पवन सिंह राजनीति से हटे, अब मां और बहू के बीच चुनावी संग्राम तय
भोजपुरी पावर स्टार पवन सिंह ने चुनाव लड़ने से किया इनकार। अब काराकाट सीट पर मां प्रतिमा सिंह और पत्नी ज्योति सिंह आमने-सामने। विवाद, पारिवारिक कलह और राजनीतिक रणनीति ने पवन की राह मुश्किल की। जानिए स्टारडम से सियासत तक के इस सफर में कौन होगा असली खिलाड़ी मां, बहू या खुद पवन?


भोजपुरी के ‘पावर स्टार’ पवन सिंह की राजनीति की राह पर अब कांटे ही कांटे बिछे नजर आ रहे हैं। एक तरफ स्टेज पर धमाल मचाने वाला ये सितारा, दूसरी तरफ घर-परिवार और समाज के विवादों का शिकार। बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां बढ़ते ही पवन सिंह ने 11 अक्टूबर को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर साफ-साफ ऐलान कर दिया- ‘मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा। मैंने बीजेपी जॉइन की थी पार्टी के सिपाही बनने के लिए, न कि टिकट पाने के लिए।’ ये शब्द सुनकर उनके फैंस तो हैरान हैं ही, राजनीतिक गलियारों में भी सवाल उठने लगे हैं। आखिर क्यों ये सितारा, जो भोजपुरिया समाज का चेहरा माना जाता है, मैदान से पीछे हट गया? क्या ये सिर्फ पारिवारिक कलह है, या बीजेपी की रणनीति का हिस्सा? और सबसे बड़ा सवाल- अगर पवन खुद नहीं लड़ेंगे, तो उनके कोटे का टिकट किसे मिलेगा? इस पूरी कहानी को करीब से समझते हैं, जहां हर कदम पर विवाद और महत्वाकांक्षा की जंग छिड़ी हुई है।
पवन सिंह का राजनीति से रिश्ता नया नहीं है। भोजपुरी सिनेमा में ‘लॉरेंस ऑफ रोहतास’ जैसे किरदारों से घर-घर मशहूर ये कलाकार लंबे समय से बिहार की राजनीति की ओर आकर्षित था। 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने काराकाट सीट से निर्दलीय उम्मीदवारी की कोशिश की, लेकिन आखिरी वक्त में नाम वापस ले लिया। वजह? महिलाओं के सम्मान से जुड़े आरोप। पश्चिम बंगाल की आसनसोल सीट से बीजेपी टिकट की चर्चा चली, लेकिन वहां महिलाओं ने उनका विरोध शुरू कर दिया। कहा गया कि उनके गानों और व्यवहार से महिलाओं का अपमान होता है। पवन को मजबूरन पीछे हटना पड़ा। फिर आया लखनऊ का वो शो, जहां हरियाणवी एक्ट्रेस अंजलि राघव को स्टेज पर टच करने का वीडियो वायरल हो गया। हंगामा मचा, माफी मांगनी पड़ी। इन सबके बीच पवन की ‘एंटी-वुमन’ इमेज बनती चली गई, जो आज भी उनके पीछे पड़ी हुई है।
अब बिहार चुनाव 2025 की बात करें। उपेंद्र कुशवाहा के जरिए बीजेपी में एंट्री के बाद सबको लगा कि पवन आरा या काराकाट से मैदान में उतरेंगे। भोजपुरिया समाज की मजबूत पकड़, युवाओं का समर्थन- ये सब बीजेपी के लिए फायदेमंद था। लेकिन जैसे ही ये खबर हवा में आई, पवन की पत्नी ज्योति सिंह एक्टिव हो गईं। ज्योति, जो खुद काराकाट में लोकसभा चुनाव के दौरान सक्रिय रहीं, ने सोशल मीडिया पर पवन पर गंभीर आरोप लगाए। अबॉर्शन की दवाएं देने, नींद की गोलियां थमाने, घरेलू हिंसा और यहां तक कि चुनावी दबाव डालने का इल्जाम। ज्योति ने लखनऊ पहुंचकर वीडियो लाइव किए, जहां उन्होंने कहा कि पवन उन्हें राजनीति से दूर रखना चाहते हैं। पवन ने जवाब में इंस्टाग्राम पर पोस्ट डाली, सवाल किए कि ये सब क्यों? लेकिन विवाद थमने का नाम न ले। कोर्ट में तलाक का केस तीन-चार साल से चल रहा है, और अब ये पारिवारिक झगड़ा चुनावी रंग ले चुका है। जानकार बताते हैं कि ज्योति पवन को चुनाव लड़ने से रोकना चाहती हैं, ताकि खुद मैदान संभाल सकें। पवन के पिता रामबाबू सिंह ने तो यहां तक कहा कि अगर पवन बेटी को अपना लें, तो ज्योति चुनाव नहीं लड़ेंगी। ये परिवार का दर्द है, जो अब सियासत का हथियार बन गया।
