बिहार महागठबंधन में कांग्रेस पीछे, राहुल गांधी ने क्यों सब ताकत लालू को दे दी

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले महागठबंधन में कांग्रेस की हैसियत कमजोर नजर आ रही है। राहुल गांधी ने तेजस्वी यादव को सीएम फेस बनाने और मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम देने का फैसला किया। सीट बंटवारे और ‘फ्रेंडली फाइट’ से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नाराजगी, गठबंधन की मजबूती पर सवाल उठ रहे हैं।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की राजनीति हमेशा से ही एक बड़ा तमाशा रही है, जहां गठबंधन तो बनते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर खींचतान चलती रहती है। 2025 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले महागठबंधन फिर से सुर्खियों में है। एक तरफ तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर आरजेडी ने अपनी ताकत दिखाई, तो दूसरी तरफ मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को डिप्टी सीएम का दांव खेला गया। लेकिन इस पूरे ड्रामे में कांग्रेस कहां खड़ी नजर आ रही है? राहुल गांधी की पार्टी, जो कभी बिहार की सियासत की धुरी रही, आज लगता है महागठबंधन की पिछलग्गू बनकर रह गई है। पटना की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस को ही लीजिए, जहां अशोक गहलोत ने तेजस्वी को सीएम फेस बनाने का ऐलान किया। मंच पर राजद, कांग्रेस, वीआईपी, सीपीआई और सीपीआई(एमएल) के नेता खड़े थे, लेकिन कांग्रेस के चेहरे पर वो चमक नजर नहीं आई, जो जीत की उम्मीद में दिखनी चाहिए। तेजस्वी ने भाषण में कहा, 20 साल की डबल इंजन सरकार ने बिहार को लूटा है, हम बेरोजगारी, पलायन और भ्रष्टाचार खत्म करेंगे। सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन सवाल ये कि कांग्रेस को इसमें क्या मिला? सिर्फ 61 सीटें, जबकि राजद ने 143 पर दांव लगाया। वीआईपी को तो 9 सीटें मिलीं, लेकिन मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा देकर उन्हें वो इज्जत दी गई, जो कांग्रेस के हिस्से में नहीं आई।

बात यहीं खत्म नहीं होती। नामांकन वापसी के आखिरी दिन तक सीट बंटवारे पर सहमति न बनने से 11 सीटों पर ‘फ्रेंडली फाइट’ हो गई। यानी गठबंधन के साथी ही एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में। कहलगांव में राजद का रजनीश भारती कांग्रेस के प्रवीण कुशवाहा से भिड़ेंगे, वैशाली में संजीव सिंह (कांग्रेस) का मुकाबला अजय कुशवाहा (राजद) से। नरकटियागंज, सिकंदरा, सुल्तानगंज जैसी पांच सीटों पर राजद-कांग्रेस का टकराव, चार पर कांग्रेस-सीपीआई का, एक पर राजद-वीआईपी का और बेलदौर पर कांग्रेस-आईआईपी का। सीपीआई(एमएल) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने इसे ‘रणनीतिक मुकाबला’ बताया, लेकिन सच्चाई ये है कि ये फ्रेंडली फाइट वोटों का बंटवारा करेगी। 2020 के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था, जब एलजेपी ने जेडीयू को नुकसान पहुंचाया। इस बार झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ने बिहार से किनारा कर लिया, जिससे गठबंधन और कमजोर हुआ। कांग्रेस को सबसे ज्यादा 9 सीटों पर सहयोगियों से जूझना पड़ेगा। क्या ये महागठबंधन की मजबूती है या अंदरूनी कलह की निशानी?

अब जरा इतिहास की किताब पलटिए। 2000 में सोनिया गांधी ने लालू प्रसाद यादव के राजद से हाथ मिलाया था। तब कांग्रेस का वोट बैंक सवर्ण, दलित और मुस्लिम था, लेकिन गठबंधन के बाद आधार खिसक गया। 2020 में महागठबंधन ने 110 सीटें जीतीं, लेकिन नीतीश कुमार के पलटने से सरकार न बनी। कांग्रेस को 19 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार सिर्फ 61 पर दावा। तेजस्वी यादव का सीएम फेस बनना तय था, लेकिन मुकेश सहनी का डिप्टी सीएम चेहरा बनना सरप्राइज था। सहनी, जो निषाद समुदाय के बड़े नेता हैं, ने अपनी पार्टी से 15 सीटें मांगी थीं, लेकिन 9 पर संतुष्ट हो गए। प्रेस कॉन्फ्रेंस में गहलोत ने कहा, तेजस्वी सीएम, सहनी डिप्टी, और आगे डिप्टी सीएम के और पद बनेंगे। लेकिन कांग्रेस के नेता कृष्णा अल्लावरु ने खुलासा किया कि ये फैसला राहुल गांधी ने ही लिया। फिर भी, कांग्रेस कार्यकर्ताओं में गुस्सा भरा है। वे कहते हैं, राहुल जी दलित-पिछड़ों की बात करते हैं, लेकिन टिकट संघ वालों को चले गए।

