नेताओं से अपील की कि स्थानीय मस्जिदों के मौलानाओं से मिलें, इन कामों का प्रचार करें। साथ ही, सपा-कांग्रेस को निशाना साधा। बोलीं, ये पार्टियां मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक मानती हैं, लेकिन बसपा उनका हितैषी है। भाजपा को हराना है तो सपा-कांग्रेस छोड़ो, बसपा से जुड़ो। यह बातें सुनकर हॉल में तालियां गूंजीं। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि यह डैमेज कंट्रोल कम, नई सोशल इंजीनियरिंग ज्यादा लग रही है।
मायावती की रणनीति में एक बड़ा हथियार है योगी सरकार का बुलडोजर एक्शन। 2022 के चुनाव में यह BJP की ताकत बना। अतीक अहमद से मुख्तार अंसारी तक के साम्राज्यों को ढहाने में बुलडोजर ने माफिया राज खत्म करने का प्रतीक बनाया। सीएम योगी को ‘बुलडोजर बाबा’ कहकर BJP ने लहराया। लेकिन अखिलेश ने इसका विरोध किया, जिससे मुस्लिम वोट तो एकजुट हुए, पर पिछड़े और दलित नाराज हो गए। अब मायावती इस मुद्दे पर खुलकर बोल रही हैं। मुस्लिम बैठक में उन्होंने कहा, “बसपा की सरकार बनेगी तो बुलडोजर एक्शन पूरी तरह बंद। मुसलमानों पर द्वेष से दर्ज झूठे केस वापस लिए जाएंगे।” यह वादा अखिलेश से अलग है, जो बुलडोजर पर हमला तो बोलते हैं, लेकिन मुस्लिम मुद्दों पर सतर्क रहते हैं। बिहार चुनाव के बाद, जहां NDA की जीत में योगी का बुलडोजर मॉडल चर्चा में रहा, मायावती इसे भांप चुकी हैं। विश्लेषक मानते हैं कि यह स्टैंड मुस्लिमों को आकर्षित कर सकता है, क्योंकि बुलडोजर का डर अब भी जिंदा है।
लेकिन यह रणनीति कितनी कारगर साबित होगी? सबसे बड़ा सवाल यही है। पश्चिमी यूपी में मुस्लिम वोट 19 फीसदी हैं, जो 80 से ज्यादा सीटों पर निर्णायक हैं। अगर ये वोट बसपा की ओर लौटे, तो सपा का PDA फॉर्मूला ध्वस्त हो सकता है। 2024 लोकसभा में सपा को मिली 37 सीटों में मुस्लिमों का योगदान 70 फीसदी से ज्यादा था। मायावती का DM फॉर्मूला (20 फीसदी दलित + 19 फीसदी मुस्लिम) अगर जुटा, तो 39 फीसदी वोटबैंक तैयार। लेकिन चुनौतियां कम नहीं। पहला, दलित वोट खुद बिखरा है। 2022 में जाटव के अलावा अन्य दलित BJP की ओर गए। दूसरा, मायावती को BJP से दूरी साबित करनी होगी। जानकार कहते हैं, “मुस्लिम तब तक भरोसा नहीं करेंगे, जब तक मायावती साफ न कहें कि BJP से कोई गठजोड़ नहीं।” तीसरा, आकाश आनंद का लीडरशिप रोल। रैली में उन्होंने भाषण दिया, लेकिन युवा चेहरा अभी परिपक्व नहीं लगता।इसके अलावा, इंडिया गठबंधन पर असर साफ दिखेगा। अगर मुस्लिम वोट बंटा, तो सपा-कांग्रेस को नुकसान। त्रिकोणीय मुकाबला बनेगा BJP, सपा और बसपा।
ऐसे में BJP को फायदा हो सकता है, जैसा 2017 में हुआ। लेकिन मायावती का दावा है कि बसपा अकेले लड़ेगी और जीतेगी। उन्होंने रैली में कहा, गठबंधन हमेशा नुकसान देते हैं। 1993 में सपा से, 1996 में कांग्रेस से 67-67 सीटें मिलीं, लेकिन 2007 में अकेले 206।कुल मिलाकर, मायावती की यह सक्रियता यूपी की राजनीति को रोमांचक बना रही है। कांशीराम साहब का सपना था बहुजन समाज का सशक्तिकरण। अगर DM फॉर्मूला काम आया, तो 2027 में सरकारी बंगला फिर से बसपा का हो सकता है। लेकिन सियासत में कुछ भी पक्का नहीं। अखिलेश अपनी PDA को और मजबूत करेंगे, योगी बुलडोजर को ही हथियार बनाए रखेंगे। आम वोटर को अब फैसला करना है पुरानी यादें ताजा करें या नई राह चुनें। मायावती की कोशिशें जितनी गहरी हैं, उतनी ही उम्मीदें भी। देखना है, हाथी का अगला कदम क्या होता है।
				
					


