तेजस्वी का नया सियासी फॉर्मूला अखिलेश के रास्ते बिहार में सत्ता की वापसी का गणित
तेजस्वी यादव ने बिहार चुनाव में अखिलेश यादव वाला ‘एम-वाई प्लस’ फॉर्मूला अपनाया है। यादव-मुस्लिम समीकरण के साथ गैर-यादव ओबीसी, खासकर मल्लाह और कुशवाहा समाज को साधने की कोशिश की जा रही है। महागठबंधन की यह सोशल इंजीनियरिंग क्या 4 फीसदी वोटों का अंतर पाट पाएगी? सत्ता की राह का बड़ा इम्तिहान।


बिहार की राजनीति एक बार फिर जातीय समीकरणों की प्रयोगशाला बन चुकी है। महागठबंधन ने जिस सोशल इंजीनियरिंग की बुनियाद इस बार रखी है, वह न तो पूरी तरह नई है और न ही परंपरागत। इसे समझने के लिए हमें उत्तर प्रदेश की तरफ़ झांकना होगा, जहां अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को उसके ही गढ़ में चुनौती दी थी। अखिलेश का फार्मूला साफ़ था यादव-मुस्लिम यानी एम-वाई समीकरण को बरकरार रखते हुए गैर-यादव ओबीसी को अपने साथ जोड़ना। अब यही फार्मूला तेजस्वी यादव बिहार के रण में आजमाने जा रहे हैं।तेजस्वी ने महागठबंधन का चेहरा बनकर यादव और मुस्लिम वोट को एकजुट रखने का दांव चला है, वहीं ‘सन ऑफ मल्लाह’ कहे जाने वाले मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर गैर-यादव ओबीसी यानी मल्लाह, निषाद, बिंद, कश्यप जैसी जातियों को साधने की कोशिश की है। सहनी लंबे समय से अपनी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल कराने की मांग उठा रहे हैं और उसी आंदोलन के सहारे उन्होंने उत्तर बिहार में मजबूत राजनीतिक पकड़ बनाई है। तेजस्वी जानते हैं कि अगर वे इस समुदाय को अपने साथ जोड़ लेते हैं तो एनडीए के वोट बैंक में सेंध लग सकती है।
यादव-मुस्लिम की जड़ों में भरोसा, नए वर्ग की तरफ़ रुझान
बिहार की राजनीति में यादव वोट का महत्व हमेशा से निर्णायक रहा है। यह समुदाय राज्य की आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा है। मुस्लिम वोट बैंक करीब 17 प्रतिशत है। लालू प्रसाद यादव ने इसी एम-वाई गठजोड़ पर तीन दशक तक राजनीति की। लेकिन बदलते वक्त के साथ सिर्फ़ इस समीकरण से सत्ता हासिल करना मुश्किल हो गया है। तेजस्वी इसे भलीभांति समझते हैं, इसलिए वे एम-वाई समीकरण को बरकरार रखते हुए उसमें ‘प्लस फैक्टर’ जोड़ना चाहते हैं।यह प्लस फैक्टर है गैर-यादव ओबीसी। इसमें मल्लाह, निषाद, बिंद, कश्यप, तेली, कुशवाहा, धानुक जैसी जातियां शामिल हैं, जो मिलकर राज्य की आबादी का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा बनाती हैं। एनडीए की ताकत इन्हीं वर्गों से आती रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीति भी इसी ओबीसी आधार पर खड़ी है। अब तेजस्वी ने इस वोट बैंक में सेंधमारी की रणनीति बनाई है।
कुशवाहा समाज पर विशेष फोकस
महागठबंधन की सोशल इंजीनियरिंग का सबसे दिलचस्प पहलू कुशवाहा समाज पर खेला गया दांव है। कुशवाहा या कोइरी जाति बिहार में यादव के बाद दूसरी सबसे बड़ी ओबीसी जाति मानी जाती है। आबादी करीब 4.2 प्रतिशत। यह जाति लगभग 25 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाती है। नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत वर्षों से इसी समुदाय पर टिकी रही है, लेकिन अब तेजस्वी उसी नींव को हिलाने की कोशिश कर रहे हैं।महागठबंधन ने इस बार कुशवाहा समाज से एक दर्जन से अधिक उम्मीदवार उतारे हैं। यही नहीं, वामपंथी दलों और कांग्रेस के टिकट बंटवारे में भी इस वर्ग को प्राथमिकता दी गई है। तेजस्वी की मंशा साफ़ है यादव-मुस्लिम के पारंपरिक समीकरण में कुशवाहा और निषाद को जोड़कर ऐसा सामाजिक गठजोड़ बनाना, जो सत्ता की चौखट तक उन्हें पहुँचा सके।
टिकट वितरण में ‘सोशल बैलेंस’