कांग्रेस की ये हालत देखकर दिमाग में 2020 की याद आती है। तब भी सीट बंटवारे पर झगड़ा हुआ था, और 6 सीटों पर राजद-कांग्रेस आमने-सामने आ गए थे। सिकंदरा, कहलगांव, सुल्तानगंज जैसी सीटें फिर से विवाद में हैं। राजद नेता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं, समय रहते सुलझ जाएगा, लेकिन कांग्रेस के सुरेंद्र राजपूत जैसे नेता चुप नहीं बैठे। पटना में तो नाराज कार्यकर्ताओं ने अल्लावरु को घेर लिया। एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें नेता चिल्ला रहे थे, टिकट चोर, गद्दी छोड़! ये नारा राहुल के ‘चोर गद्दी छोड़’ का ही जवाब था। अल्लावरु चुपचाप हाथ जोड़कर निकल गए, लेकिन पार्टी ने उन्हें यूथ कांग्रेस का प्रभार छीन लिया। मध्य प्रदेश के मनीष शर्मा को नया प्रभारी बनाया गया। विशेषज्ञ कहते हैं, ये बलि का बकरा बनाने जैसा है। अल्लावरु बिहार प्रभारी बने रहेंगे, लेकिन दोहरी जिम्मेदारी से राहत मिली। बिहार कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर है। एक गुट अल्लावरु को ‘टिकट चोर’ कह रहा है, दूसरा राहुल की लाइन पर चलने को कह रहा है।

राहुल गांधी का रोल यहां सबसे बड़ा सवाल है। वोटर अधिकार यात्रा के बाद वे बिहार से दूर हो गए। पटना में कार्यकारिणी बैठक हुई, प्रियंका गांधी रैलियां करने वाली थीं, लेकिन सब अधर में लटक गया। तेजस्वी के जातिगत गणना के दावे पर राहुल ने कहा था, सरकारी कास्ट सेंसस फर्जी है। कन्हैया कुमार की ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ यात्रा को सपोर्ट किया, लेकिन वो भी रुक गई। आईआरसीटीसी केस में तेजस्वी पर आरोप तय होने के बाद राहुल के लिए मुश्किल बढ़ गई। फिर भी, उन्होंने सरेंडर कर दिया। गहलोत ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, तेजस्वी ही विकल्प हैं। लेकिन क्या ये सही है? एनडीटीवी की रिपोर्ट कहती है, कांग्रेस के पास तेजस्वी के अलावा कोई उपाय ही नहीं। बिहार में कांग्रेस का वोट शेयर 10 फीसदी से नीचे है, जबकि राजद का 20 के पार। मुकेश सहनी के निषाद वोट (लगभग 4%) गठबंधन के लिए सोने में सुहागा हैं। सहनी ने कहा, मैं चुनाव जीतूं या हारूं, डिप्टी सीएम बनना है तो बस। उनके समर्थकों का जोश आसमान छू रहा है, जबकि कांग्रेस कार्यकर्ता निराश हैं।ये सब देखकर लगता है, महागठबंधन में कांग्रेस की हैसियत वीआईपी से भी कम हो गई। 15 सीटें मांगने वाले सहनी को डिप्टी मिला, जबकि कांग्रेस को सिर्फ आश्वासन। बीबीसी की रिपोर्ट में कहा गया, सहनी को इतनी तवज्जो क्यों? क्योंकि निषाद वोट NDA से छीन सकते हैं। आज तक के विश्लेषण में लिखा है, तेजस्वी-मुकेश का फॉर्मूला मास्टर स्ट्रोक लगता है, लेकिन कांग्रेस को नुकसान। अगर गठबंधन जीता तो डिप्टी सीएम के और पद बनेंगे, शायद कांग्रेस को मिल जाए। लेकिन हार गई तो? तेजस्वी मना भी कर सकते हैं।

बिहार के आम आदमी के लिए ये सारी जद्दोजहद क्या मायने रखती है? विकास, नौकरी, शिक्षा। तेजस्वी कहते हैं, हर जिले में उद्योग लगाएंगे, पलायन रोकेंगे। लेकिन 11 फ्रेंडली फाइट्स से वोट बंटेगा, एनडीए को फायदा होगा। नीतीश-बिहार को भूलना मत। 2020 में महागठबंधन हारा क्योंकि अंदरूनी कलह। इस बार भी वही गलती? कांग्रेस के लिए ये चुनाव सबक है। राहुल को बिहार पर ज्यादा ध्यान देना होगा, न कि सिर्फ दिल्ली की चिंता। अल्लावरु जैसे प्रभारियों को बलि न चढ़ाएं, बल्कि मजबूत बनाएं।अंत में, महागठबंधन की ये जंग तेजस्वी की जीत तो है, लेकिन राहुल की हार ज्यादा लगती है। बिहार का वोटर देख रहा है। अगर गठबंधन एकजुट रहा तो एनडीए को कड़ी टक्कर, वरना 2020 का इतिहास दोहराएगा। चुनाव 6 नवंबर से शुरू हो रहे हैं, देखते हैं पटना की सियासत क्या रंग लाती है

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