पवन का चुनाव न लड़ने का फैसला इसी विवाद की देन लगता है। 10 अक्टूबर को ज्योति प्रशांत किशोर से मिलीं। जन सुराज पार्टी के संस्थापक से 20 मिनट की ये मुलाकात सुर्खियां बटोर गई। ज्योति ने साफ कहा- ‘मैं टिकट या चुनाव के लिए नहीं आई, बल्कि अपने साथ हुए अन्याय की बात करने आई। मैं महिलाओं की आवाज बनना चाहती हूं।’ प्रशांत ने भी समर्थन जताया- ‘पारिवारिक मामलों में दखल नहीं देंगे, लेकिन किसी महिला के साथ अन्याय हो तो जन सुराज खड़ा रहेगा।’ लेकिन अटकलें तो लग ही गईं कि ज्योति जन सुराज से टिकट ले सकती हैं। अगले ही दिन पवन ने ऐलान कर दिया। क्या ये संयोग था, या रणनीति? बीजेपी आलाकमान ने भी शायद सोचा होगा कि विवादों के बीच पवन को उतारना जोखिम भरा है। खासकर जब बिहार में महिला वोटरों की भूमिका इतनी अहम है। याद कीजिए, 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार को इसी मुद्दे पर नुकसान हुआ था। पवन को Y-कैटेगरी की सुरक्षा मिली हुई है, जो उनके खतरे को भी दर्शाती है। लेकिन राजनीति में खतरा तो विवादों से ही बढ़ता है। पवन ने कहा, ‘मैं सच्चा सिपाही रहूंगा।’ ये शब्द सुकून देने वाले हैं, लेकिन सवाल ये कि सिपाही बनकर कितना फायदा? भोजपुरिया समाज को संदेश देने की कोशिश तो की, लेकिन समाज में फुसफुसाहटें हैं कि पवन का राजनीतिक सपना अधर में लटक गया।
अब आता है असली सवाल- पवन के कोटे का टिकट किसे? यहां सियासी चालबाजी की बू आ रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, बीजेपी ने पवन की मां प्रतिमा सिंह को मैदान में उतारने का प्लान बनाया है। प्रतिमा देवी का राजनीति से पुराना नाता है। 2024 लोकसभा में उन्होंने काराकाट से नामांकन दाखिल किया था, पवन के साथ। नाम स्वीकार हुआ, लेकिन आखिरी दिन वापस ले लिया। वजह? शायद परिवार का फैसला। अब विधानसभा में वही तिकड़म दोहराई जा रही है। सूत्र बताते हैं कि पवन ने मां के लिए टिकट मांगा है। अगर बीजेपी आरा या काराकाट से प्रतिमा को टिकट देती है, तो जीत के बाद इस्तीफा देकर सीट खाली करा सकती हैं। फिर उपचुनाव में पवन उतरेंगे। ये ‘मां का बलिदान’ वाला फॉर्मूला पुराना है, लेकिन काम करता है। याद कीजिए, उत्तर प्रदेश में कई बार ऐसा हुआ। प्रतिमा की संपत्ति- गाड़ियां, सोना-चांदी- सब कुछ उनके नामांकन में दर्ज था। वो भोजपुरिया समाज में सम्मानित हैं, विवादों से दूर। बीजेपी के लिए ये सेफ ऑप्शन लगता है। लेकिन क्या प्रतिमा तैयार हैं? पवन की महत्वाकांक्षा तो बरकरार है। वो स्टेज से नीचे उतरकर सियासत में स्थापित होना चाहते हैं।
दूसरी तरफ ज्योति का कदम। मुलाकात के बाद उन्होंने काराकाट से निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। बिना किसी दल के समर्थन के ये जोखिम भरा है, लेकिन ज्योति की सक्रियता देखें तो लगता है वो तैयार हैं। लोकसभा में उन्होंने इलाके का दौरा किया, लोगों से जुड़ीं। पिता रामबाबू कहते हैं, ‘काराकाट ज्योति की पसंदीदा सीट है।’ अगर पवन-ज्योति का विवाद सुलझा, तो शायद वो पीछे हटें। लेकिन अभी तो सास-बहू की जंग छिड़ी हुई है। एक तरफ मां प्रतिमा, दूसरी तरफ बहू ज्योति- काराकाट सीट पर ये फैमिली ड्रामा चुनावी रंग ले लेगा। बिहार की सियासत में ये नया नहीं। याद कीजिए राबड़ी-राबुड़ी का दौर, या फिर लालू परिवार की राजनीति। लेकिन पवन का केस अलग है- यहां कलाकार की चमक के साथ विवादों की कालिख भी लगी हुई है।
बात अगर गहराई में उतरें, तो पवन सिंह का केस बिहार की राजनीति का आईना है। यहां स्टार पावर काम करता है, लेकिन विवादों की कीमत चुकानी पड़ती है। भोजपुरिया समाज, जो बिहार के 10-12 जिलों में फैला है, पवन को अपना मानता है। उनके गाने- ‘रिंकू भाभी’ से लेकर ‘लॉरेंस’ तक- युवाओं के दिलों में बसते हैं। लेकिन महिलाओं के आरोपों ने ये इमेज खराब कर दी। बीजेपी ने इन्हें भुनाने की कोशिश की, लेकिन जोखिम देखकर पीछे हट गई। उपेंद्र कुशवाहा जैसेब्रिज की मदद से एंट्री हुई, लेकिन अब क्या? अगर मां का प्लान कामयाब रहा, तो पवन उपचुनाव में लौट सकते हैं। वरना, सिपाही बनकर रैलियों में गाना गाते रहेंगे। ज्योति की निर्दलीय उम्मीदवारी समाज में नई बहस छेड़ेगी- महिलाओं के हक की। प्रशांत किशोर ने सही कहा, अन्याय के खिलाफ खड़े होने का वक्त है।
अंत में, पवन सिंह की कहानी हमें सिखाती है कि राजनीति में स्टारडम अकेला काफी नहीं। पारिवारिक सुख-शांति और समाज का विश्वास जरूरी है। बिहार चुनाव में ये ड्रामा अभी और गर्माएगा। क्या मां का बलिदान कामयाब होगा, या ज्योति की आवाज बुलंद? वक्त बताएगा। लेकिन एक बात पक्की भोजपुरिया समाज की नजरें पवन पर टिकी हैं। वो सिपाही बनकर रहेंगे या फिर लौटकर मैदान फतह करेंगे? ये सवाल बिहार की सियासत को रोमांचित कर रहा है।