महागठबंधन में सीट बंटवारे का समीकरण बेहद सोच-समझकर किया गया है। आरजेडी ने अपने कोटे की 143 सीटों में 51 यादव और 19 मुस्लिम प्रत्याशी उतारकर एम-वाई समीकरण को मजबूत रखा है। इसके अलावा 16 कुशवाहा, 4 निषाद, 3 धानुक, 15 सवर्ण और 11 अति पिछड़ी जातियों से उम्मीदवार दिए हैं।कांग्रेस ने अपने 61 सीटों के कोटे में 21 सवर्ण, 11 दलित, 7 अति पिछड़ी और 3 कुशवाहा उम्मीदवार उतारे हैं। वहीं, मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी ने अपने कोटे की 15 सीटों में से पांच मल्लाह-निषाद प्रत्याशी उतारे हैं। वामपंथी दलों ने सामाजिक न्याय और “जिसकी जितनी भागीदारी” के फॉर्मूले पर टिकट बांटे हैं। यह पूरा गणित इस बात की तस्दीक करता है कि महागठबंधन जातीय विविधता को अपने पक्ष में मोड़ना चाहता है।
चार फ़ीसदी का अंतर और बड़ा दांव
2020 के विधानसभा चुनावों में महागठबंधन महज चार फ़ीसदी वोटों से सत्ता से दूर रह गया था। एनडीए को 41 फ़ीसदी वोट मिले थे, जबकि महागठबंधन को 37 फ़ीसदी। तेजस्वी इस बार इस अंतर को पाटने के लिए बेहद सतर्क रणनीति पर काम कर रहे हैं।चार फ़ीसदी वोटों के अंतर को भरने के लिए उन्होंने गैर-यादव ओबीसी को केंद्र में रखा है। मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना इसी योजना का हिस्सा है। उनका संदेश साफ़ है अगर हम सत्ता में आएंगे तो केवल यादव या मुस्लिम समाज ही नहीं, बल्कि अन्य पिछड़े समाज को भी बराबर भागीदारी मिलेगी। यही वह संदेश है जो एनडीए के मजबूत ओबीसी वोट बैंक में हलचल पैदा कर सकता है।
गठबंधन के भीतर की चुनौतियाँ
हालांकि यह सोशल इंजीनियरिंग जितनी आकर्षक दिखती है, उतनी ही पेचीदा भी है। मुकेश सहनी पहले भी एनडीए और महागठबंधन दोनों में रह चुके हैं। उनकी राजनीतिक निष्ठा पर सवाल उठते रहे हैं। सीट बंटवारे को लेकर उन्होंने कई बार नाराज़गी भी जताई। अगर चुनाव से पहले या बाद में असंतोष बढ़ा, तो यह समीकरण टूट भी सकता है।वहीं, कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच सीट बंटवारे पर भी खींचतान दिखी है। कुछ सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा को लेकर मतभेद खुले मंच पर सामने आए। ऐसे में चुनौती यह है कि क्या तेजस्वी इस व्यापक गठबंधन को एकजुट रख पाएंगे या नहीं।
यूपी से प्रेरणा, बिहार में उम्मीद
उत्तर प्रदेश के 2024 लोकसभा चुनावों में अखिलेश यादव ने जो रणनीति अपनाई थी, उसने भाजपा को अप्रत्याशित चुनौती दी। उन्होंने यादव-मुस्लिम समीकरण को बनाए रखते हुए राजभर, निषाद, मौर्य और पटेल जैसे गैर-यादव ओबीसी नेताओं को साथ जोड़ा। इसी ‘सोशल प्लस’ रणनीति से सपा को रिकॉर्ड वोट शेयर मिला। तेजस्वी अब वही मॉडल बिहार में लागू कर रहे हैं।फर्क बस इतना है कि बिहार की जातीय बनावट यूपी से कहीं ज़्यादा जटिल है। यहां हर 50 किलोमीटर पर सामाजिक समीकरण बदल जाता है। इसलिए यह प्रयोग तभी सफल हो सकता है जब मैदान में कार्यकर्ता स्तर तक यह संदेश पहुँचे कि यह सिर्फ़ जाति जोड़ने का खेल नहीं बल्कि सामाजिक भागीदारी का अभियान है।
सत्ता की राह में सोशल इंजीनियरिंग का इम्तिहान
तेजस्वी यादव की इस रणनीति को अगर एक वाक्य में समेटा जाए तो यह “राजनीति की नई सामाजिक परिभाषा” है। उन्होंने अपने पिता लालू प्रसाद की परंपरागत एम-वाई राजनीति को आधुनिक रूप देते हुए उसमें ओबीसी-प्लस फैक्टर जोड़ा है। मुकेश सहनी और कुशवाहा समुदाय पर फोकस इसी प्रयोग की नींव है।अब देखना यह होगा कि क्या यह प्रयोग बिहार की सामाजिक संरचना में वह बदलाव ला पाएगा, जो अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में दिखाया था। अगर महागठबंधन की यह सोशल इंजीनियरिंग 4 फ़ीसदी वोटों का अंतर पाटने में कामयाब हो जाती है, तो बिहार की सियासत में एक नया अध्याय लिखा जाएगा। लेकिन अगर यह दांव उल्टा पड़ा, तो यही जातीय समीकरण भविष्य में महागठबंधन की कमजोरी भी बन सकता है।फिलहाल इतना तय है कि तेजस्वी यादव ने इस बार जाति, समाज और सत्ता तीनों को जोड़ने की राजनीति का ऐसा ताना-बाना बुना है, जिसे बिहार की राजनीति लंबे वक्त तक याद रखेगी।
				
					


